बिहार केशरी डॉ श्रीकृष्ण सिंह की 135 वीं जयंती पर विशेष

राकेश बिहारी शर्मा – अखंड बिहार राज्य के प्रथम मुख्यमंत्री, “बिहार केसरी” डॉ. श्रीकृष्ण सिंह आघुनिक बिहार के निर्माता एवं स्वतंत्रता-संग्राम के अग्रगण्य सेनानियों में से रहे हैं। इनका सम्पूर्ण जीवन राष्ट्र एवं जन-सेवा के लिये समर्पित था। स्वाधीनता की प्राप्ति के बाद बिहार के नवनिर्माण के लिए उन्होंने जो कुछ किया उसके लिए बिहारवासी सदा उनके ऋणी रहेंगे। उनके उदार एवं निष्कलंक चरित्र में बुद्ध की करूणा, गाँधी की नैतिकता एवं सदाचार परिवेष्ठित थी।

श्रीकृष्ण सिंह का प्रारंभिक पारिवारिक जीवन एवं शिक्षा-दीक्षा

बिहार केशरी श्रीकृष्ण सिंह का जन्म 21 अक्टूबर 1887 को इनके अपने ननिहाल, वर्तमान नवादा जिले के नरहट थाना अंतर्गत खंनवाँ ग्राम में हुआ था। उनका पैतृक गांव वर्तमान शेखपुरा जिला माउर “मौर” गांव उस समय के मुंगेर जिला जोकि बारबीघा के नजदीक है, वर्तमान में यह गांव शेखपुरा जिला में पड़ता है।
उनके पिता श्री हरिहर सिंह एक धार्मिक प्रवृत्ति के किसान थे। उनकी मां भी धार्मिक विचारधारा वाली महिला थी, और धार्मिकता के कारण ही हरिहर सिंह अपने 5 पुत्रों का नाम भगवान के नाम पर रखा 1. श्री देवकीनंदन सिंह उर्फ मुख्तार बाबू, प्रकांड ज्योतिषाचार्य (पुस्तक लिखे: ज्योतिष रत्नाकर), 2. श्री रामकृष्ण सिंह, 3. श्री राधा कृष्ण सिंह, 4. डॉ. श्री कृष्ण सिंह (भूत पूर्व मुख्यमंत्री), 5. श्री गोपी सिंह थे। जब श्रीकृष्ण बाबू पांच वर्ष के हुए तो मां प्लेग रोग से मर गईं। डॉ. श्रीकृष्ण सिंह बचपन से ही पढ़ने में बहुत तेज थे वह अपने स्कूल के होनहार छात्रों में गिने जाते थे।
इन्होने अपनी प्रारंभिक शिक्षा अपने गांव माउर “मौर” की पाठशाला में प्राइमरी तक ली और आगे की शिक्षा छात्रवृति पाकर जिला स्कूल मुंगेर से पूरी की। वर्ष 1906 में पटना कालेज, पटना विश्विद्यालय के छात्र बने। वर्ष 1913 में एम.ए. की डिग्री हासिल करके वर्ष 1914 में कलकत्ता विश्विद्यालय से बी.एल. की डिग्री प्राप्त की। अपनी शिक्षा पूरी कर लेने के उपरांत वर्ष 1915 में मुंगेर से वकालत की शुरुआत करते हुए समय के साथ वकालत के क्षेत्र में अपना अहम स्थान प्राप्त किया। इसी दौरान ये झारखंड-गिरिडीह के सेनादोनी गांव के प्रतिष्ठित किसान स्वर्गीय ब्रह्म नारायण देव की सुपुत्री राम रूचि देवी के साथ परिणय सूत्र में बंधे और उन्हें दो पुत्र, शिवशंकर सिंह और बन्दिशंकर सिंह का जन्म हुआ। पैतृक घर माउर में आज भी धरोहर के रूप में उनके उपयोग किए हुए सामान संरक्षित हैं।

श्रीकृष्ण सिंह का राजनीतिक जीवन

विद्यार्थी जीवन से ही श्री कृष्ण सिंह के अंदर राष्ट्र प्रेम की भावना एवं समाज सेवा कूट–कूट कर भरी थी। महात्मा गाँधी से इनकी पहली व्यक्तिगत मुलाकात वर्ष 1911 में हुई और गांधीवादी विचारधारा से प्रभावित होकर उनके अनुयायी बन गये थे। अपने छात्र जीवन एवं राजनीतिक जीवन के प्रारंभिक दौर में श्री बाबू महर्षि अरविंद और तिलक के विचारों से प्रभावित रहे। वे भारतीय राजनीति के समकालीन नेताओं को अरविंद और तिलक की आंखों से देखना चाहते थे। यही कारण था कि स्कूली जीवन में ही एक हाथ में कृपाण और दूसरे हाथ में गीता लेकर गंगा नदी में प्रवेश कर कसम खाने वाले श्री कृष्ण सिंह ने 1912 में पहली बार पटना में होने वाले अखिल भारतीय कांग्रेस के महाधिवेशन में नरमदलीय कांग्रेस के प्रति अपनी उपेक्षा प्रदर्शित करने के कारण कोई योगदान नहीं दिया। वे उस समय पटना कालेज के छात्र थे। 1907 के सूरत कांग्रेस में झगड़े के बाद तिलक अपने गरम दलीय सहकर्मियों को लेकर कांग्रेस छोड़ निकल गये, तब श्री बाबू ने कांग्रेस से किनारा कर लिया था। इसी तरह जब जार्ज पंचम का पटना आगमन हुआ और वो शहर का नजारा देखने के लिए नाव पर सवार हो गंगा भ्रमण को निकले थे। तो सारा किनारा लोगों से खचाखच भर गया था। मिंटो होस्टल के छात्र भी भीड़ में जा मिले, किंतु श्री कृष्ण सिंह अपने कमरे से बाहर नहीं निकले। पढ़ाई पूरी करने के बाद 1914 में बी० एन० कॉलेज पटना में अध्यापक बने थे। वर्ष 1927 में वह विधान परिषद के सदस्य बने और 1929 में बिहार प्रदेश कांग्रेस कमेटी के महासचिव बने। 1930 में सिन्हा ने गढ़पुरा में नमक सत्याग्रह में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। गिरफ्तार किए जाने पर उन्हें अपने हाथों और सीने में गंभीर जख्मी की चोटों का सामना करना पड़ा, उन्हें छह महीने तक कैद कर दिया गया और फिर उन्हें फिर से गिरफ्तार कर लिया गया और सिविल अवज्ञा आंदोलन के दौरान दो साल तक कैद कर दिया गया। उन्हें गांधी-इरविन संधि के बाद रिहा कर दिया गया और फिर उन्होंने अपने राष्ट्रवादी काम के साथ शुरू किया और किसान सभा के साथ काम किया। 1941 के व्यक्तिगत सत्याग्रह के लिए गांधीजी ने उन्हें बिहार का प्रथम सत्याग्रही नियुक्त किया था। 1930 ई० में शुरू हुए नमक आंदोलन में ये बिहार का नेतृत्व किये। स्वाधीनता की प्राप्ति के बाद बिहार के नवनिर्माण के लिए उन्होंने जो कुछ किया उसके लिए बिहारवासी सदा उनके ऋणी रहेंगे। उनके उदार एवं निष्कलंक चरित्र में बुद्ध की करूणा, गाँधी की नैतिकता एवं सदाचार परिवेष्ठित थी। 1934 ई० में केंद्रीय असेम्बली सदस्य बने। और आजादी के बाद 1961 ई० तक बिहार के मुख्यमंत्री रहे थे। ये देश की आजादी के लिए 1920 ई० से 1945 ई० तक कुल दस बार जेल गए थे। स्वतंत्रता सेनानी के रूप में श्री बाबू ने 7 वर्ष 10 दिन तक जेल की यातना सही और कई ढंग से प्रताड़ित होते रहे लेकिन संकल्प के प्रति निष्ठा कभी कमजोर नहीं हुई।
श्री कृष्ण सिंह जी को लोग प्यार से “बिहार केसरी” के नाम से याद करते हैं। श्री कृष्ण सिंह उर्फ़ श्री बाबू देश के आजादी के साथ-साथ बिहार के विकास के लिए अपनी सारी शक्ति और बुद्धि लगाई थी। देश को वर्षों गुलामी के बाद आजादी मिली थी। ऐसे में श्री बाबू ने बिहार की आधारभूत संरचना को स्थापित करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ा था। अपने मुख्य मंत्रीत्व काल में कल्याण विभाग की स्थापना की दलित छात्रों की शिक्षा, उनके तकनीकी प्रशिक्षण की निःशुल्क सुविधा व विशेष छात्रवृति की व्यवस्था की थी। ये भारतीय राजनीति के दैदीप्यमान राजनेता बने रहे।

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बिहार के विकास में श्री बाबू का अभूतपूर्व योगदान

अंतरिम सरकार और बिहार सरकार के मुख्यमंत्री के रूप में ये कुल मिलाकर 16 वर्ष 10 माह कार्यरत रहे। श्री बाबू के जीवन का अंतिम चुनाव वर्ष 1957 में संपन्न हुआ। इस चुनाव में भी उनके कुशल नेतृत्व में कांग्रेस को विजय मिली। इस बार बिहार विधानसभा के नेतृत्व के लिए कांग्रेस दल में संघर्ष हुआ और मतपत्रों की गिनती दिल्ली में हुई। श्री बाबू विजयी हुए और पुनः मुख्यमंत्री बने थे। श्री बाबू के मन में बिहार के विकास की जो योजना थी, उनके अनुसार उन्होंने बिहार में जापानी खेती का प्रचलन बढ़ाया और हरित क्रांति लाने के लिए कृषकों को काफी उत्साहित किया। श्रीबाबू के कार्यकाल में बिहार में जहां जमींदारी प्रथा समाप्त हुई, वहीं उनके कार्यकाल में बिहार में एशिया का सबसे बड़ा इंजीनइरिंग उद्योग, हैवी इंजीनीयरिंग कॉरपोरेशन, भारत का सबसे बड़ा बोकारो इस्पात प्लांट, देश का पहला खाद कारखाना सिंदरी में, बरौनी रिफाइनरी, बरौनी थर्मल पॉवर प्लांट, पतरातू थर्मल पॉवर प्लांट, मैथन हाइडेल पावर स्टेशन एवं कई अन्य नदी घाटी परियोजनाएं स्थापित किया गया। वह एक नेता थे जिनकी दृष्टि कृषि और उद्योग दोनों के संदर्भ में बिहार को पूरी तरह से विकसित राज्य के रूप में देखना था। वास्तव में, बिहार देश के पहले पांच साल की योजना में उनके तहत अच्छा प्रदर्शन करने वाला शीर्ष राज्य बन गया। उनके कार्यकाल में ही प्रखंडों का गठन हुआ और सभी प्रखंडों में कृषि उत्पाद के सामानों की प्रदर्शनी लगती थी और उन्नत प्रभेद के अन्न, फल-फूल,गन्ना एवं सब्जी उत्पादक कृषकों को उपहार प्रदान किया जाता था। इस आयोजनों में क्षेत्र के बुद्धिजीवियों को आमंत्रित किया जाता था। वैज्ञानिक ढंग से खेती करने के लिए प्रशिक्षित कृषि वैज्ञानिकों का दल सक्रिय ढंग से काम करता था। उन्होंने सबौर में कृषि कॉलेज, रांची में कृषि एवं पशुपालन महाविद्यालय, मुज्जफरपुर ढोली में कृषि महाविद्यालय, पूसा में ईख अनुसंधान संस्थान तथा दक्षिण बिहार और उत्तर बिहार को जोड़ने के लिए हाथीदह में गंगा नदी में पुल एवं बरौनी और डालमिया उद्योग समूह की स्थापना जैसे बुनियादी काम श्री बाबू के शासनकाल में ही हुए थे। श्री बाबू की सरकार ने बिहार के आर्थिक विकास और औद्योगिक क्रांति लाने में सक्रिय भूमिका निभाई। बरौनी तेल शोधक कारखाना, रांची में हिंदुस्तान लिमिटेड का कार्यालय दिल्ली से स्थानांतरित कर लाया गया तथा बोकारो में बड़ा लौह कारखाना बनकर तैयार हो गया था। बिहार में 29 चीनी मिलें बनाई गई जोकि बिहार देश का दूसरा चीनी उत्पादक प्रदेश था। उनके शासन काल में शिक्षा सामुदायिक विकास, कृषि, पशुपालन सहयोग संस्थाएं, उद्योग, तकनीकी शिक्षा, सिंचाई, बिजली, परिवहन स्थानीय स्वशासन, कारा, भूमि सुधार, स्वास्थ्य, जलापूर्ति तथा परिवहन और संचार के क्षेत्र में भी काफी काम हुए और उनके शासनकाल में चहुमुखी प्रगति हुई। बिहार के शोक के रूप में जानी जा रही कोसी नदी की बाढ़ से बचाव के लिए जनसहयोग या श्रमदान से 152 मील लंबा बांध करीब-करीब बनाये गये थे। श्री बाबू ने सामाजिक विषमता दूर करने का जोरदार प्रयास किया। 27 सितंबर 1953 को अपने नेतृत्व में बैधनाथ मंदिर देवघर का मुख्य प्रवेश द्वार से 800 अनुसूचित जाति व कमजोर वर्गों के साथ प्रवेश किया। और ये सभी लोगों ने शिव की पूजा की। यह अनुसूचित जाति व कमजोर वर्गों के मन की मजबूती के लिए श्री बाबू के द्वारा उठाए गए क्रांतिकारी कदम थे।

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श्रीकृष्ण सिंह का सांस्कृतिक एवं सामाजिक विकास में योगदान

श्रीकृष्ण सिंह ने राज्य के सांस्कृतिक और सामाजिक विकास में एक बड़ा योगदान दिया। उन्होंने बिहार के छात्रों के लिए कलकत्ता में राजेंद्र छात्र निवास, पटना में अनुग्रह नारायण सिन्हा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल स्टडीज, बिहार संगीत नृत्य नाट्य परिषद, पटना में संस्कृत कॉलेज, पटना में रविंद्र भवन, राजगीर वेणुवन विहार में भगवान बुद्ध की प्रतिमा इत्यादि जैसे अनेक निर्माण करवाए थे।
नव बिहार के निर्माता के रूप में बिहार केसरी डा. श्रीकृष्ण सिंह का उदात्त व्यक्तिगत, उनकी अप्रतिम कर्मठता एवं उनका अनुकरणीय त्याग़ बलिदान हमारे लिए एक अमूल्य धारोहर के समान है जो हमे सदा-सर्वदा राष्ट्रप्रेम एवं जन-सेवा के लिए अनुप्रेरित करता रहेगा। आज का विकासोन्मुख बिहार श्रीकृष्ण सिंह जैसे महान शिल्पी की ही देन है, जिन्होंने अपने कर्मठ एवं कुशल कार्यों द्वारा राज्य की बहुमुखी विकास योजनाओं की आधारशिला रखी थी। बिहार भारत का पहला राज्य था, जहाँ सबसे पहले उनके नेतृत्व में ज़मींदारी प्रथा का उन्मूलन उनके शासनकाल में हुआ था। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद तथा अनुग्रह नारायण सिन्हा के साथ वे भी आधुनिक बिहार के निर्माता के रूप में जाने जाते हैं।

जनजन के नेता बिहार केशरी डॉ. श्री कृष्ण सिंह का स्वर्गारोहण

बिहार निर्माता एवं बिहार के प्रथम लोकप्रिय मुख्यमंत्री डॉ. श्री कृष्ण सिंह मानवीय मूल्यों एवं भारतीय दर्शन के प्रेरक तत्वों को अपने व्यक्तित्व में समाहित कर उत्तम कोटि का प्रशासन तथा बिना भेद-भाव, द्वेष एवं वैर के सर्वजनवरेण्य नेतृत्व प्रदान करने के लिए हमेशा जाने जायेंगे। राजनीति को कभी भी उन्होंने सत्ता-सुख का उपकरण नहीं माना वरन् मानव सेवा का एक सशक्त माध्यम एवं सुनहले अवसर के रूप में लिया। सामाजिक समरसता एवं सद्भावना का वातावरण बनाना उनकी प्राथमिकताओं में था। वे मात्र शुभेच्छुओं और समर्थको के प्रति ही नहीं बल्कि अपने प्रबल प्रतिद्वंदियों के प्रति भी अतिशय स्नेहिल और उदार थे।
डॉ. श्री कृष्ण सिंह संघर्षशील, जुझारू और दूरदर्शी कांग्रेसी राजनेता थे। वह सामाजिक न्याय व साम्प्रदायिक सद्भाव के प्रणेता थे। उन्होंने समाज के सभी वर्गों के सन्तुलित विकास पर ध्यान देते हुए बिहार और देश को बहुत कुछ दिया। श्रीबाबू अब हमारे बीच नही हैं, किन्तु उनकी विचारधाराएं एवं उनके उत्कृष्ट आर्दश सदैव बिहारियों का मार्ग दर्शन करते रहेंगे। बिहार के नव निर्माण के लिए वे हृदय में सदा पूजनीय रहेंगे तथा बिहार सदैव उनका ऋणी रहेगा। श्रीकृष्ण सिंह का निधन 74 वर्ष की आयु में 31 जनवरी 1961 को हुआ था। श्रीबाबू 2 जनवरी, 1946 से अपनी मृत्यु तक बिहार के मुख्यमंत्री रहे। डॉ. श्री कृष्ण सिंह मे श्रेष्ठ मानवोचित गुण भरे थे। वे सतत सारस्वत साधक के अलावा स्वच्छ राजनीतिज्ञ, अनासक्त कर्मयोगी, सर्वगुण-सम्पन्न त्यागी तथा मानवता के महान हितैषी थे। हम सब उनके पदचिह्नों पर चल पाये तो मानव कल्याण का राज्य मार्ग निश्चित रूप से प्रशस्त होगा और यही इस उदारचेता एवं प्रज्ञा पुरूष के प्रति हमारी सच्ची श्रद्धाजंलि होगी।

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