Category: जन्मोत्सव

  • त्याग के प्रतिमूर्ति रायबहादुर बाबू ऐदल सिंह की 103 वीं पूण्यतिथि पर विशेष

    राकेश बिहारी शर्मा – बिहारशरीफ के ऐतिहासिक किले के भग्नावशेष के मध्य में स्थित, प्राचीन उदन्तपुरी विश्वविद्यालय की स्मृति से जुड़ा बिहारशरीफ का नालन्दा कॉलेज, जिसकी गणना कभी राज्य के गिने-चुने श्रेष्ठ कॉलेजों में होती थी, राय बहादुर बाबु ऐदल सिंह की अमर धरोहर के रूप में आज भी खड़ा है। यद्यपि राज्य में उच्च शिक्षा की बिगड़ती हुई हालत और जनजीवन में गिरावट आने के साथ इस कॉलेज ने भी अपनी पूर्व प्रतिष्ठा खोयी है, यह आज भी क्षमतावान है और यह उस महापुरुष का पुण्य ही है, जिसने इसे पूरी तरह विनष्ट होने से बचा रखा है।

    वर्तमान नालन्दा जिला तथा प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय की बीच के कड़ी का नाम है नालंदा कॉलेज बिहारशरीफ इस कॉलेज की स्थापना 1920 ईस्वी में कर्मयोगी रायबहादुर बाबु ऐदल सिंह के सौजन्य से किया गया जो बिहार का सातवां कालेज था। जिसका संबद्धन तत्कालीन पटना विश्वविद्यालय से मिला था। नालन्दा कालेज बिहारशरीफ के संस्थापक व दानदाता अधिष्ठाता कर्मयोगी रायबहादुर बाबू ऐदल सिंह का जन्म 13 फरवरी 1836 ईस्वी में रामी विगहा (अस्थावां) गांव में हुआ था। उनका निधन 83 वर्ष के उम्र में 14 अगस्त 1919 को हुआ था।

    राय बहादुर बाबु ऐदल सिंह के पिता का नाम यदु नारायण सिंह था। वे एक अत्यन्त ही उद्यमी एवं कर्मठ व्यक्ति थे। यदु नारायण सिंह ने राय बहादुर बाबु ऐदल सिंह की पहली शादी यमहरा में कराई थी। पहली शादी से उन्हें एक पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई। जिनका नाम एकादश रूद्र प्रसाद नारायण सिंह रखा गया था। शादी के बाद उन्हें एक पुत्र पैदा हुआ, ये खुद और पत्नी सहित पुत्र की मृत्यु हो गई। तब राय बहादुर बाबु ऐदल सिंह ने दूसरी शादी खुटहा (बढिया- पटना जिला) में किया। दूसरी पत्नी से कुमार कृष्ण बल्लभ नारायण सिंह उर्फ़ बौआजी का जन्म हुआ। जिसने उनके सुयश को बढ़ाया और एक आदर्शनिष्ठ व्यवसायी के रूप में पर्याप्त ख्याति अर्जित की। वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की बिहार राज्य के शाखा के प्रधान रहे हैं। राजनीति में रहते हुए भी उन्होंने कभी राजनीति को व्यवसाय नहीं बनाया और न ही अपने धन और शक्ति का उपयोग अनुचित लाभ कमाने के लिये किया।

    बौआजी का दो पुत्र एक गोगा सिंह और दूसरा अशोक सिंह हुए। गोगा सिंह का एक पुत्र रौशन सिंह हुआ। और बुआजी के दुसरे पुत्र अशोक सिंह से भी एक पुत्र सोनु सिंह हुआ जिनका शादी उद्योगपति सम्प्रदा बाबु की पोती से हुआ।
    बाबु ऐदल सिंह को अपने पूर्वजों से विरासत में एक छोटी सी जमींदारी मिली थी, जिसकी आय मात्र 250 रूपये वार्षिक थी। उन्होंने अपनी लगन-मेंहनत और उद्यम के बल पर अल्पकाल में ही उसे लगभग-75000/- (पचहत्तर हजार रूपये) की वार्षिक आय वाली जमींदारी में बदल डाला तथा इसके साथ बहुत अधिक भू-सम्पत्ति भी अर्जित की, जिसका वर्तमान मूल्य कई करोड़ रुपये होंगे। वे एक लाइसेंस शुदा महाजन भी थे और उनका लेन-देन का बहुत बड़ा कारोबार था। उनकी उपलब्धियों और उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा को देखते हुए ब्रिटिश सरकार ने उन्हें ‘राय बहादुर’ की उपाधि देकर सम्मानित भी किया था।

    यह तस्वीर कुछ लोगों के मन में उनकी एक ऐसी छवि उत्पन्न कर सकती है, जो एक धनी सामन्त और सूदखोर महाजन की होती है। पर यह पूरी तरह एक भ्रान्त समझदारी होगी। राय बहादुर ऐदल सिंह की भौतिक उपलब्धियाँ इस दृष्टि से महत्त्वपूर्ण नहीं थीं कि वे कुछ दिनों में ही एक अत्यन्त धनी व्यक्ति बन गये। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि केवल अपने पुरुषार्थ के बल पर उन्होंने यह अर्थोपार्जन किया तथा जीवन में जिन सिद्धान्तों को उन्होंने ग्रहण किया उनका अन्त तक दृढ़ता से पालन किया। उन्हें एक कंजूस व्यक्ति कहा जाता था, क्योंकि वे स्वयं अत्यन्त सादगी से रहते थे। विशाल सम्पत्ति अर्जित करने के बावजूद उन्होंने अपने खान-पान की आदतें नहीं बदलीं थीं।

    यह कहा जाता है कि उनकी रसोई में साग और आलू का भुर्ता अनिवार्य रूप से बनता था तथा उनके लिये अलग से विशेष भोजन की कोई व्यवस्था नहीं रहती थी। वे अपने निकट सम्बन्धियों और सम्पर्क के लोगों को हमेशा फजूल खर्ची से बचने की सलाह देते थे। वे स्वयं आडम्बर और तड़क-भड़क से कितनी दूर रहने की चेष्टा करते थे, इसका अनुमान उनके जीवन की एक घटना से लगाया जा सकता है। उन्हें जब ‘राय बाहादुर’ की उपाधि से सम्मानित करने का निर्णय सरकार ने लिया, तो उच्चाधिकारियों ने इसकी सूचना दी और उनसे यह कहा कि यह समारोह उनके घर पर ही होगा।

