जंग-ए-आजादी के महानायक अशफाक उल्ला खां की 122 वीं जयंती पर विशेष

राकेश बिहारी शर्मा – कई क्रांतिकारियों के नाम जोड़े में लिए जाते हैं जैसे भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद और राजगुरू। ऐसा ही एक और बहुत मशहूर जोड़ा है रामप्रसाद बिस्मिल और अशफाक उल्ला खां का। इसका आशय सिर्फ ये नहीं कि काकोरी कांड में यही दोनों मेन आरोपी थे। बल्कि इसका आशय था कि दोनों एक-दूसरे को जान से भी ज्यादा चाहते थे। दोनों ने जान दे दी, पर एक-दूसरे को धोखा नहीं दिया। रामप्रसाद बिस्मिल के नाम के आगे पंडित जुड़ा था। वहीं अशफाक थे मुस्लिम, वो भी पंजवक्ता नमाजी। पर इस बात का कोई फर्क दोनों पर नहीं पड़ता था। क्योंकि दोनों का मकसद एक ही था। आजाद मुल्क। वो भी मजहब या किसी और आधार पर हिस्सों में बंटा हुआ नहीं, पूरा का पूरा। इनकी दोस्ती की मिसालें आज भी दी जाती है। अशफाक उल्ला खां तो भारत के प्रसिद्ध अमर शहीद क्रांतिकारियों में से एक माना जाता है। वे उन वीरों में से एक थे, जिन्होंने देश की आजादी के लिए हंसते-हंसते अपने प्राणों का बलिदान दे दिया। अपने पूरे जीवन काल में अशफाक, हमेशा हिन्दू-मुस्लिम एकता के पक्षधर रहे।

अशफाक उल्ला खां का जन्म और पारिवारिक व सामाजिक जीवन

अशफाक उल्ला खां का जन्म 22 अक्टूबर 1900 ई. में उत्तरप्रदेश के शाहजहांपुर स्थित शहीदगढ़ में हुआ था। उनके पिता का नाम मोहम्मद शफीक उल्ला खान और उनकी मां का नाम मजहूरुन्न्िानशां बेगम था। ये अपने माता-पिता के छह संतानों में से सबसे छोटे थे। इनके पिता पुलिस विभाग में कार्यरत थे। वे पठान परिवार से ताल्लुक रखते थे और उनके परिवार में लगभग सभी सरकारी नौकरी में थे। बाल्यावस्था में अशफाक का मन पढ़ाई में नहीं लगता था। बल्कि उनकी रुचि तैराकी, घुड़सवारी, निशानेबाजी में अधिक थी। बाल्यावस्था में वे उभरते हुए शायर के तौर पर पहचाने जाते थे। पर घर में जब भी शायरी की बात चलती, उनके एक बड़े भाईजान अपने साथ पढ़ने वाले रामप्रसाद बिस्मिल का जिक्र करना नहीं भूलते। इस तरह से किस्से सुन-सुनकर अशफाक रामप्रसाद के फैन हो गए थे। अशफाक उल्ला खां को कविताएं लिखने का काफी शौक था, जिसमें वे अपना उपनाम हसरत लिखा करते थे। 25 साल की उम्र में अशफाक ने अपने क्रांतिकारी साथियों के साथ मिलकर ब्रिटिश सरकार की नाक के नीचे से सरकारी खजाना लूट लिया था। इस कांड में राम प्रसाद बिस्मिल, ठाकुर रोशन सिंह और राजेंद्र नाथ लाहिड़ी को फांसी की सजा हो गई और सचिंद्र सान्याल और सचिंद्र बख्शी को कालापानी की सजा सुनाई गई थी। बाकी क्रांतिकारियों को 4 साल से 14 साल तक की सजा सुनाई गई थी।

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क्रांतिकारी अशफाक उल्ला खां को पढ़ने-लिखने में नहीं लगता था मन

अशफाक उल्ला खां का बचपन से ही पढ़ने-लिखने में मन नहीं लगता था। उन्हें तैराकी करना, बंदूक लेकर शिकार पर जाना ज्यादा पसंद था। देश की भलाई के लिए किए जाने वाले आन्दोलनों की कथाओं / कहानियों को पढ़ने में बढ़चढ़ कर हिस्सा लेते थे। उन्होंने कई बेहतरीन कविताएं लिखीं थी। जिसमें वह अपना उपनाम हसरत लिखा करते थे। वह अपने लिए कविता लिखते थे, उन्होंने कभी अपनी कविताओं को प्रकाशित करवाने का कोई चेष्टा नहीं की। क्रांतिकारी उनकी लिखी कविताएं अदालत आते-जाते समय अक्सर ‘काकोरी कांड’ में गाया करते थे।

अशफाक उल्ला खां का देश के क्रांतिकारियों से सम्पर्क

जिस समय महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन का नेतृत्व किया था उस समय अशफाक उल्ला खाँ एक स्कूली छात्र थे। लेकिन इस आंदोलन का अशफाक पर काफी प्रभाव पड़ा जिसने इन्हें स्वतंत्रता सेनानी बनने के लिए प्रेरित किया। चौरी-चौरा की घटना के बाद, महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन को स्थगित कर भारत के युवाओं को निराशाजनक स्थिति में छोड़ दिया था। अशफाक उल्ला उनमें से एक थे। असफाक उल्ला खाँ ने जल्द से जल्द भारत को स्वतंत्र कराने की ठान ली थी और ये क्रांतिकारियों से जुड़ गए। देश में आजादी के किये चल रहे आंदोलनों और क्रांतिकारी घटनाओं से काफी प्रभावित अशफाक के मन में भी क्रांतिकारी भाव जागे और उसी समय मैनपुरी षड्यंत्र के मामले में शामिल रामप्रसाद बिस्मिल से हुई और वे भी क्रांति की दुनिया में शामिल हो गए। इसके बाद वे ऐतिहासिक काकोरी कांड में सहभागी रहे और पुलिस के हाथ भी नहीं आए। इस घटना के बाद वे बनारस आ गए और इंजीनियरिंग कंपनी में काम शुरू किया। उन्होंने कमाए गए पैसे से कांतिकारी साथियों की मदद भी की। काम के संबंध में विदेश जाने के लिए वे अपने एक पठान मित्र के संपर्क में आए, जिनके उनके साथ छल किया और पैसों के लालच में अंग्रेज पुलिस को सूचना देकर अशफाक उल्ला खां को पकड़वा दिया। उनके पकड़े जाने के बाद जेल में उन्हें कई तरह की यातनाएं दी गई और सरकारी गवाह बनाने की भी कोशिश की गई। परंतु अशफाक ने इस प्रस्ताव को कभी मंजूर नहीं किया। देश की गुलामी की जंजीरों को तोड़ने के लिए हंसते−हंसते फांसी का फंदा चूमने वाले अशफाक उल्ला खान जंग−ए−आजादी के महानायक थे।
शंखनाद के अध्यक्ष इतिहासकार डॉ. लक्ष्मीकांत सिंह के अनुसार काकोरी कांड के बाद जब अशफाक को गिरफ्तार कर लिया गया तो अंग्रेजों ने उन्हें सरकारी गवाह बनाने की कोशिश की और कहा कि यदि हिन्दुस्तान आजाद हो भी गया तो उस पर हिन्दुओं का राज होगा तथा मुसलमानों को कुछ नहीं मिलेगा। इसके जवाब में अशफाक ने ब्रितानिया हुकूमत के कारिन्दों से कहा कि फूट डालकर शासन करने की अंग्रेजों की चाल का उन पर कोई असर नहीं होगा और हिन्दुस्तान आजाद होकर रहेगा। अशफाक ने अंग्रेजों से कहा था− तुम लोग हिन्दू−मुसलमानों में फूट डालकर आजादी की लड़ाई को नहीं दबा सकते। हिन्दुस्तान में क्रांति की ज्वाला भड़क चुकी है जो अंग्रेजी साम्राज्य को जलाकर राख कर देगी। अपने दोस्तों के खिलाफ मैं सरकारी गवाह बिल्कुल नहीं बनूंगा। अशफाक उल्ला खां के जीवन पर महात्मा गांधी का प्रभाव शुरू से ही था, जब गांधीजी ने ‘असहयोग आंदोलन’ वापस ले लिया तब उन्हें अत्यंत पीड़ा पहुंची थी। रामप्रसाद बिस्मिल और चन्द्रशेखर आजाद के नेतृत्व में 8 अगस्त, 1925 को क्रांतिकारियों की एक अहम बैठक हुई, जिसमें 9 अगस्त, 1925 को सहारनपुर-लखनऊ पैसेंजर ट्रेन काकोरी स्टेशन पर आने वाली ट्रेन को लूटने की योजना बनाई गई जिसमें सरकारी खजाना था।

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काकोरी कांड में ऐसे लूटा था सरकारी खजाना

अशफाक उल्ला खां का मानना था की बिना हथियारों के क्रांति नहीं हो सकती इसलिए उन्हें हथियारों की सख्त जरूरत थी चूंकि हथियार खरीदने के लिए उनके पास पैसे नहीं थे। इसी के तहत 8 अगस्त 1925 को शाहजहांपुर में क्रांतिकारियों की बैठक आयोजित की गई थी। जिसमें उन लोगों ने ट्रेन से ले जाए जा रहे हथियार को खरीदने के बजाय उस सरकारी खजाने को लूटने का फैसला किया। अगले दिन यानि 9 अगस्त 1925 को राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला, राजेन्द्र लाहिड़ी, ठाकुर रोशन सिंह, शचीन्द्र बख्शी, चंद्रशेखर आजाद, केशव चक्रवर्ती, बनवारी लाल, मुकुन्दी लाल, मनमथनाथ गुप्ता समेत कई क्रांतिकारियों के समूह ने ककोरी गाँव में सरकारी धन ले जाने वाली ट्रेन में लूटपाट की थी। इस घटना को इतिहास में प्रसिद्ध काकोरी काण्ड के रूप में जाना जाता है। इस लूटपाट के कारण राम प्रसाद बिस्मिल को 26 सितंबर 1925 की सुबह पुलिस द्वारा गिरफ्तार कर लिया गया था। अशफाक उल्ला फरार हो गए थे। वह बिहार से बनारस चले गए और वहाँ जाकर उन्होंने इंजीनियरिंग कंपनी में काम करना शुरू कर दिया। उन्होंने 10 महीने तक वहाँ काम किया। इसके बाद वह इंजीनियरिंग का अध्ययन करने के लिए विदेश जाना चाहते थे जिससे आगे चलकर उन्हें स्वतंत्रता संग्राम में मदद मिल सके। अपने इसी उद्देश्य को पूरा करने के लिए वह दिल्ली भी गए। अशफाक उल्ला खां ने अपने जिन मित्रों पर भरोसा किया उन्हीं में से एक मित्र ने उनकी मदद करने का नाटक किया और धोखा दिया, उसने असफाक उल्ला खां को पुलिस को सौंप दिया। अशफाक उल्ला खाँ को फैजाबाद जेल में बन्द कर दिया गया। उनके भाई रियासतुल्लाह उनके वकील थे जिन्होंने इस मामले (केस) को लड़ा था। काकोरी काण्ड का मामला राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खाँ, राजेंद्र लाहिड़ी और रोशन को मौत की सजा देने के साथ समाप्त हुआ। जबकि अन्य लोगों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। अशफाक उल्ला खाँ को 19 दिसंबर 1927 को फांसी दी गई थी।

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