‘कौन सोया है इन मकबरों में,ये खबर कौन करेगा
कौन रहता था उन विरान मकानों में,यह हम न बोलें,
बयां कौन करेगा,मिटती हुई इमारतों को कलम कौन करेगा’
इस्लामपुर (नालंदा दर्पण)। हिंदुस्तान के शहंशाहों की शान-ओ-शौकत के क्या कहने,एक दौर हुआ करता था,जब उनके जलबे हुआ करतें थें। रंगीन महफिलें जमा करती थीं। इतिहास से जुड़े लोगों, शासकों के जन्म और मृत्यु की तिथियों की जगमगाहट और देश भर में फैले स्मारकों के बीच में भी कुछ ऐसे बादशाह भी रहें हैं जिनकी खामोश दास्तां है।
ऐसी ही एक खामोश दास्तां है कश्मीर के अंतिम शासक रहे युसुफ खान सुल्तान युसुफ शाह चक और उनके बेटे याकुब शाह की। कश्मीर के शासक अली शाह का बड़ा बेटा था युसुफ शाह 1579 में उसकी मृत्यु के बाद गद्दीनशीं हुआ था।
कश्मीर से हजारों किलोमीटर दूर नालंदा के इस्लामपुर के बेशवक गांव में वें बेनूर कब्र में खामोशी से दफन पड़ें हुए हैं। उनकी कब्र पर गुब्बार ही गुब्बार है। उनका अंजुमन विरान है। कोई विश्वास ही नहीं कर सकता है कि 1579 ईस्वी से 1586 ईस्वी तक कश्मीर पर हुकूमत करने वाले युसूफ़ शाह और उनके बेटे की यह क़ब्र है। इस क़ब्र को देखने से प्रतीत होता है कि एक बादशाह राजमहल की चकाचौंध से दूर सुकून फरमा रहा है। अपनी जिंदगी की बदहाली के किस्से बयां कर रहा है।
कहां वह कश्मीर की जन्नत और कहां यह वीराना। जहां उस अंजूमन में कोई सुल्तान को सलाम बजाने नहीं आता। बदरंग हो चुकी चाहर दीवारी से घिरी इस क़ब्र के आसपास उग आई हरी घास, चरती गाय और बकरियां इसकी बदहाली बयान कर रही हैं। जिसे लोग चरागाह समझ अपने मवेशी चराते हैं।
नालंदा जिला का इस्लामपुर जिसे मुगल काल में बसाया गया,मुगल स्थापत्य कला के अनेक उत्कृष्ट नमूने,भवन, इमारतें दिख जाती है। कहा जाता है कि प्राचीन काल में इसका प्राचीन नाम ईशरामपुर था। बाद में अंग्रेजी हुकूमत में इसका नाम इस्लामपुर पड़ गया। इस्लामपुर को ‘छोटी अयोध्या’ भी कहा जाता है। अयोध्या में लक्ष्मण किला के संस्थापक युगलायन शरणजी महाराज का जन्म इस्लामपुर में ही हुआ था।
मुगल काल में इस्लामपुर में कश्मीर चक,हैदर चक जैसे मुगलकालीन गांव भी है। कश्मीर के अंतिम चक शासक युसूफ शाह चक और उनके पुत्र याकुब शाह का इतिहास दफन हैं। इसी से सटे हैदर चक गांव नालंदा के सांसद कौशलेंद्र कुमार का पैतृक गांव है।
इस्लामपुर का धार्मिक, ऐतिहासिक और मुगलकालीन इतिहास रहा है। इस्लामपुर में हथिया बोर तालाब है। जो काफी प्रसिद्ध है। 150 वर्ष पूर्व् स्व सृजन चौधरी जमींदर के द्घारा हाथियो को नहाने के लिए व्यवस्था किया गया था।