    उस महापुरुष ने विनम्रता पूर्वक यह अनुरोध किया कि अच्छा हो, यदि इसका आयोजन स्थानीय डाकबंगले में ही किया जाय, क्योंकि उनका घर उन अधिकारियों के स्वागत के उपयुक्त नहीं है। यह वास्तव में उस महापुरुष की विनम्रता और वैराग्यपूर्ण उदासीनता ही थी, जिसके कारण उन्होंने इस मौके का उपयोग अपनी शान-शौकत दिखाने के लिए नहीं करना चाहा। ‘सादा जीवन और उच्च विचार’ का ढिंढोरा उन्होंने नहीं पीटा। पर अपने कार्यों से इसे प्रमाणित कर दिया कि उनका जीवन इस आदर्श का मूर्तिमान रूप था। उन्हें स्कूल या कॉलेज में कोई औपचारिक शिक्षा प्राप्त नहीं हुई थी, पर उन्हें उर्दू और फारसी का अच्छा ज्ञान था। वे सही अर्थों में एक शिक्षित, उदार एवं परोपकारी व्यक्ति थे। उनके जीवन में कुछ अत्यन्त दुःखद घटनायें हुईं।

    राय बहादुर ऐदल सिंह के महान् व्यक्तित्व एवं दुर्लभ गुणों का ठोस एवं व्यक्त रूप ‘नालन्दा कॉलेज’ है। राय बहादुर ने इस कॉलेज की स्थापना का निर्णय उस समय लिया, जब वे जीवन के सर्वाधिक कष्टदायक क्षणों से गुजर रहे थे। उनका उत्तराधिकारी विलुप्त हो चुका था।

    उनकी वृद्धावस्था की संतान ‘श्री कृष्ण बल्लभ नारायण सिंह’ की उम्र मात्र 2 वर्ष की थी और राय बहादुर स्वंय जीवन की उस बेला में पहुँच चुके थे जब किसी भी समय उनका जीवन-द्वीप बुझ सकता था। परन्तु उस दृढ निश्चयी पुरुष पर इन झंझावातों का कोई असर नहीं पड़ा। बिहार उस समय शैक्षिक संक्रमण काल से गुजर रहा था। उन्होंने लम्बे समय से संजोई अपनी ‘विद्यादान’ की आकांक्षा को मूर्त रूप देने का निश्चय किया। सन् 1919 में उन्होंने एक वसीयत की, जिसमें इस पूरे क्षेत्र और निकटवर्ती स्थानों में किसी कॉलेज के न रहने पर चिन्ता प्रकट करते हुए उन्होंने बिहारशरीफ में एक कॉलेज की स्थापना का निर्णय लिया।

    इसके लिये उन्होंने 12000/- (बारह हजार) रु. मूल्य की शुद्ध वार्षिक आय की जमींदारी कॉलेज को दान-स्वरूप दी, जिसका तत्कालीन मूल्य लगभग 2 लाख रु.था। साथ ही उन्होंने 30,000 रु. नगद दिये। इसकी व्सवस्था के लिये उन्होंने जिस ट्रस्ट का निर्माण किया, उसके सदस्य समाज के विभिन्न वर्गों के सम्मानित प्रतिनिधि थे। सदस्यों में जिनकी संख्या 8 थी, राय बहादुर ऐदल सिंह के अतिरिक्त केवल एक व्यक्ति उनकी जाति के थे। शेष छ: सदस्य पदेन एवं अन्य जातियों के थे। यह उल्लेखनीय है कि इन में से कोई भी व्यक्ति उनका निकट सम्बन्धी नहीं था। उन्होंने ट्रस्ट के सदस्यों को इसका पूर्ण अधिकार दिया कि वे अपने विवेक के अनुसार इस धन राशि एवं सम्पति का उपयोग शिक्षा के उत्थान के लिए करें। यह तथ्य भी उस महापुरुष की त्यागपूर्ण दानशीलता का अनुपम उदाहरण है।

    उन्होंने इस कॉलेज का नामकरण अपने, या अपने किसी पूर्वज या जाति या वंश के नाम पर नहीं किया, बल्कि इसे एक ऐसा नाम दिया, जो इसे भारत के गौरवशाली अतीत के एक अतिविशिष्ट नाम से जोड़ देता है। लोगों का कहना है कि वे कहा करते थे कि इसे कोई ऐसा नाम न दो, जिससे अन्य लोगों को इसे भविष्य में अपनाने में कोई संकोच हो। जैसा उन्होंने अपनी वसीयत में लिखा है, उनके लिए यह अत्यन्त पीड़ा का विषय था कि एक उच्च शिक्षण संस्था के अभाव में क्षेत्र की अनेक प्रतिभाएँ नष्ट हो जाती हैं। उन्हें अपने पैतृक गाँव से असीम प्रेम था।

    अतः उन्होंने यह विशेष प्रावधान किया कि रामी बीघा के सभी छात्र जो इस कॉलेज में पढ़ना चाहेंगे, उनका नामांकन यहाँ सुनिश्चित किया जाएगा और उन्हें निःशुल्क शिक्षा मिलेगी। यह सुविधा उस गाँव के सभी छात्रों को बिना जाति और धर्म का भेद भाव रखे दी गई। पर साथ ही यह शर्त भी रखी गई कि यह सुविधा उन्हीं छात्रों को मिलती रहेगी, जो अपनी पढ़ाई-लिखाई में प्रगति करते हैं और जिनके चरित्र में कोई दोष नहीं है। किसी भी महापुरुष की पहचान उसके महान कृत्यों से नहीं, बल्कि उसके आचरण के साधारण पक्षों से होती है। राय बहादुर के व्यक्तित्व का आकलन केवल दान की उस राशि से नहीं किया जा सकता जो उन्होंनें कॉलेज के निर्माण के लिये दी, यद्यपि उस समय की दृष्टि से यह एक बड़ी राशि थी, अपितु उन छोटी-छोटी बातों से किया जा सकता है, जिसका ध्यान उन्होंने कॉलेज के निर्माण के सन्दर्भ में रखा।

    अपनी वसीयत में उन्होंने इसका भी स्पष्ट उल्लेख कर दिया था कि यदि किसी कारणवश यह कॉलेज नहीं खुल पाया तो ट्रस्टी अपने विवेक के अनुसार इसका उपयोग किसी अन्य शैक्षणिक कार्य के लिये कर सकते हैं। किसी भी स्थिति में दान में दी हुई इस सम्पत्ति में रद्दो बदल का अधिकार उन्हें या उनके किसी उत्तराधिकारी को नहीं होगा। उस महापुरुष की स्मृति, बिहार के वर्तमान बिगड़े हुए माहौल में, हमें उनके जीवन से बहुत कुछ सीखने की प्रेरणा देती है। हम इन विभूतियों के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करते हुए, यह कामना करते हैं कि राज्य में उच्च शिक्षा के वर्तमान शीर्षस्थ व्यक्ति इस उदाहरण से कुछ सीखने की चेष्टा करें।

  • स्व गुरू सहाय लाल जी की 133 वीं जयंती मनाई गई |

    कतरी सराय प्रखंड के बादी गांव में बिहार के महामानव स्व गुरू सहाय लाल जी की 133 वीं जयंती उनके पैतृक गांव बादी में रजनीश कुमार मुन्ना की अध्यक्षता में मनाई गई इस अवसर पर मुख्य अतिथि जिला कांग्रेस कमिटी नालंदा के जिलाध्यक्ष दिलीप कुमार के द्वारा माल्यार्पण एवं उन्हें श्रद्धान्जलि अर्पित किया गया श्रद्धांजलि अर्पित करने के बाद वहां पर उपस्थित गुरु सहाय बाबू के अनुयायियों एवं स्कूली छात्राओं को संबोधित करते हुए जिलाध्यक्ष दिलीप कुमार ने कहा कि गुरु सहाय बाबू हमारे आदर्श हैं वह महान शिक्षाविद भी थे उस समय वे अंग्रेजी सरकार की हुकूमत में राजस्व एवं विकास मंत्री के पद पर रहे लेकिन उसके बाद भी पूरे बिहार में इनके द्वारा कई स्कूलों की स्वीकृति प्रदान करा कर उस समय उनका निर्माण कराया गया

    जिस का जीता जागता उदाहरण हमारे नालंदा में भी देखने को मिल जाएगा जिसमें टेकनारायण उच्च विद्यालय बादी ,मध्य विद्यालय कुर्मीचक ,मध्य विद्यालय समयागढ़, मध्य विद्यालय कुम्हरा, मध्य विद्यालय सरमेरा, मध्य विद्यालय इस्लामपुर, मध्य विद्यालय कुण्डवापर ऐसे कई स्कूल उस समय इनके द्वारा कई जिले में भी बनवाया गया था स्व गुरू सहाय बाबू सन 1937 में मुख्यमंत्री यूनुस जी के मंत्रिमंडल में राजस्व एवं विकास मंत्रालय के पद पर रहे उन्होंने उस समय राजस्व मंत्री रहने के बावजूद भी विहार में किसानों के लिए एवं छात्रों के लिए अपना संपूर्ण जीवन योगदान स्वरुप दिया वह आजीवन छात्रों एवं किसानों के लिए लड़ते रहे आजादी के बाद भी वे श्री बाबू के मंत्रिमंडल काल में किसानों के लिए उनकी आवाज उठाते रहते थे सन 1941 से 48 तक पटना जिला परिषद के चेयरमैन रहे इस दौरान भी उन्होंने स्वास्थ शिक्षा का विस्तार एवं सड़क के निर्माण पर काफ़ी जोर दिए

    उन्होंने गांव गांव में आयुर्वेदिक औषधालय खुलवाया साइंस कॉलेज एवं पटना मेडिकल कॉलेज के साथ-साथ आयुर्वेदिक कॉलेज में भी वे गवर्निंग बॉडी के सदस्य रहे उस समय पटना विश्वविद्यालय के सिनेट मेँ भी अपनी भागीदारी दिए इस दौरान उन्होंने पिछले वर्ग तथा गरीब परिवार के मेघावी छात्रों को प्रोत्साहन राशि के साथ साथ प्रोत्साहित एवं उनकी सहायता भी करते रहे की इनके सहयोग से ही शाहाबाद जिले में त्रिवेणी संघ की स्थापना इसमें यादव कुर्मी एवं कुशवाहा समाज के लोगों की साझेदारी हुई थी इसके तहत उस समय अंग्रेजी हुकुमत में खासकर ग्रामीण इलाको में जमींदार द्वारा जो सामाजिक और आर्थिक शोषण किया जाता था

    इसी के चलते उन्होंने शोषितों का संगठन बनाकर उनके अपने अधिकार के लिए तथा अपनी चेतना जगाने के लिए संघर्ष करना सिखाया था त्रिवेणी संघ पिछड़े समाज का बिहार में पहला संगठन था कि उसी तरह सन 1931 में हरनौत में कुर्मी महासभा का भी आयोजन हुआ था सम्मेलन को सफल बनाने में इन्होंने अपनी अग्रणी भूमिका निभाई थी बिहार में पहली बार देशी सरकार की स्थापना मुख्यमंत्री यूनुस जी के नेतृत्व में बनी इस मंत्री मंडल में स्वर्गीय गुरु सहाय बाबू को राजस्व विकास मंत्री बनाया गया था हालांकि सरकार बहुत कम दिन तक चली लेकिन इस अल्प समय में ही इस मंत्रिमंडल में दफा 112के तहत खेती करने वाले छोटे बड़े किसानों को जमींदार के चंगुल एवं शोषण से राहत दिलवाने का काम किए

    उनमें पप्रमुखतः कुमार खुदवाने का अधिकार दिलवाना खेत पर मेड लगवाने का अधिकार दिलवाना एवं सबसे प्रमुख उस समय किसानों को अपने खेत से मिट्टी काटने का भी अधिकार नहीं था जिसे स्वर्गीय गुरु सहाय बाबू ने उस समय किसानों को यह सबसे बड़ा अधिकार दिलवाए ऐसे कई उदाहरण भरे पड़े हैं जिसे स्वर्गीय गुरु सहाय बाबू ने अमलीजामा पहनाए थे आज नालंदा जिलावासियों को ही नहीं पूरे बिहार राज्य के किसान एवंनौजवान छात्रों को इनको अपना आदर्श मानकर इनकी जयंती एवम उनकी पुण्यतिथि गांव गांव और शहर में मनानी चाहिए इस अवसर पर बादी गांव के ही उनके अनुयायी रहे आनंदी बाबू ने छात्र छात्राओं को उनके जीवनी एवं उनके द्वारा किए गए कार्यों को विस्तार से समझाते हुए कहा की आप सभी बच्चे उनके आदर्श पर चलकर ही अपना भविष्य बना सकते हैं इस अवसर पर डॉ गोपाल शरण सिंह सुरेंद्र प्रसाद सिंह मोहन कुमार जितेंद्र प्रसाद सिंह पिंटू कुमार राजीव रंजन गुड्डू उदय कुमार कुशवाहा महेंद्र प्रसाद रिंकू कुमार रविंदर प्रसाद कतरीसराय के प्रखंड विकास पदाधिकारी अंचल अधिकारी के आलावा ग्रामीण जनता के द्वारा भी माल्यार्पण एवं पुष्प अर्पित किया गया।।

  • जड़ी बूटी दिवस के रूप में मनाया आचार्य बालकृष्ण का जन्म दिवस

    स्थानीय पतंजलि चिकित्सालय में गुरुवार देरशाम को आचार्य श्री बालकृष्ण जी का 50 वाँ जन्मोत्सव जड़ी-बूटी दिवस के रूप में मनाया गया तथा लम्बी आयु के लिए यज्ञ कर आहुति दी गई, एवं निःशुल्क जड़ी-बूटी के पौधे एवं फलदार पेड़ के पौधे का वितरण किया गया। कार्यक्रम की अध्यक्षता पतंजलि योग समिति के राज्य परिषद् सदस्य रामजी प्रसाद यादव ने की, जबकि संचालन योग शिक्षक सत्येन्द्र प्रसाद ने किया। जन्मोत्सव में यज्ञ आहुति देनेवाले योगगुरु रामजी प्रसाद यादव,योग शिक्षक सत्येन्द्र प्रसाद, मीडिया प्रभारी राकेश बिहारी शर्मा, पतंजलि किसान सेवा समिति प्रभारी मूलचंद आर्य, संजय कुमार,डॉ. संगीता कुमारी आर्या, शुशिला कुमारी, राजेश कुमार सहित कई लोग शामिल थे।

    मौके पर अध्यक्षता पतंजलि योग समिति के राज्य परिषद् सदस्य योगगुरु रामजी प्रसाद यादव ने बताया कि परम पूज्य राज ऋषि स्वामी रामदेव महाराज की अगुवाई में पतंजलि योगपीठ का निर्माण हुआ था, उसमें अहम भूमिका निभाने वाले आचार्य बालकृष्ण जी हैं जो 64000 पौधों पर रिसर्च किए हैं। आज पूरे भारत में उनके जन्मदिन पर लाखों जड़ी-बूटी के पौधे एवं फलदार पौधे का निशुल्क वितरण किया जा रहा है। उन्होने कहा कि पिछले वर्षों से कोरोना बीमारी महामारी की तरह फैल रही है, उसे रोकने के लिए गिलोय बहुत कारगर है। इसे लोग हर घर में लगाएं और इसका काढ़ा बनाकर रोज पिएं, जिससे इस बीमारी से बचा जा सकता है। उन्होंने स्वस्थ्य रहने के लिए योग के महत्व के बारे में बताया।

    मौके पर पतंजलि योग समिति के मीडिया प्रभारी राकेश बिहारी शर्मा ने कहा कि पतंजलि को योग और आयुर्वेद की सबसे बड़ी संस्था बनाने में आचार्य बालकृष्ण का अहम योगदान है। उन्होंने कहा कि आधुनिक धन्वंतरि आचार्य बालकृष्ण ने आयुर्वेद की पुस्तकों के लेखन, प्रकाशन, पांडुलिपियों के संरक्षण, आयुर्वेदिक औषधियों की खोज, अनुसंधान, आयुर्वेद के प्रचार-प्रसार व आयुर्वेद को वैश्विक स्तर पर स्वीकृति दिलाने में अहम भूमिका निभाई है। उन्होंने कहा कि पतंजलि ने योग और आयुर्वेद को देश में ही नहीं विदेश तक पहुंचाया है। कलियुग के धन्वंतरी के रुप में प्रतिष्ठित हैं आचार्य बालकृष्ण जी।

    पौधा वितरण के समय पतंजलि के वैद्य मनोज कुमार झा ने गिलोय, एलोवीरा, पत्थरचटा, अश्वगंधा, नीम, बेल समेत अन्य पौधों के औषधीय गुणों को विस्तार से बताया। साथ ही साथ औषधीय पौधों का लाभ और प्रयोग करने के संबंध में जानकारी दी। उन्होंने कहा कि हमारे जीवन में पौधों के जड़ी-बूटियों का महत्व उतना ही है जितना हमारे शरीर को भोजन की आवश्यकता होती है। भारतीय चिकित्सा पद्धति पूर्ण रूप से प्राकृतिक एवं साइड इफेक्ट रहित है।

    कार्यक्रम में संचालन करते हुए योग शिक्षक सत्येन्द्र प्रसाद ने कहा कि अगर आप रोगों से बचना चाहते हैं तो योग के साथ-साथ बड़ी संख्या में जड़ी बूटियों को लगाना है। चाहे तो घर में आप तुलसी, गिलोय, एलोवीरा, पत्थरचटा, अश्वगंधा और इसके साथ ही विभिन्न प्रकार की जड़ी बूटियां लगा सकते हैं। जितनी आपके घर में जगह हो आप सभी संकल्प लेकर इस कार्य को आगे बढ़ाएं। क्योंकि जब हम जड़ी बूटी की रक्षा करेंगे तभी जडी-बूटी भी हमारी रक्षा करेंगे।

    मौके पर पतंजलि के कर्मयोगी सदस्य सरदार वीर सिंह ने कहा कि आचार्य बालकृष्ण ने आयुर्वेद के माध्यम से किसानों को समृद्धि और जनता को लाभ मिले और यही आचार्य बालकृष्ण जी का प्रयास है। भारत की प्राचीन कृषि और ऋषि परंपरा व योग आयुर्वेद को पतंजलि योगपीठ ने पूरे विश्व में फैलाया और वैज्ञानिक स्तर पर सम्मान दिलाया। बालकृष्ण जी ने आयुर्वेद को वैश्विक पहचान दिलाई है।

    इस अवसर पर योग शिक्षका संगीता कुमारीआर्या, सुशीला कुमारी, रविकांत कुमार, रामप्रवेश कुमार, सूरज कुमार, स्वेता कुमारी, इंद्रदेव पंडित सहित पतंजलि के कई लोग उपस्थित थे।

  • राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की 136 वीं जयंती पर विशेष

    राकेश बिहारी शर्मा – हिन्दी साहित्य में गद्य को चरम तक पहुचाने में जहां प्रेमचंद्र का विशेष योगदान माना जाता है वहीं पद्य और कविता में राष्ट्र कवि मैथिलीशरण गुप्त को सबसे आगे माना जाता है। अपनी कविताओं से मैथिलीशरण गुप्त ने कविता के क्षेत्र में अतुल्य सहयोग दिया है। हिन्दी साहित्य के इतिहास में मैथिलीशरण गुप्त खड़ी बोली के प्रथम महत्त्वपूर्ण कवि हैं। राष्ट्र कवि मैथिलीशरण गुप्त की 3 अगस्त को जयंती है। उनकी कृति भारत-भारती भारत के स्वतंत्रता संग्राम के समय में काफी प्रभावशाली सिद्ध हुई थी और और इसी कारण महात्मा गांधी ने उन्हें ‘राष्ट्रकवि’ की पदवी भी दी थी। उनकी जयंती 3 अगस्त को हर वर्ष ‘कवि दिवस’ के रूप में मनाया जाता है।

    मैथिलीशरण गुप्त का जीवन परिचय और शिक्षा

    हिन्दी साहित्याकाश के दैदीप्यमान नक्षत्रों में से एक राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त का जन्म झांसी के एक भारतीय संस्कारों से परिपूर्ण काव्यानुरागी एवं एक प्रतिष्ठित वैश्य परिवार में 3 अगस्त 1886 को पिता सेठ रामचरण गुप्त और माता काशी बाई की तीसरी संतान के रूप में उत्तर प्रदेश में झांसी के पास चिरगांव में हुआ था। माता और पिता दोनों ही वैष्णव थे। इनके पिता हिन्दी के अच्छे कवि थे। पिता से ही इनको कविता लिखने की प्रेरणा मिली।
    इन्हें काव्य रचना का संस्कार विरासत में मिला। इनके पिता सेठ रामचरण गुप्त जी कनकलता, स्वर्णलता और हेमलता आदि उपनामों से कविता लिखते थे। ‘रहस्य रामायण’ और ‘सीताराम दम्पत्ति’ इनकी प्रमुख रचनाएं हैं। मैथिलीशरण गुप्त को पिता से ‘रामभक्ति’ और अंग्रेजों के प्रति नफरत का संस्कार मिला। विद्यालय में खेलकूद में अधिक ध्यान देने के कारण पढ़ाई अधूरी ही रह गई। घर में ही हिन्दी, बंगला, संस्कृत साहित्य का अध्ययन किया। 12 वर्ष की अवस्था में ब्रजभाषा में कनकलता नाम से कविता रचना आरंभ किया।
    हिंदी साहित्य के प्रखर नक्षत्र, माँ भारती के वरद पुत्र मैथिलीशरण गुप्त की प्रारम्भिक शिक्षा चिरगांव, झांसी के राजकीय विद्यालय में हुई। प्रारंभिक शिक्षा समाप्त करने के उपरान्त गुप्त जी झांसी के मेकडॉनल हाईस्कूल में अंग्रेज़ी पढ़ने के लिए भेजे गए, पर वहां इनका मन न लगा और दो वर्ष बाद ही घर पर इनकी शिक्षा का प्रबंध किया, लेकिन पढ़ने की अपेक्षा इन्हें चकई फिराना और पतंग उड़ाना अधिक पसंद था। फिर भी इन्होंने घर पर ही संस्कृत, हिन्दी तथा बांग्ला साहित्य का व्यापक अध्ययन किया। इन्हें ‘आल्हा’ पढ़ने में भी बहुत आनंद आता था।

    मैथिलीशरण गुप्त का राजनैतिक सफर

    वह ऐसे कवि थे, जिनकी कविताओं से हर निराश मन को प्ररेणा मिल जाती थी. कविता की दुनिया के सरताज मैथलीशरण गुप्त को राष्ट्रकवि के नाम से भी जाना जाता है। 16 अप्रैल 1941 को वे व्यक्तिगत सत्याग्रह में भाग लेने के कारण गिरफ्तार कर लिए गए। पहले उन्हें झांसी और फिर आगरा जेल ले जाया गया। आरोप सिद्ध न होने के कारण उन्हें सात महीने बाद छोड़ दिया गया। सन 1948 में आगरा विश्वविद्यालय से उन्हें डी.लिट. की उपाधि से सम्मानित किया गया। 1952-1964 तक राज्यसभा के सदस्य मनोनीत हुए। सन 1953 ई. में भारत सरकार ने उन्हें पद्म विभूषण से सम्मानित किया। तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ॰ राजेन्द्र प्रसाद ने सन 1962 ई. में अभिनंदन ग्रंथ भेंट किया और हिंदू विश्वविद्यालय के द्वारा डी.लिट. से सम्मानित किया गया। वह वहां मानद प्रोफेसर के रूप में नियुक्त भी हुए थे। 1954 में साहित्य एवं शिक्षा क्षेत्र में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया। चिरगांव में उन्होंने 1911 में साहित्य सदन नाम से स्वयं की प्रेस शुरू की और झांसी में 1954-55 में मानस-मुद्रण की स्थापना की।

    मैथिलीशरण गुप्त की रचनाएँ

    मैथिलीशरण गुप्त जी के काव्य में राष्ट्रीयता और गांधीवाद की प्रधानता है। इसमें भारत के गौरवमय अतीत के इतिहास और भारतीय संस्कृति की महत्ता का ओजपूर्ण प्रतिपादन है। आपने अपने काव्य में पारिवारिक जीवन को भी यथोचित महत्ता प्रदान की है और नारी मात्र को विशेष महत्व प्रदान किया है। मैथिलीशरण स्वभाव से ही लोकसंग्रही कवि थे और अपने युग की समस्याओं के प्रति विशेष रूप से संवेदनशील रहे। उनका काव्य एक ओर वैष्णव भावना से परिपूर्ण था, तो साथ ही जागरण व सुधार युग की राष्ट्रीय नैतिक चेतना से अनुप्राणित भी था। लाला लाजपतराय, बाल गंगाधर तिलक, विपिनचंद्र पाल, गणेश शंकर विद्यार्थी और मदनमोहन मालवीय उनके आदर्श रहे। अपने कवि जीवन में गुप्त ने कई विशिष्ट काव्य रचनाएं की. “साकेत” आधुनिक युग का एक अति प्रसिद्ध महाकाव्य है।
    गुप्त जी कबीर दास के भक्त थे। पं महावीर प्रसाद दद्विवेदी जी की प्रेरणा से आपने खड़ी बोली को अपनी रचनाओं का माध्यम बनाया। मैथिलीशरण गुप्त की कविताओं से हर निराश मन को एक प्रेरणा मिल जाती थी. हिन्दी साहित्य के इतिहास में वे खड़ी बोली के प्रथम महत्त्वपूर्ण कवि हैं। उन्हें साहित्य जगत में ‘दद्दा’ नाम से सम्बोधित किया जाता था। उन्होंने लगभग 40 ग्रंथ रचे तथा खड़ी बोली को सरल प्रवाहमय और सशक्त बनाया। इनकी मुख्य काव्य-कृतियां हैं-
    महाकाव्य :- साकेत, यशोधरा। खण्डकाव्य :- जयद्रथ वध, भारत-भारती, पंचवटी, द्वापर, सिद्धराज, नहुष, अंजलि और अर्घ्य, अजित, अर्जन और विसर्जन, काबा और कर्बला, किसान, कुणाल गीत, गुरु तेग बहादुर, गुरुकुल, जय भारत, युद्ध, झंकार, पृथ्वीपुत्र, वक संहार, शकुंतला, विश्व वेदना, राजा प्रजा, विष्णुप्रिया, उर्मिला, लीला, प्रदक्षिणा, दिवोदास, भूमि-भाग।
    नाटक :- रंग में भंग, राजा-प्रजा, वन वैभव, विकट भट, विरहिणी, वैतालिक, शक्ति, सैरन्ध्री, स्वदेश संगीत, हिड़िम्बा, हिन्दू, चंद्रहास लिखे ।

    मैथिलीशरण गुप्त की भक्ति भावना

    गुप्त जी परम वैष्णव थे। राम के अनन्य होते हुए भी वे सब धर्मों तथा सम्प्रदायों के प्रति आदर भाव रखते है। तुलसी के बाद रामभकत कवियों में इन्हीं का स्थान है। सभी अवतारों में विश्वास तथा श्रद्धा रखते हुए भी भगवान्‌ का रामरूप ही उन्हें अधिक प्रिय रहा है। भक्ति के साथ दैन्य-भाव भी इनके काव्य में पाया जाता है। तुलसी जैसी रामभक्ति की अनन्यता गुप्त जी के काव्य में देखी जा सकती है।

    मैथिलीशरण गुप्त की भारतीय सभ्यता,संस्कृति व नारी सम्मान

    मैथिलीशरण गुप्त जी भारतीय सभ्यता व संस्कृति के परमभक्त थे, लेकिन वे अन्धभक्त नहीं थे और साथ ही अन्य धर्मों के प्रति वे न केवल सहिष्णु और उदार थे, बल्कि उनके गुण ग्रहण करने में भी वे संकोच नहीं करते थे। भारतीय संस्कृति में नारी का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण तथा सम्मानप्रदक स्थान रहा है और गुप्तजी ने नारी के अनेक व विविध प्रकार के चरित्र अपने काव्यों में उपस्थित किए हैं। हम कह सकते हैं कि नारी के इतने अधिक तथा विभिन्नतापूर्ण चरित्र किसी अन्य हिन्दी कवि ने प्रस्तुत नहीं किये। सीता, उर्मिला, यशोधरा, विष्णुप्रिया आदि उनके नारी पात्र इतने महान हैं कि उनकी तुलना में किसी भी अन्य कवि के पात्रों को नहीं रखा जा सकता। अबला जीवन से गुप्तजी को गहरी सहानुभूति है। उसे उन्होंने ने इस प्रकार व्यक्त किया है-

    अबला जीवन हाय, तुम्हारी यही कहानी।
    आंचल में है दूध और आंखों में पानी ।।

    अंतिम दिनों में मैथिलीशरण गुप्त जी कुछ अस्वस्थ भी रहने लगे थे, लेकिन वे अपने साहित्य-कर्म से कभी विमुख न हुए। इस प्रकार कर्ममय जीवन व्यतीत करते हुए 12 दिसंबर, 1964 को चिरगांव में ही राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त का देहावसान हो गया। हिंदी साहित्य ने अपने एक महान साहित्यकार को खो दिया। परन्तु गुप्त जी अपनी बेमिसाल रचनाओं के माध्यम से आज भी हम साहित्य-प्रेमियों के दिलों में अमरत्व को प्राप्त किये हुए हैं।
    आज जब हम भारत को पुनः ‘विश्वगुरु’ तथा ‘सोने की चिड़िया’ के रूप में देखने के लिये प्रयत्नशील है, तब गुप्तजी के अवदान हमारी शक्ति बन रहे हैं। यही कारण है कि अनेक संकटों एवं हमलों के बावजूद हम आगे बढ़ रहे हैं। ‘कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी’-आज भारत की ज्ञान-संपदा नई तकनीक के क्षेत्र में वैश्विक-स्पर्धा का विषय है। लड़खड़ाते वैश्विक आर्थिक संकट में भारत की स्थिति बेहतर है। नयी सदी के इस परिदृश्य में, नयी पीढ़ी को देश के नवनिर्माण के सापेक्ष अपनी भूमिका सुनिश्चित करनी है। जब तक नैराश्य से निकलकर आशा और उल्लास की किरण देखने का मन है, आतंकवाद के मुकाबले के लिए निर्भय होकर अडिग मार्ग चुनना है, कृषकों-श्रमिकों सहित सर्वसमाज के समन्वय से देश को वैभव के शिखर पर प्रतिष्ठित करने का स्वप्न है, तब तक गुप्तजी का साहित्य प्रासंगिक है और रहेगा।

  • मुंशी प्रेमचंद की 142 वीं जयंती पर विशेष :

    राकेश बिहारी शर्मा – हिन्दी कथा साहित्य में प्रेमचंद जी का नाम सर्वश्रेष्ठ उपन्यासकार एवं कहानीकार के रूप में अग्रगण्य है। युग प्रवर्तक प्रेमचंद ने अपनी रचनाधर्मिता के माध्यम से भारतीय समाज की समस्त स्थितियों का अत्यन्त मनोवैज्ञानिक, यथार्थ चित्रण किया है। उनका सम्पूर्ण साहित्य तत्कालीन भारतीय जनजीवन का महाकाव्य कहा जा सकता है। उनकी रचनाओं में भारतीय किसान की ऋणग्रस्त स्थिति, भारतीय नारियों की जीवन व नियति की ऐसी कथा समाहित है, जो उसकी कारुणिक त्रासदीपूर्ण स्थितियों को अत्यन्त मर्मस्पर्शी एवं संवेदनात्मक स्तर पर चित्रित करती है। पूंजीपतियों और जमींदारों का अमानवीयतापूर्ण क्रूर शोषण व आतंक उनके कथा साहित्य में उनकी भाषा के साथ जीवन्त हो उठता है। तत्कालीन समाज की कुप्रथाओं, कुरीतियों का जो बेबाक एवं सत्यता भरा चित्रण प्रेमचंद की रचनाओं में मिलता है, वह बड़ा मर्मस्पर्शी है। अपनी आदर्शवादी और यथार्थवादी रचनाओं में पराधीनता से मुक्ति का संकल्प भी राष्ट्रीय भावना के साथ व्यक्त होता है।

    प्रेमचंद का जन्म और परिवार

    प्रेमचंद का जन्म 31 जुलाई सन् 1880 को बनारस शहर से चार किलोमीटर दूर लमही गाँव में हुआ था। इनके पिता का नाम अजायब राय और माता आनंदी देवी था। पिताजी डाकखाने में मामूली नौकर के तौर पर 7 रूपये मासिक पाते थे। प्रेमचंद का असली नाम धनपतराय था। जब ये केवल आठ साल के थे तो इनकी माता का स्वर्गवास हो गया तो पिताजी ने दूसरी शादी कर ली जिसके कारण बालक धनपतराय प्रेम व स्नेह को चाहते हुए भी ना पा सका। आपका जीवन गरीबी में ही पला। कहा जाता है कि धनपतराय के घर में भयंकर गरीबी थी। पहनने के लिए कपड़े न होते थे और न ही खाने के लिए पर्याप्त भोजन मिलता था। इन सबके अलावा घर में सौतेली माँ का व्यवहार भी हालत को खस्ता करने वाला था।

    अल्पायु में प्रेमचंद की शादी और पारिवारिक परेशानियाँ

    प्रेमचंद के पिता ने केवल 15 साल की आयू में प्रेमचंद का विवाह करा दिया। पत्नी उम्र में प्रेमचंद से बड़ी और बदसूरत थी। पत्नी की सूरत और उसके जबान ने प्रेमचंद के जले पर नमक का काम किया। प्रेमचंद ने स्वयं लिखा है, “उम्र में वह मुझसे ज्यादा थी। जब मैंने उसकी सूरत देखी तो मेरा खून सूख गया।…….” उसके साथ-साथ जबान की भी मीठी न थी। प्रेमचंद ने अपनी शादी के फैसले पर पिता के बारे में लिखा है “पिताजी ने जीवन के अंतिम सालों में एक ठोकर खाई और स्वयं तो गिरे ही, साथ में मुझे भी डुबो दिया: मेरी शादी बिना सोंचे समझे कर डाली।” हालांकि प्रेमचंद के पिताजी को भी बाद में इसका एहसास हुआ और काफी अफसोस किया।
    विवाह के एक साल बाद ही प्रेमचंद के पिताजी का देहान्त हो गया। अचानक प्रेमचंद के सिर पर पूरे घर का बोझ आ गया। एक साथ पाँच लोगों का खर्चा सहन करना पड़ा। पाँच लोगों में विमाता, उसके दो बच्चे पत्नी और स्वयं। प्रेमचंद की आर्थिक विपत्तियों का अनुमान इस घटना से लगाया जा सकता है कि पैसे के अभाव में उन्हें अपना कोट बेचना पड़ा और पुस्तकें बेचनी पड़ी। एक दिन ऐसी हालत हो गई कि वे अपनी सारी पुस्तकों को लेकर एक बुकसेलर के पास पहुंच गए। वहाँ एक हेडमास्टर मिले जिन्होंने प्रेमचंद को अपने स्कूल में अध्यापक पद पर नियुक्त किया।

    प्रेमचंद की शिक्षा-दीक्षा तंगी और अभाव में

    अपनी गरीबी से लड़ते हुए प्रेमचंद ने अपनी पढ़ाई मैट्रिक तक पहुंचाई। जीवन के आरंभ में प्रेमचंद ने गाँव से दूर बनारस पढ़ने के लिए नंगे पाँव जाया करते थे। इसी बीच पिता का देहान्त हो गया। पढ़ने का शौक था, आगे चलकर वकील बनना चाहते थे। मगर गरीबी ने तोड़ दिया। स्कूल आने-जाने के झंझट से बचने के लिए एक वकील साहब के यहाँ ट्यूशन पकड़ लिया और उसी के घर एक कमरा लेकर रहने लगे। ट्यूशन का पाँच रुपया मिलता था। पाँच रुपये में से तीन रुपये घर वालों को और दो रुपये से अपनी जिन्दगी की गाड़ी को आगे बढ़ाते रहे। इस दो रुपये से क्या होता महीना भर तंगी और अभाव का जीवन बिताते थे। इन्हीं जीवन की प्रतिकूल परिस्थितियों में मैट्रिक पास किया।

    प्रेमचंद की साहित्यिक रुचि और साहित्यिक सफर

    प्रेमचन्द उन साहित्यकारों में से हैं, जो साहित्यकार होने के साथ-साथ स्वतंत्रता सेनानी भी थे। गरीबी, अभाव, शोषण तथा उत्पीड़न जैसी जीवन की प्रतिकूल परिस्थितियाँ भी प्रेमचंद के साहित्य की ओर उनके झुकाव को रोक न सकी। प्रेमचंद जब मिडिल में थे तभी से आपने उपन्यास पढ़ना आरंभ कर दिया था। आपको बचपन से ही उर्दू आती थी। प्रेमचंद पर हिंदी और उर्दू उपन्यास का ऐसा उन्माद छाया कि आप पुस्तक विक्रेता की दुकान पर बैठकर ही सब उपन्यास पढ़ गए। आपने दो-तीन साल के अन्दर ही सैकड़ों उपन्यासों को पढ़ डाला।
    प्रेमचंद ने बचपन में ही उर्दू के समकालीन उपन्यासकार सरुर मोलमा शार, रतन नाथ सरशार आदि के दीवाने हो गये कि जहाँ भी इनकी किताब मिलती उसे पढ़ने का हर संभव प्रयास करते थे। आपकी रुचि इस बात से साफ झलकती है कि एक किताब को पढ़ने के लिए प्रेमचंद ने एक तम्बाकू वाले से दोस्ती करली और उसकी दुकान पर मौजूद “तिलस्मे-होशरुबा” पढ़ डाली। अंग्रेजी के अपने जमाने के मशहूर उपन्यासकार रोनाल्ड की किताबों के उर्दू तरजुमो को आपने काफी कम उम्र में ही पढ़ लिया था। इतनी बड़ी-बड़ी किताबों और उपन्यासकारों को पढ़ने के बावजूद प्रेमचंद ने अपने मार्ग को अपने व्यक्तिगत विषम जीवन अनुभव तक ही सिमित रखा। तेरह वर्ष की उम्र में से ही प्रेमचंद ने लिखना आरंभ कर दिया था। शुरु में प्रेमचंद ने कुछ नाटक लिखे फिर बाद में उर्दू में उपन्यास लिखना आरंभ किया। इस तरह प्रेमचंद का साहित्यिक सफर शुरु हुआ जो मरते दम तक साथ-साथ रहा।

    प्रेमचंद ने की दूसरी शादी

    सन् 1905 में प्रेमचंद की पहली पत्नी पारिवारिक कटुताओं के कारण घर छोड़कर मायके चली गई फिर वह कभी नहीं आई। विच्छेद के बावजूद कुछ सालों तक वह अपनी पहली पत्नी को खर्चा भेजते रहे। सन् 1905 के अन्तिम दिनों में प्रेमचंद ने शीवरानी देवी से शादी कर ली। शीवरानी देवी एक विधवा थी और विधवा के प्रति प्रेमचंद सदा स्नेह के पात्र रहे थे। यह कहा जा सकता है कि दूसरी शादी के पश्चात् प्रेमचंद के जीवन में परिस्थितियां कुछ बदली और आय की आर्थिक तंगी कम हुई। प्रेमचंद के लेखन में अधिक सजगता आई। प्रेमचंद की पदोन्नति हुई तथा प्रेमचंद स्कूलों के डिप्टी इन्सपेक्टर बना दिये गए। इसी खुशहाली के जमाने में प्रेमचंद की पाँच कहानियों का संग्रह सोजे वतन प्रकाश में आया। यह संग्रह काफी मशहूर हुआ।

    प्रेमचंद का रोचक व्यक्तित्व और कृतित्व

    सादा एवं सरल जीवन के मालिक प्रेमचंद सदा मस्त रहते थे। उनके जीवन में विषमताओं और कटुताओं से वह लगातार खेलते रहे। इस खेल को उन्होंने बाजी मान लिया जिसको हमेशा जीतना चाहते थे। अपने जीवन की परेशानियों को लेकर उन्होंने एक बार मुंशी दयानारायण निगम को एक पत्र में लिखा “हमारा काम तो केवल खेलना है- खूब दिल लगाकर खेलना- खूब जी- तोड़ खेलना, अपने को हार से इस तरह बचाना मानों हम दोनों लोकों की संपत्ति खो बैठेंगे। किन्तु हारने के पश्चात्-पटखनी खाने के बाद, धूल झाड़ खड़े हो जाना चाहिए और फिर ताल ठोंक कर विरोधी से कहना चाहिए कि एक बार फिर जैसा कि सूरदास कह गए हैं, “तुम जीते हम हारे। पर फिर लड़ेंगे।” कहा जाता है कि प्रेमचंद हंसोड़ प्रकृति के मालिक थे। विषमताओं भरे जीवन में हंसोड़ होना एक बहादुर का काम है। इससे इस बात को भी समझा जा सकता है कि वह अपूर्व जीवनी-शक्ति का द्योतक थे। सरलता, सौजन्यता और उदारता के वह मूर्ति थे।
    जहां प्रेमचंद के हृदय में मित्रों के लिए उदार भाव था वहीं प्रेमचंद के हृदय में गरीबों एवं पीड़ितों के लिए सहानुभूति का अथाह सागर था। जैसा कि उनकी पत्नी कहती हैं “कि जाड़े के दिनों में चालीस-चालीस रुपये दो बार दिए गए दोनों बार उन्होंने वह रुपये प्रेस के मजदूरों को दे दिये। मेरे नाराज होने पर उन्होंने कहा कि यह कहां का इंसाफ है कि हमारे प्रेस में काम करने वाले मजदूर भूखे हों और हम गरम सूट पहनें।”
    प्रेमचंद उच्चकोटि के मानव थे। प्रेमचंद को गाँव जीवन से अच्छा प्रेम था। वह सदा साधारण गंवई लिबास में रहते थे। जीवन का अधिकांश भाग प्रेमचंद ने गाँव में ही गुजारा। बाहर से बिल्कुल साधारण दिखने वाले प्रेमचंद अन्दर से जीवनी-शक्ति के मालिक थे। अन्दर से जरा सा भी किसी ने देखा तो उसे प्रभावित होना ही था। वह आडम्बर एवं दिखावा से मीलों दूर रहते थे। जीवन में न तो उनको विलास मिला और न ही उनको इसकी तमन्ना थी। तमाम महापुरुषों की तरह अपना काम स्वयं करना पसंद करते थे।