राकेश बिहारी शर्मा – बिहारशरीफ के ऐतिहासिक किले के भग्नावशेष के मध्य में स्थित, प्राचीन उदन्तपुरी विश्वविद्यालय की स्मृति से जुड़ा बिहारशरीफ का नालन्दा कॉलेज, जिसकी गणना कभी राज्य के गिने-चुने श्रेष्ठ कॉलेजों में होती थी, राय बहादुर बाबु ऐदल सिंह की अमर धरोहर के रूप में आज भी खड़ा है। यद्यपि राज्य में उच्च शिक्षा की बिगड़ती हुई हालत और जनजीवन में गिरावट आने के साथ इस कॉलेज ने भी अपनी पूर्व प्रतिष्ठा खोयी है, यह आज भी क्षमतावान है और यह उस महापुरुष का पुण्य ही है, जिसने इसे पूरी तरह विनष्ट होने से बचा रखा है।
वर्तमान नालन्दा जिला तथा प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय की बीच के कड़ी का नाम है नालंदा कॉलेज बिहारशरीफ इस कॉलेज की स्थापना 1920 ईस्वी में कर्मयोगी रायबहादुर बाबु ऐदल सिंह के सौजन्य से किया गया जो बिहार का सातवां कालेज था। जिसका संबद्धन तत्कालीन पटना विश्वविद्यालय से मिला था। नालन्दा कालेज बिहारशरीफ के संस्थापक व दानदाता अधिष्ठाता कर्मयोगी रायबहादुर बाबू ऐदल सिंह का जन्म 13 फरवरी 1836 ईस्वी में रामी विगहा (अस्थावां) गांव में हुआ था। उनका निधन 83 वर्ष के उम्र में 14 अगस्त 1919 को हुआ था।
राय बहादुर बाबु ऐदल सिंह के पिता का नाम यदु नारायण सिंह था। वे एक अत्यन्त ही उद्यमी एवं कर्मठ व्यक्ति थे। यदु नारायण सिंह ने राय बहादुर बाबु ऐदल सिंह की पहली शादी यमहरा में कराई थी। पहली शादी से उन्हें एक पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई। जिनका नाम एकादश रूद्र प्रसाद नारायण सिंह रखा गया था। शादी के बाद उन्हें एक पुत्र पैदा हुआ, ये खुद और पत्नी सहित पुत्र की मृत्यु हो गई। तब राय बहादुर बाबु ऐदल सिंह ने दूसरी शादी खुटहा (बढिया- पटना जिला) में किया। दूसरी पत्नी से कुमार कृष्ण बल्लभ नारायण सिंह उर्फ़ बौआजी का जन्म हुआ। जिसने उनके सुयश को बढ़ाया और एक आदर्शनिष्ठ व्यवसायी के रूप में पर्याप्त ख्याति अर्जित की। वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की बिहार राज्य के शाखा के प्रधान रहे हैं। राजनीति में रहते हुए भी उन्होंने कभी राजनीति को व्यवसाय नहीं बनाया और न ही अपने धन और शक्ति का उपयोग अनुचित लाभ कमाने के लिये किया।
बौआजी का दो पुत्र एक गोगा सिंह और दूसरा अशोक सिंह हुए। गोगा सिंह का एक पुत्र रौशन सिंह हुआ। और बुआजी के दुसरे पुत्र अशोक सिंह से भी एक पुत्र सोनु सिंह हुआ जिनका शादी उद्योगपति सम्प्रदा बाबु की पोती से हुआ।
बाबु ऐदल सिंह को अपने पूर्वजों से विरासत में एक छोटी सी जमींदारी मिली थी, जिसकी आय मात्र 250 रूपये वार्षिक थी। उन्होंने अपनी लगन-मेंहनत और उद्यम के बल पर अल्पकाल में ही उसे लगभग-75000/- (पचहत्तर हजार रूपये) की वार्षिक आय वाली जमींदारी में बदल डाला तथा इसके साथ बहुत अधिक भू-सम्पत्ति भी अर्जित की, जिसका वर्तमान मूल्य कई करोड़ रुपये होंगे। वे एक लाइसेंस शुदा महाजन भी थे और उनका लेन-देन का बहुत बड़ा कारोबार था। उनकी उपलब्धियों और उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा को देखते हुए ब्रिटिश सरकार ने उन्हें ‘राय बहादुर’ की उपाधि देकर सम्मानित भी किया था।
यह तस्वीर कुछ लोगों के मन में उनकी एक ऐसी छवि उत्पन्न कर सकती है, जो एक धनी सामन्त और सूदखोर महाजन की होती है। पर यह पूरी तरह एक भ्रान्त समझदारी होगी। राय बहादुर ऐदल सिंह की भौतिक उपलब्धियाँ इस दृष्टि से महत्त्वपूर्ण नहीं थीं कि वे कुछ दिनों में ही एक अत्यन्त धनी व्यक्ति बन गये। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि केवल अपने पुरुषार्थ के बल पर उन्होंने यह अर्थोपार्जन किया तथा जीवन में जिन सिद्धान्तों को उन्होंने ग्रहण किया उनका अन्त तक दृढ़ता से पालन किया। उन्हें एक कंजूस व्यक्ति कहा जाता था, क्योंकि वे स्वयं अत्यन्त सादगी से रहते थे। विशाल सम्पत्ति अर्जित करने के बावजूद उन्होंने अपने खान-पान की आदतें नहीं बदलीं थीं।
यह कहा जाता है कि उनकी रसोई में साग और आलू का भुर्ता अनिवार्य रूप से बनता था तथा उनके लिये अलग से विशेष भोजन की कोई व्यवस्था नहीं रहती थी। वे अपने निकट सम्बन्धियों और सम्पर्क के लोगों को हमेशा फजूल खर्ची से बचने की सलाह देते थे। वे स्वयं आडम्बर और तड़क-भड़क से कितनी दूर रहने की चेष्टा करते थे, इसका अनुमान उनके जीवन की एक घटना से लगाया जा सकता है। उन्हें जब ‘राय बाहादुर’ की उपाधि से सम्मानित करने का निर्णय सरकार ने लिया, तो उच्चाधिकारियों ने इसकी सूचना दी और उनसे यह कहा कि यह समारोह उनके घर पर ही होगा।
उस महापुरुष ने विनम्रता पूर्वक यह अनुरोध किया कि अच्छा हो, यदि इसका आयोजन स्थानीय डाकबंगले में ही किया जाय, क्योंकि उनका घर उन अधिकारियों के स्वागत के उपयुक्त नहीं है। यह वास्तव में उस महापुरुष की विनम्रता और वैराग्यपूर्ण उदासीनता ही थी, जिसके कारण उन्होंने इस मौके का उपयोग अपनी शान-शौकत दिखाने के लिए नहीं करना चाहा। ‘सादा जीवन और उच्च विचार’ का ढिंढोरा उन्होंने नहीं पीटा। पर अपने कार्यों से इसे प्रमाणित कर दिया कि उनका जीवन इस आदर्श का मूर्तिमान रूप था। उन्हें स्कूल या कॉलेज में कोई औपचारिक शिक्षा प्राप्त नहीं हुई थी, पर उन्हें उर्दू और फारसी का अच्छा ज्ञान था। वे सही अर्थों में एक शिक्षित, उदार एवं परोपकारी व्यक्ति थे। उनके जीवन में कुछ अत्यन्त दुःखद घटनायें हुईं।
राय बहादुर ऐदल सिंह के महान् व्यक्तित्व एवं दुर्लभ गुणों का ठोस एवं व्यक्त रूप ‘नालन्दा कॉलेज’ है। राय बहादुर ने इस कॉलेज की स्थापना का निर्णय उस समय लिया, जब वे जीवन के सर्वाधिक कष्टदायक क्षणों से गुजर रहे थे। उनका उत्तराधिकारी विलुप्त हो चुका था।
उनकी वृद्धावस्था की संतान ‘श्री कृष्ण बल्लभ नारायण सिंह’ की उम्र मात्र 2 वर्ष की थी और राय बहादुर स्वंय जीवन की उस बेला में पहुँच चुके थे जब किसी भी समय उनका जीवन-द्वीप बुझ सकता था। परन्तु उस दृढ निश्चयी पुरुष पर इन झंझावातों का कोई असर नहीं पड़ा। बिहार उस समय शैक्षिक संक्रमण काल से गुजर रहा था। उन्होंने लम्बे समय से संजोई अपनी ‘विद्यादान’ की आकांक्षा को मूर्त रूप देने का निश्चय किया। सन् 1919 में उन्होंने एक वसीयत की, जिसमें इस पूरे क्षेत्र और निकटवर्ती स्थानों में किसी कॉलेज के न रहने पर चिन्ता प्रकट करते हुए उन्होंने बिहारशरीफ में एक कॉलेज की स्थापना का निर्णय लिया।
इसके लिये उन्होंने 12000/- (बारह हजार) रु. मूल्य की शुद्ध वार्षिक आय की जमींदारी कॉलेज को दान-स्वरूप दी, जिसका तत्कालीन मूल्य लगभग 2 लाख रु.था। साथ ही उन्होंने 30,000 रु. नगद दिये। इसकी व्सवस्था के लिये उन्होंने जिस ट्रस्ट का निर्माण किया, उसके सदस्य समाज के विभिन्न वर्गों के सम्मानित प्रतिनिधि थे। सदस्यों में जिनकी संख्या 8 थी, राय बहादुर ऐदल सिंह के अतिरिक्त केवल एक व्यक्ति उनकी जाति के थे। शेष छ: सदस्य पदेन एवं अन्य जातियों के थे। यह उल्लेखनीय है कि इन में से कोई भी व्यक्ति उनका निकट सम्बन्धी नहीं था। उन्होंने ट्रस्ट के सदस्यों को इसका पूर्ण अधिकार दिया कि वे अपने विवेक के अनुसार इस धन राशि एवं सम्पति का उपयोग शिक्षा के उत्थान के लिए करें। यह तथ्य भी उस महापुरुष की त्यागपूर्ण दानशीलता का अनुपम उदाहरण है।
उन्होंने इस कॉलेज का नामकरण अपने, या अपने किसी पूर्वज या जाति या वंश के नाम पर नहीं किया, बल्कि इसे एक ऐसा नाम दिया, जो इसे भारत के गौरवशाली अतीत के एक अतिविशिष्ट नाम से जोड़ देता है। लोगों का कहना है कि वे कहा करते थे कि इसे कोई ऐसा नाम न दो, जिससे अन्य लोगों को इसे भविष्य में अपनाने में कोई संकोच हो। जैसा उन्होंने अपनी वसीयत में लिखा है, उनके लिए यह अत्यन्त पीड़ा का विषय था कि एक उच्च शिक्षण संस्था के अभाव में क्षेत्र की अनेक प्रतिभाएँ नष्ट हो जाती हैं। उन्हें अपने पैतृक गाँव से असीम प्रेम था।
अतः उन्होंने यह विशेष प्रावधान किया कि रामी बीघा के सभी छात्र जो इस कॉलेज में पढ़ना चाहेंगे, उनका नामांकन यहाँ सुनिश्चित किया जाएगा और उन्हें निःशुल्क शिक्षा मिलेगी। यह सुविधा उस गाँव के सभी छात्रों को बिना जाति और धर्म का भेद भाव रखे दी गई। पर साथ ही यह शर्त भी रखी गई कि यह सुविधा उन्हीं छात्रों को मिलती रहेगी, जो अपनी पढ़ाई-लिखाई में प्रगति करते हैं और जिनके चरित्र में कोई दोष नहीं है। किसी भी महापुरुष की पहचान उसके महान कृत्यों से नहीं, बल्कि उसके आचरण के साधारण पक्षों से होती है। राय बहादुर के व्यक्तित्व का आकलन केवल दान की उस राशि से नहीं किया जा सकता जो उन्होंनें कॉलेज के निर्माण के लिये दी, यद्यपि उस समय की दृष्टि से यह एक बड़ी राशि थी, अपितु उन छोटी-छोटी बातों से किया जा सकता है, जिसका ध्यान उन्होंने कॉलेज के निर्माण के सन्दर्भ में रखा।
अपनी वसीयत में उन्होंने इसका भी स्पष्ट उल्लेख कर दिया था कि यदि किसी कारणवश यह कॉलेज नहीं खुल पाया तो ट्रस्टी अपने विवेक के अनुसार इसका उपयोग किसी अन्य शैक्षणिक कार्य के लिये कर सकते हैं। किसी भी स्थिति में दान में दी हुई इस सम्पत्ति में रद्दो बदल का अधिकार उन्हें या उनके किसी उत्तराधिकारी को नहीं होगा। उस महापुरुष की स्मृति, बिहार के वर्तमान बिगड़े हुए माहौल में, हमें उनके जीवन से बहुत कुछ सीखने की प्रेरणा देती है। हम इन विभूतियों के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करते हुए, यह कामना करते हैं कि राज्य में उच्च शिक्षा के वर्तमान शीर्षस्थ व्यक्ति इस उदाहरण से कुछ सीखने की चेष्टा करें।