इसी इस्लामपुर में दिल्ली दरबार है। इस नगर के जमींदार चौधरी जहुर शाह ने लगभग 150 वर्ष पूर्व दिल्ली दरबार की नकल पर वौलीबाग मे दिल्ली दरबार तथा लखनउ की तर्ज पर दो मंजिला इमारत वनवाया था। इसमे 52 कोठरी, 53 दरबाजा, धूप घडी़, भूलबुलैया, नाचघर, तालाब आदि निर्मित था। महल के उपर एक गुम्बद सुरक्षा प्रहरी के लिए बनवाया था। जो अदभुत तरीके से बना था।
इनके अलावे इस नगर के वूढानगर सूर्य मंदिर व सरोवर एवं मॉ जगदम्बे की मंदिर, आयोध्या ठाकुरबाडी, पुरानी ठाकुरबाडी, पक्की तालाब, भारत माता, मॉ काली, वग्गा धर्मशाला, हिंदुओं का शान समेटे बैठा है। वही थाना परिसर स्थित हजरत दाता लोदी शाह दिबान रहमतुलैह अलैह की मजार आस्था का केंद्र बना है।
इसी इस्लामपुर में थोड़ी दूर पर एक प्राचीन गांव है ‘बेशवक’ ! इसी बेशवक में कभी कश्मीर पर हुकूमत करने वाले ‘चक’ वंश के आखिरी बादशाह युसूफ शाह की कब्र है। युसूफ शाह 1579 से लेकर 1586 तक कश्मीर के शासक थे।
युसुफ शाह कश्मीर के इतिहास के सबसे रूमानी पात्रों में से एक है। सुंदर,सजीला,बांका युसुफ। जंगलों और पहाड़ों में भटकने वाला युसुफ। हब्बा खातुन का प्रेमी। युसुफ शाह जिसने गुलमर्ग की खूबसूरत वादियों की तलाश की। युसुफ शाह खुद भी संगीत, शायरी और प्रकृति का प्रेमी था। उसने कश्मीरी और फारसी में अनेक बेहतरीन ग़ज़लें कहीं है।लेकिन उसका वक्त इतना आसान नहीं था कि वह संगीत और साहित्य में डूबकर शांतिपूर्ण जीवन जी पाता।
पिता की मृत्यु के बाद उसे पहली चुनौती अपने चाचा अब्दाल चक से मिली। सैय्यद मुबारक बैहकी के नेतृत्व में विद्रोह हुआ और युसुफ शाह को गद्दी छोड़नी पड़ी। सैय्यद मुबारक बैहकी वैसे संत आदमी था। कश्मीरी सामंतों ने तो उसे इसलिए गद्दी पर बिठाया था कि उसके नाम से अपनी लूटमार जारी रख सकें।
लोहार चक के गद्दी पर बैठने के बाद युसुफ शाह ने अकबर से मदद मांगी। जनवरी,1580 में उसकी मुलाकात अकबर से आगरा में हुई जहां अकबर ने उसका स्वागत किया और मदद के लिए राजा मानसिंह और मिर्जा युसुफ खान को नियुक्त किया।
जुलाई,1580 में मुगल सैनिक उसकी मदद को आगे बढ़े इसी बीच युसुफ ने अपने पुराने वजीर मुहम्मद बट्ट से मिलकर मुग़ल सैनिकों को अंधेरे में रखकर व्यापारियों से कर्ज लेकर उसने अपनी सेना खुद तैयार की,और श्रीनगर का तख्त एक बार और हासिल करने में सफल रहा। युसुफ शाह ने कश्मीर में जजिया सहित कई कठोर करों को समाप्त कर दिया और उसके शासन में अपेक्षाकृत अधिक शांति और स्थिरता रही।
लेकिन यह आंतरिक शांति कश्मीर की सुरक्षा की गारंटी नहीं हो सकती थी। युसुफ शाह ने जिस तरह से अकबर के नियुक्त राजा मानसिंह और मिर्जा युसुफ खान को अंधेरे में रखकर कश्मीर पर कब्जा किया उसे लेकर अकबर खासे नाराज हुए। वह न केवल उसके लिए अपमानजनक था बल्कि युसुफ शाह को मोहरें की तरह इस्तेमाल कर कश्मीर को नियंत्रण में रखने के उसके साम्राज्यवादी मंसूबों पर भी कुठाराघात था। अकबर अबतक कश्मीर पर कब्जे का मन बना चुका था।
20 दिसंबर,1585 को राजा भगवानदास को सैनिकों के साथ आक्रमण के लिए भेजा। युसुफ शाह ने कश्मीर को तबाही से बचाने के लिए 14फरवरी,1586 को वह शाही कैंप पहुंचा, लेकिन उसकी उम्मीदों के खिलाफ उसे बंदी बना लिया गया। अकबर ने उसे लाहौर ले जाकर टोडरमल के हवाले कर दिया। जहां लगभग वह डेढ़ साल कैद में रहा।
बाद में मान सिंह के कहने पर अकबर ने उनपर रहम दिखाया। अकबर ने अपने सेनापति मानसिंह के सहायक के तौर पर युसूफ़ शाह चक को 500 घोड़ों का मनसब तथा ढ़ाई हजार रुपए की मासिक तनख्वाह बांधकर देकर नालंदा के बेशवक परगना में निर्वासित करके भेज दिया।
कहा जाता है कि अकबर की तरफ़ से लड़ते हुए, उड़ीसा पर फ़तह के बाद युसूफ़ शाह चक की तबीयत ख़राब हो गई। वह कश्मीर की खूबसूरत वादियों, संगीतकारों और कवियों की संगीत और हब्बा खातुन के लिए तरसता रहा तमाम दुश्वारियों के बीच छह दिनों की बीमारी के बाद 22 सितंबर,1592 को इस दुनिया ए फानी से विदा हो गया। उनकी मृत्यु के बाद उनके शव को इस्लामपुर के बेशवक में लाने में तीन महीने का वक्त लग गया था। 28 दिसंबर को उसे बेशवक में दफन किया गया।
अपने पिता युसुफ शाह की गिरफ्तारी के बाद याकुब शाह ने खुद सुल्तान घोषित कर अपने नाम से सिक्के ढलवां कर तथा खुल्बा पढ़वाकर संधि तोड़ दी।
कश्मीरी अपनी आजादी की लड़ाई मुगलों से लड़ रहे थे, लेकिन मुगलों के मुकाबले के लिए जिस तरह का सहिष्णु और समझदार शासक उन्हें चाहिए था, याकूब उन कसौटियों पर खरा नहीं उतरता था। उसकी नीतियों से शिया – सुन्नी विवाद एक बार फिर से भड़क गया और सुन्नी उसके खिलाफ हो गये तो दूसरी तरफ उसकी बददिमागी और क्रोध के कारण दरबार के अंदर भी तनाव तथा अस्थिरता का माहौल बन गया।
अकबर का कश्मीर पर कब्जा अब औपचारिकता भर रह गई थी और तमाम उतार चढ़ाव के बाद अंततः 16अक्टूबर, 1586 को कश्मीर मुगल शासन का हिस्सा बन गया। याकूब शाह को पटना में अपने पिता के पास भेज दिया गया। जहां अक्टूबर,1593 को चक वंश का यह आखिरी चश्म-ए-चिराग अपने पिता की कब्र के बगल में हमेशा के लिए सो गया।
जम्मू और कश्मीर के तत्कालीन मुख्यमंत्री शेख़ अब्दुल्लाह 19 जनवरी, 1977 को राज्य की कल्चरल एकेडमी की एक टीम के साथ बेशवक आए थे। जहां उनकी मजार पर चादरपोशी की थी।
कश्मीरी चक के मोतवल्ली मो यासिर राशिद खान ने बिहार राज्य सुन्नी वक्फ़ बोर्ड में कश्मीरी चक और बेशवक की ज़मीन को डॉक्टर अब्दुल रशीद ख़ान ने रजिस्टर कराया था। बेशवक में लगभग पांच एकड़ तथा कश्मीरी चक में एक एकड़ 37 डिसमिल जमीन मस्जिद की है।
यासीर रशीद ख़ान उन्ही के पोते हैं और उनका दावा है कि वो युसूफ़ चक के वंशज है। यासीर रशीद ख़ान लगातार इस ऐतिहासिक धरोहर को बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं।