Category: जयंती

  • स्वर्गीय इंदिरा गाँधीजी की 105 वीं जयन्ती श्रद्धा पूर्वक मनाई गई

    जिला कांग्रेस कार्यालय राजेन्द्र आश्रम में देश की पूर्व प्रधानमंत्री भारतरत्न आइरन लेडी स्वर्गीय इंदिरा गाँधीजी की 105 वीं जयन्ती श्रद्धा पूर्वक मनाई गई सर्वप्रथम उनके तैल चित्र पर माल्यार्पण एवं पुष्प अर्पित कर उन्हें श्रद्धांजलि दी गई उसके पश्चात एक विचार गोष्ठी का आयोजन किया गया विचार गोष्ठी के दौरान इंदिरा जी की जीवनी एवं उनके द्वारा किए गए कार्यों पर विशेष रूप से चर्चा करते हुए जिलाध्यक्ष दिलीप कुमार ने कांग्रेसियों को संबोधित करते हुए कहा कि आज हमलोग वैसी महामानव का 105 वाँ जयन्ती मना रहे हैं जिन्हें पूरा विश्व लौह महिला के नाम से जानती है स्वाधीनता संग्राम के दौरान स्व इंदिराजी ने भी अपनी छोटी उम्र में बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया था उन्होंने अपने प्रधानमंत्री कार्यकाल में बहुत ही साहसिक कार्य किए जिसे शब्दों में बयाँ नहीं किया जा सकता है

    तीन बार देश की प्रधानमंत्री बनीं 1977 में जब कांग्रेस पूरी तरह से टूट चुकी थी सत्ता से बेदख़ल हो गयी थी फिर भी इन्दिरा जी ने हिम्मत नहीं हारीं और अकेले अपने दम पर चौथी बार 1980 में फिर से सत्ता में वापस आयीं और प्रधानमंत्री बनी उन्होंने देश की महिलाओं के लिए कई कार्य किए इसी का नतीजा था की इसी बिहार की धरती से महिलाओं ने आवाज़ उठाया था की आधी रोटी खाएँगें लेकिन फिर से इन्दिरा गाँधी को ही लाएँगें और उसी नारा का फलादेश 1980 के चुनाव में देखने को मिला की इन्दिरा जी फिर से प्रधानमंत्री बनीं उनके अदम्य साहसी कार्यों में अमृतसर का आपरेसन ब्लू स्टार भी काफी साहसी कार्य रहा जिसमें खलिस्तान उग्रवादियों को समाप्त कर देश को टूटने से बचाने का कार्य उन्होंने किया था उस समय अगर वह निर्णय नहीं ले पातीं तो आज देश कई भागों में बँट चुका होता भले ही उस नेक कार्यों के चलते ही सन 1984 में प्रधानमंत्री रहते भर में उनकी हत्या हो गयी हो लेकिन उनके द्वारा दिया गया

    अंतिम भाषण आज भी भारतवासियों के ज़ेहन में घूमता है की मैं जीवित रहूँ या ना रहूँ लेकिन मेरे शरीर का एक एक लहू का कतरा एक एक हिंदुस्तान को जीवित रखेगा आज हमलोग जितने भी सरकारी बैंक देख रहे हैं उनका सरकारिकरन स्व इंदिरा जी की ही देन है उनके प्रधानमंत्री रहते पाकिस्तान ने हमारी हिंदुस्तान की तरफ़ आँख उठाकर देखा तो स्व इंदिरा जी ने उसे भी परास्त कर 1971 में उसे धूल चटाकर पाकिस्तान को दो भागों में बाँटकर बांग्लादेश को पाकिस्तान से अलग करवायी जिला कार्यालय से कार्यक्रम करने के बाद जिला कांग्रेसियों का जत्था जिलाध्यक्ष दिलीप कुमार के नेतृत्व में बिहारशरीफ में बाबा मनिराम अखाड़ा पर अवस्थित स्व इंदिरा जी की प्रतिमा पर माल्यार्पण करने पहुँची वहाँ पर माल्यार्पण एवं पुष्प अर्पित करने के बाद पत्रकारों को सम्बोधित करते हुए जिलाध्यक्ष ने जिला प्रशासन पर इंदिरा जी की उपेक्षा का आरोप लगाते हुए कहा कि जिला प्रशासन नालन्दा अपने दिवंगत प्रधानमंत्री इंदिरा जी को भूल गयी है उन्होंने कहा की स्व इंदिराजि शिर्फ कांग्रेस की नेत्री नहीं थी बल्कि इस भारत देश की चार बार प्रधान मंत्री रही और ऐसे अनेकों कार्य की जिसपर देशवशियों को नाज़ है ऐसे में जिला प्रशासन का भी दायित्व बनता है की उनके सम्मान में कार्यक्रम आयोजित करे अंत में सभी कांग्रेसियों ने उनके बताए रास्ते पर चलने की बचनबद्धता दुहराई इस अवसर पर राजगीर के पूर्व विधायक रवि ज्योति कुमार जिला उपाध्यक्ष जितेंद्र प्रसाद सिंह मो जेड इस्लाम नंदू पासवान जमील अशरफ़ जमाली मुन्ना पांडे श्यामदेव राजबंसी ताराचन्द मेहता उदयशंकर कुशवाहा हाफ़िज़ महताब चाँदपुरवे मो बेताब अली बच्चू प्रसाद अजीत कुमार राजीव रंजन कुमार मीर अरशद हुस्सैन हुमायूँ अंसारी राकेश कुमार राजेश्वर प्रसाद राजीव रंजन गुड्डु सौरभ रंजन मो शदाब अकबर आलम मो फ़ैयाज़ नसीम अहमद के अलावे दर्जनों की संख्या में कांग्रेसी कार्यकर्ता मौजूद थे ॥

  • अखंड भारत के निर्माण में अहम भूमिका निभायी थी पटेल जी ने

    सरदार पटेल चौक पर पटेल जयंती समारोह में भाग लेते ग्रामीण विकास मंत्री श्रवण कुमार, सांसद कौशलेन्द्र कुमार, जदयू के राष्ट्रीय महासचिव इंजीनियर सुनील व अन्य राजगीर। सरदार बल्लभ भाई पटेल के बताये रास्ते पर चलकर ही देश व राज्य का विकास हो सकता है। उन्होंने देश के लोगों के लिए काम किया। इस कारण ही आज देश ही नहीं पूरा विश्व उन्हें याद करता है। ये बातें ग्रामीण विकास मंत्री श्रवण कुमार ने रविवार को सरदार पटेल चौक पर पटेल सेवा सदन द्वारा आयोजित 147वां जयंती समारोह में कहीं। मंत्री ने कहा कि पटेल जी के काम को पूरी दुनिया लोहा मानती है। उन्होंने अखंडता को अछून्न बनाये रखा। सरदार पटेल का नाम अमर है। सरदार पटेल, महात्मा गांधी, बाबा साहब भीम राम अम्बेडकर ने जो देश व समाज के गरीब लोगों के विकास की सोच बनायी थी उस पर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार चल रहे हैं। उनके सपनों को मूर्त्त रूप देने में लगे हैं। गांधी ने सपना देखा था कि गांव खुशहाल हो।

    गरीबों को छत, पानी, बिजली, नल का पानी मिले। उसे आज नीतीश कुमार ने उनकी राह पर चलकर पूरा कर दिखाया है। उनके गांव स्वराज की बात को पूरा करने में लगे हैं। पटेल जी ने किसानों को विकास की बात कही थी। उनकी सोच थी कि जब तक गांव का किसान खुशहाल नहीं होगा तब तक असल विकास नहीं हो सकता। सूबे के मुख्यमंत्री किसानों के विकास की सोच रख रहे हैं। आने वाले तीन सालों में बिहार के हर खेत तक जल जीवन हरियाली योजना से पारंपरिक तरीके से पानी पहुंच जायेगी। इससे खेतों में हरियाली आयेगी और गांव खुशहाल होंगे। गांवों को विकसीत बनाया गया है। शहरों के जैसी आज गांवों में सुविधा मिल रही है। अब शहर से अच्छा गांव लगता है। सरदार पटेल समाज को शिक्षित बनाने का संकल्प रखते थे। इस कारण देश ही नहीं दुनिया के विभिन्न कोनों में सरदार पटेल के नाम पर शिक्षा संस्थानों का नाम रखा गया है। सांसद कौशलेन्द्र कुमार ने कहा कि सरदार पटेल ने देश को एक करने का काम किया था। उन्होंने गरीबी-अमीरी की खाई को पाटने का काम किया था। सांसद ने कहा कि मौजूदा केन्द्र सरकार ने कहा था कि किसानों की आमदनी दोगुनी होगी। ऐसा न हो सका। देश में मंहगाई चरम पर है। देश में गरीबी बढ़ रहा है।

    उन्होंने कहा कि अब देश के लोगों को 2024 में एक बेहतर विकल्प चुनना होगा। जदयू के राष्ट्रीय महासचिव इंजीनियर सुनील ने कहा कि सरदार पटेल ने अखंड भारत के निर्माण में अहम भूमिका निभायी थी। बारदोली सत्याग्रह के बाद से उन्हें महिलाओं ने सरदार की उपाधि दी थी। उनकी सोच देश की सेवा करने की थी। पटेल जी के बताये रास्ते पर चलकर ही देश का विकास हो सकता है। जदयू प्रखंड अध्यक्ष जयराम सिंह ने कहा कि राजगीर में सरदार पटेल की जयंती सालों से पटेल सेवा सदन के बैनर तले होते चला आ रहा है। इसमें सबों का सहयोग मिलता रहा है। इस मौके पर सांसद कौशलेन्द्र कुमार, जदयू के राष्ट्रीय महासचिव इंजीनियर सुनील, दिल्ली से आये बीके पटेल, वरीय नेता मुन्ना कुमार, रामकृष्णा प्रसाद, अरुण कुमार वर्मा, नदीम जफर, जदयू प्रखंड अध्यक्ष जयराम सिंह, जदयू नगर अध्यक्ष राकेश कुमार, वार्ड पार्षद डॉ. अनिल कुमार, मेयार पैक्स अध्यक्ष अरुण कुमार चंचूल, प्रमुख प्रतिनिधि अजय पासवान, श्यामदेव राजवंशी, डॉ. बिमलेन्द्र कुमार सिन्हा, श्याम महतो, अजीत प्रसाद सिंह, सुरेश प्रसाद, अरुण महतो, कृष्णा महतो सहित अन्य मौजूद थे।

  • देश में सम्पूर्ण क्रांति आन्दोलन के जनक जयप्रकाश नारायण की 120 वीं जयंती

    राकेश बिहारी शर्मा-भारत में स्वतंत्रता आन्दोलन का इतिहास न केवल अत्यन्त रोचक है, वरन् अद्वितीय है। भारत में स्वतंत्रता आन्दोलन में वर्षों के अंग्रेजी उपनिवेशवादी सम्राज्य की गुलामी के बीच जो उतार-चढ़ाव देखने को मिलते हैं, वह विश्व में सर्वथा नवीन हैं। भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलनों की जो विचारधारा रही है, उसके जो लक्ष्य रहे हैं तथा उसके जो परिणाम हुए हैं, वह इतिहास की दृष्टि से काफी महत्त्वपूर्ण हैं। इन आन्दोलनों के पीछे जो सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक पृष्ठभूमि रही है, वह निश्चित रूप से आन्दोलन की दशा एवं दिशा देने में काफी प्रभावी रही है। भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन के प्रभाव में उसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि प्रमुख रूप से रही है। विदेशी शासन से मुक्ति पाने के लिए भारतीय जनता का बहादुरीपूर्ण संघर्ष भारतीय राष्ट्रवाद का उदय एवं प्रभाव ही था। देश की आजादी का जिक्र होने पर जिस तरह सबसे पहले और सबसे प्रमुखता से राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का जिक्र होता है, उसी तरह देश की दूसरी आजादी का सबसे बड़ा श्रेय लोकनायक जयप्रकाश नारायण को जाता है। दूसरी आजादी यानी देश में पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की ओर से थोपे गए आपातकाल का खात्मा और लोकतंत्र की बहाली।

    जयप्रकाश नारायण का पारिवारिक जीवन और शिक्षा –विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र को नया जीवन देने वाले जयप्रकाश यानी जेपी का जन्म 11 अक्टूबर 1902 को बिहार और उत्तर प्रदेश के सीमा पर मौजूद छोटे से गांव सिताबदियारा में कायस्थ परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम श्री हरसू दयाल तथा माता का नाम श्रीमती फूलरानी देवी था। उनकी माता एक धर्मपरायण महिला थीं। तीन भाई और तीन बहनों में जयप्रकाश अपने माता-पिता की चौथी सन्तान थे । उनसे बड़े एक भाई और एक बहन की मृत्यु हो जाने के कारण उनके माता-पिता उनसे अपार स्नेह रखते थे। प्राथमिक शिक्षा गांव में हासिल करने के बाद सातवीं क्लास में उनका दाखिला पटना में कराया गया है। बचपन से ही मेधावी जयप्रकाश को मैट्रिक की परीक्षा के बाद पटना कॉलेज के लिए स्कॉलरशिप मिली।
    जयप्रकाश ने रॉलेट एक्ट जलियाँवाला बाग नरसंहार के विरोध में ब्रिटिश शैली के स्कूलों को छोड़कर बिहार विद्यापीठ से अपनी उच्चशिक्षा पूरी की। महज 18 साल की उम्र में 1920 में जयप्रकाश जी का विवाह ब्रज किशोर प्रसाद की बेटी प्रभावती से हुआ। कुछ साल बाद ही प्रभावती ने ब्रह्मचर्य का व्रत ले लिया और अहमदाबाद में गांधी आश्रम में राष्टपिता की पत्नी कस्तूरबा के साथ रहने लगीं। जेपी ने भी पत्नी के साथ ब्रह्मचर्य व्रत का पालन किया। जयप्रकाश जी ने एम. ए. समाजशास्त्र से किया। जयप्रकाश ने अमेरिकी विश्वविद्यालय से आठ वर्ष तक अध्ययन किया और वहाँ वह मार्क्सवादी दर्शन से गहरे प्रभावित हुए। पढ़ाई करते हुए उन्होंने अपना खर्च वहन करने के लिए गैराज में काम किया था।

    जयप्रकाश नारायण का राजनैतिक जीवन – जयप्रकाश जी गांधीवादी विचारों से प्रभावित थे और स्वदेशी सामानों का इस्तेमाल करते थे। वह हाथ से सिला कुर्ता और धोती पहनते थे। अमेरिका से लौटने के पश्चात् कुछ समय तक वे बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र के प्रवक्ता रहे, लेकिन भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में भाग लेने के उद्देश्य से उन्होंने नौकरी छोड़ दी और काँग्रेस के सक्रिय कार्यकर्ता बन गए। वर्ष 1934 में काँग्रेस की नीतियों से असन्तुष्ट नवयुवकों ने जब अखिल भारतीय काँग्रेस समाजवादी पार्टी की स्थापना की तो जयप्रकाश नारायण इसके संगठन मंत्री बनाए गए। इस पार्टी में उनके साथ राम मनोहर लोहिया, अशोक मेहता और आचार्य नरेन्द्र देव जैसे राजनेता भी थे। आजादी की लड़ाई में सक्रिय भूमिका निभा रहे जेपी को 1932 में गिरफ्तार कर लिया गया। जेल में उन्हें काफी यातनाएं दी गईं। इसके कारण वर्ष 1932 से 1946 के बीच ब्रिटिश सरकार ने उन्हें कई बार जेल की सलाखों के पीछे भेजा, किन्तु बार-बार वे जेल कर्मचारियों को चकमा देकर फरार होने में सफल रहे।
    विचारों में मतभेद होने के बाद भी महात्मा गाँधीजी जयप्रकाश जी से काफी अनुराग रखते थे। 7 मार्च, 1940 को जब उनको पटना में गिरफ्तार कर चाईबासा जेल में बंद कर दिया गया, तब गाँधीजी ने कहा था- “जयप्रकाश नारायण की गिरफ्तारी एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना है। वे कोई साधारण कार्यकर्ता नहीं हैं, बल्कि समाजवाद के महान् विशेषज्ञ हैं।” जेल से बाहर आने के बाद वह भारत छोड़ो आंदोलन में शामिल हुए। इसी दौरान कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी का गठन हुआ और जेपी इसके महासचिव बनाए गए। 1954 में उन्होंने बिहार में बिनोवा भावे के सर्वोदल आंदोलन के लिए काम करने की घोषणा की थी। 1957 में उन्होंने राजनीति छोड़ने का भी फैसला कर लिया था। हालांकि, 1960 के दशक के अंत में एक बार फिर वे राजनीति में सक्रिय हो गए थे। उन्होंने किसानों के आंदोलनों की भी अगुआई की।
    इलाहाबाद हाई कोर्ट द्वारा चुनाव में अयोग्य ठहराए जाने के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 25 जून 1975 को देश में आपातकाल की घोषणा कर दी थी। विपक्ष के सभी बड़े नेताओं को जेल में ठूस दिया गया और अभिव्यक्ति की आजादी पर भी पहरा लगा दिया गया। जयप्रकाश नारायण ने उस समय देश को एकजुट किया और उनके जनआंदोलन का ही परिणाम था कि करीब 21 महीने बाद 21 मार्च 1977 को आपताकाल खत्म हो गया।

    जयप्रकाश नारायण का इंदिरा गांधी का विरोध – जयप्रकाश नारायण प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की प्रशासनिक नीतियों के खिलाफ थीं। 1974 में पटना में छात्रों ने आंदोलन छेड़ा था। आंदोलन को शांतिपूर्ण तरीके से अंजाम देने की शर्त पर उन्होंने इसकी अगुआई की। इसी दौरान देश में सरकार विरोधी माहौल बना तो इंदिरा गांधी ने आपातकाल की घोषणा कर दी थी। जेपी भी जेल गए और करीब सात महीनों तक सलाखों के पीछे रहे। उनकी तबीयत भी उन दिनों खराब थी, लेकिन जो संप्रूण क्रांति का नारा दिया, उसने देश में लोकतंत्र की बहाली दोबारा सुनिश्चित कर दी।

    जयप्रकाश नारायण का सम्पूर्ण क्रांति आन्दोलन – इंदिरा गांधी को पदच्युत करने के लिए उन्होंने सम्पूर्ण क्रांति आन्दोलन चलाया था। लोकनायक ने कहा कि सम्पूर्ण क्रांति में सात क्रांतियाँ शामिल हैं। सामाजिक, सांस्कृतिक, बौद्धिक, राजनैतिक, आर्थिक, शैक्षणिक एवं आध्यात्मिक क्रांति। सम्पूर्ण क्रांति की तपिश इतनी भयानक थी कि केन्द्र में कांग्रेस को सत्ता से हाथ धोना पड़ा। जेपी के नाम से प्रसिद्ध जयप्रकाश नारायण घर-घर में क्रांति का पर्याय बन चुके थे। बिहार में आज के सभी नेता उसी छात्र युवा वाहिनी का हिस्सा थे। वे अत्यंत समर्पित जननायक और मानवतावादी चिंतक तो थे ही इसके साथ-साथ उनकी छवि अत्यन्त शालीन और मर्यादित सार्वजनिक जीवन जीने वाले व्यक्ति की भी है। उनका समाजवाद का नारा आज भी हर तरफ गूँज रहा है, भले ही उन के नारे पर राजनीति करने वाले उन के सिद्धांतों को भूल रहे हों, क्योंकि, उन्होंने सम्पूर्ण क्रान्ति का नारा एवं आन्दोलन जिन उद्देश्यों एवं बुराइयों को समाप्त करने के लिए किया था, वे सारी बुराइयाँ इन राजनीतिक दलों एवं उन के नेताओं में व्याप्त है।

    जयप्रकाश के आंदोलन में बिहार के नेता –जयप्रकाश जी इंदिरा गांधी की प्रशासनिक नीतियों के विरुद्ध थे। गिरते स्वास्थ्य के बावजूद उन्होंने बिहार में सरकारी भ्रष्टाचार के विरुद्ध आन्दोलन किया। उन्हें सन् 1970 में इंदिरा गांधी के विरुद्ध विपक्ष का नेतृत्व करने के लिए जाना जाता है। सन् 1974 में सिंहासन खाली करो जनता आती है के नारे के साथ वे मैदान में उतरे तो सारा देश उनके पीछे चल पड़ा, जैसे किसी संत महात्मा के पीछे चल रहा हो। जयप्रकाश आंदोलन में छात्र नेता में शामिल हुए कई नेता जैसे लालू प्रसाद यादव, नीतीश कुमार, राम विलास पासवान, रविशंकर प्रसाद सुशील मोदी, मुलायम सिंह यादव जैसे दर्जनों नेता बाद में वर्षों तक सत्ता में रहे। आपातकाल के बाद देश में चुनाव हुए तो कांग्रेस पार्टी की करारी हार हुई और केंद्र में पहली बार गैर कांग्रेसी सरकार का गठन हुआ। खुद इंदिरा गांधी और उनके बेटे संजय गांधी चुनाव हार गए थे।

    कर्मयोगी लोकनायक जयप्रकाश नारायण का निधन – आज की युवा पीढ़ी के कम ही लोग जानते होंगे कि लोकनायक जयप्रकाश नारायण के लंबे सार्वजनिक जीवन का सबसे दुर्भाग्यपूर्ण प्रसंग उनके निधन से दो सौ दिन पहले 23 मार्च, 1979 को घटित हुआ था। दुर्भाग्यपूर्ण होने के बावजूद वह इस अर्थ में दिलचस्प है कि उसने उन्हें इस देश तो क्या दुनिया का इकलौता ऐसा नेता बना दिया, जिसे उसके देश की संसद ने उसके जीते जी ही श्रद्धांजलि दे डाली थी! उस दिन दरअसल हुआ यह कि जब वे अपने गुर्दों की लंबे अरसे से चली आ रही बीमारी से पीड़ित होकर मुंबई के जसलोक अस्पताल में मृत्यु से संघर्ष कर रहे थे, सरकार नियंत्रित आकाशवाणी ने दोपहर बाद एक बजकर दस मिनट पर अचानक खबर देनी शुरू कर दी कि जयप्रकाश नारायण का निधन हो गया है। उस वक्त उनके ही निरंतर प्रयत्नों से संभव हुई कांग्रेस की बेदखली के बाद सत्ता में आयी जनता पार्टी का शासन था और हद तब हो गयी थी, जब आकाशवाणी की खबर की पुष्टि कराये बगैर तत्कालीन लोकसभाध्यक्ष केएस हेगड़े ने प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई के हवाले से लोकसभा को भी उनके निधन की सूचना दे डाली और श्रद्धांजलियों व सामूहिक मौन के बाद सदन को स्थगित कर दिया। खबर सुनकर लोग अपने प्रिय नेता के अंतिम दर्शन के लिए जसलोक अस्पताल पहुंचने लगे तो जनता पार्टी के अध्यक्ष चंद्रशेखर अस्पताल में ही थे। उन्होंने बाहर आकर लोगों से क्षमायाचना की और बताया कि लोकनायक अभी हमारे बीच हैं। हम जानते हैं कि 23 मार्च को समाजवादी नेता डॉ. राममनोहर लोहिया की जयंती होती है और इस जयंती के ही दिन जेपी को जीते जी श्रद्धांजलि की शर्मनाक विडंबना तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरार जी देसाई व उनकी सरकार के गले आ पड़ी तो गलती सुधारने के लिए लोकसभा के स्थगन के चार घंटे बाद ही फिर से उसकी बैठक बुलानी पड़ी और विपक्षी कांग्रेस के सांसदों ने इसको लेकर उनकी सरकार की खूब ले दे की। बहरहाल, जीते जी मिली संसद की इस ‘श्रद्धांजलि’ के बाद जेपी दो सौ दिनों तक हमारे बीच रहे और 8 अक्टूबर, 1979 को इस संसार को अलविदा कहा, जिसके लंबे अरसे बाद 1998 में उन्हें देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारतरत्न’ से सम्मानित किया गया।

    लोकनायक जयप्रकाश नारायण देश के सच्चे समाज सेवक- वे देश के सच्चे समाज सेवक थे, जिन्हें लोकनायक के नाम से भी जाना जाता है। पटना के हवाईअड्डे का नाम उनके नाम पर रखा गया है तथा दिल्ली सरकार का सबसे बड़ा अस्पताल लोकनायक जयप्रकाश अस्पताल भी उनके नाम पर है। उनका समस्त जीवन यात्रा संघर्ष तथा साधना से भरपूर रहा है। उन्होंने भारतीय राजनीति को ही नहीं बल्कि आम जनजीवन को एक नई दिशा दी। वे समूचे भारत में ग्राम स्वराज्य का सपना देखते थे और उसे आकार देने के लिए अथक प्रयास भी किये। कर्मयोगी लोकनायक बाबू जयप्रकाश नारायण ने स्वार्थलोलुपता में कोई कार्य नहीं किया। वे अन्त: प्रेरणा के पुरुष थे। उन्होंने अनेक यूरोपीय यात्राएँ करके सर्वोदय के सिद्धान्त को सम्पूर्ण विश्व में प्रसारित किया।

  • नालंदा जिला रिटायर आर्मी मैन के द्वारा गांधी जी की जयंती मनाया

    नालंदा जिला रिटायर आर्मी मैन के द्वारा आज चाणक्य क्लासेस में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जी एवं लाल बहादुर शास्त्री जी की जयंती बड़े ही धूमधाम से मना कर देश के प्रति देश प्रेम का जज्बा को प्रदर्शित किया सभी रिटायर आर्मी मैन राष्ट्रपिता महात्मा गांधी एवं लाल बहादुर शास्त्री की जी की प्रतिमा पर पुष्प अर्पित कर माल्यार्पण कर उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि अर्पित की साथ ही उन्होंने इस उपलक्ष में केक काटकर उनके जन्मदिन को मनाया

    यह कार्यक्रम नालंदा एक्स सर्विसमैन वेलफेयर सोसाइटी के अंतर्गत किया गया जिसकी अध्यक्षता गोपाल लाल साहू ने किया|  बताते चलें कि यह हर रविवार को एक समूह में अपनी मूलभूत समस्याओं को लेकर बैठक करते हैं परंतु रविवार के दिन ही देश के राष्ट्रपिता महात्मा गांधी एवं लाल बहादुर शास्त्री जी का जन्मदिन पड़ गया लोगों ने मीटिंग के पश्चात बड़े ही धूमधाम से इस कार्यक्रम को मनाया

  • सदियों सदियों तक बापू को हम लोग नमन करते रहेंगे प्राचार्य- डॉक्टर महेश

    सरदार पटेल मेमोरियल कॉलेज उदंतपुरी बिहारशरीफ के प्रांगण में राष्ट्रीय सेवा योजना के तहत आज राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का जन्मदिन एवं पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री का पुण्यतिथि मनाया गया कार्यक्रम के अध्यक्षता राष्ट्रीय सेवा योजना के अधिकारी डॉ अखिलेश कुमार ने किया जबकि मुख्य अतिथि के रूप में महाविद्यालय के प्राचार्य डॉक्टर महेश प्रसाद सिंह शिरकत किया सबसे पहले राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और पूर्व प्रधानमंत्री के चित्र पर माल्यार्पण कर एवं पुष्पांजलि अर्पित कर उन्हें नमन किया एवं प्रसाद डॉक्टर महेश प्रसाद सिंह के देखरेख में एवं एनएसएस अधिकारी डॉक्टर अखिलेश कुमार के नेतृत्व में राष्ट्रीय सेवा योजना के स्वयंसेवकों के द्वारा कॉलेज परिसर के वृहद सफाई पौधारोपण किया गया

    स्वयंसेवकों को घर एवं कॉलेज की सफाई और वृक्षारोपण करने का शपथ भी दिलाया गया प्राचार्य डॉ सिन्हा महात्मा गांधी के किए गए कार्यों एवं लाल बहादुर शास्त्री के साथ भी त्याग और बलिदान की विस्तृत चर्चा की उनकी बातों को सुन स्वयंसेवकों के रोंगटे खड़ा हो गया सत्य और अहिंसा को मार्ग अपना कर आगे बढ़ते गए और अंततः हमें आजादी मिली हाजा हम लोग आजादी के हवा में सांस ले रहे हैं मंच का संचालन एनसीसी ऑफिसर लेफ्टिनेंट डॉ शशिकांत कुमार टोनी ने किया इस अवसर पर भोला प्रसाद सुरेंद्र प्रसाद बलबीर कुमार नीतीश कुमार रवि कुमार अमन कुमार सन राजकुमार ब्यूटी कुमारी श्रुति कुमारी स्वीटी कुमारी आदि सैकड़ों शिक्षक शिक्षकेतर कर्मचारी छात्र-छात्रा उपस्थित थे।

  • कांग्रेस जनों ने महात्मा गांधी-लाल बहादुर शास्त्री को पुष्प अर्पित कर श्रद्धांजलि

    जिला कांग्रेस कमेटी कार्यालय राजेंद्र आश्रम बिहार शरीफ में देश के दो महान विभूतियों राष्ट्रपिता स्वर्गीय महात्मा गांधी जी एवं देश के पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय लाल बहादुर शास्त्री जी की जयंती जिलाध्यक्ष दिलीप कुमार की अध्यक्षता में श्रद्धा पूर्वक मनाई गई सर्वप्रथम कांग्रेस जनों ने उनके तैल चित्र पर माला एवं पुष्प अर्पित कर उन्हें श्रद्धांजलि दी तत्पश्चात दोनों महापुरुषों की जीवनी पर एक संगोष्ठी का भी आयोजन किया गया कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए जिला अध्यक्ष दिलीप कुमार ने कहा कि आज हम आजादी के दो महान विभूतियों का जयंती मना रहे हैं जिनकी आज फिर से इस देश को आवश्यकता आन पड़ी है एक तरफ महात्मा गांधी जी सत्य एवं अहिंसा के पुजारी थे तो दूसरी तरफ लाल बहादुर शास्त्री ईमानदारी एवं सच्चाई के मिसाल के साथ-साथ एक कर्तव्यनिष्ठ एवं मजबूत इच्छाशक्ति के धनी थे

    एक तरफ गांधीजी नागरिकों को देश के किसी भी स्थान में रहने की आजादी के पक्षधर थे उनका कहना था कि मनुष्य को अपनी मन पसंदीदा जगहों में बसने से नहीं रोका जा सकता महात्मा गांधी जी सत्य और अहिंसा के लिए सदैव जाने जाते रहेंगे जब बंगाल में हिंदू विरोधी दंगे भड़क उठे थे इन दंगों को शांत कराने के लिए गांधीजी अपनी जान की परवाह किए बगैर लगभग 4 महीनों तक वहां ग्रामीण इलाकों में भ्रमण कर कौमी एकता स्थापित करते रहे उसके कुछ ही दिनों के बाद 1947 में ही जब बिहार में दंगे भड़के तो बंगाल से सीधा पटना की ओर रुख कर गांधी जी ने यहाँ भी कौमी एकता की मिसाल पेश कर सर्व धर्म का समभाव स्थापित कर बिहार के दंगे को भी समाप्त करवाने का काम किए थे ऐसे हजारों उदाहरण है जिसमें गांधी जी ने देश की एकता और अखंडता को बरकरार रखने के लिए अपनी जान की परवाह ना करते हुए उन्होंने हिंदुस्तान को एक सूत्र में बांधने का काम किया आज फिर से देश को महात्मा गांधी जैसे सपूत की आवश्यकता आ गई है क्योंकि इस देश में जो संगठन और लोग गांधीजी के हत्यारे थे

    आज वही लोग देश को दो भागों में बाँटते नजर आ रहे हैं एक तरफ गांधीवादी विचारों के समर्थक लोग हैं जो देश को हर हाल में टूटते देखना नहीं चाहते हैं तो दूसरी ओर हत्यारे गोडसे के समर्थक लोग हैं जो इस देश को अलगाववाद के रास्ते पर ले चलने का प्रयास कर रहे हैं लोगों को जोड़ने के बजाए उन्हें तोड़ने में विश्वास रखते हैं धर्म और जाति का विभेद पैदा कर एक दूसरे के भीतर भय का माहौल कायम कर उन्हें आपस में लड़ाने का काम कर रहे हैं लेकिन हम कांग्रेसी जनता के बीच जा जाकर गांधी जी का संदेश पहुंचाने का काम कर रहे हैं और जब तक कांग्रेसी कार्यकर्ताओं के शरीर में खून का एक कतरा भी बाकी रहेगा तब तक हम लोग इस देश को अलगाववादी ताक़तों से बचाएं रखेंगे दूसरी तरफ आज एक और हमारे बिभूति की भी जयंती है जिनकी सादगी की मिसाल दुनिया देती है स्वर्गीय लाल बहादुर शास्त्री विवेकानंद जी के विचारों से काफी प्रभावित थे इसके अलावा वे गांधीजी के भी सच्चे अनुयाई थे देश जब आजाद हुआ था उस समय उन्हें सबसे पहला देश का रेलवे मंत्री होने का गौरव प्राप्त है उसके बाद वह देश के गृह मंत्री बने थे शास्त्री जी को देश में श्वेत क्रांति लाने के लिए जाना जाता है उन्होंने अमूल दूध को बढ़ावा देते हुए नेशनल डेयरी डेवलपमेंट बोर्ड का गठन किया था साथ ही शास्त्री जी को देश के किसान और मजदूरों को नेता के तौर पर भी जाना जाता है

    उन्होंने सीमा पर डटे जवानों के साथ-साथ नौजवानों एवं किसानों के लिए एक नारा दिया था जिसका नाम जय जवान जय किसान था शास्त्री जी अपनी सादगी एवं ईमानदारी के लिए भी जाने जाते थे जब वह मंत्री पद से हटे थे तो उनके घर के कमरे में सिर्फ एक जगह कमरे में ही लाइट जलता था बाकी कमरे अंधेरे में रहते थे जब उनसे यह प्रश्न पूछा गया तो उन्होंने कहा की अकारण बिजली का खपत क्यों किया जाए और वैसे भी जब मेरा एक बल्ब से ही काम चल जाता है तो मैं ज्यादा बिजली बिल जमा क्यों भरूं यह उनका वाक्य था उनके बारे में तो यहां तक कहा गया है कि जब उस जमाने में आलू महंगी हुई थी तो उन्होंने आलू खाना ही छोड़ दिया था स्वर्गीय लाल बहादुर शास्त्री जब स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान जेल गए तो उन्होंने गरीब स्वतंत्रता सेनानियों की भी मदद की जब शास्त्री जी जेल में थे तो उनकी पत्नी को घर चलाने के लिए 50 रुपए मिलते थे यह पैसा उन्हें लाला लाजपत राय जी की संस्थान सर्वेंट्स ऑफ इंडिया सोसाइटी की ओर से मिलता था उस समय शास्त्री जी की पत्नी ने कहा था कि मेरा घर 40 रुपया महीना में ही चल जाता है

    इसके बाद शास्त्री जी ने जेल से ही पत्र लिखकर कहा था कि अतिरिक्त 10 रुपए किसी और जरूरतमंद को दे दिया जाए इतना ही नहीं जब वह प्रधानमंत्री थे तो वह खुद अपने बेटे का रिपोर्ट कार्ड लेने के लिए दिल्ली स्थित सेंट कोलंबस स्कूल पहुंच गए थे आज फिर से ऐसी सादगी विचार एवं इमानदार नेता को इस देश की आवश्यकता आ पड़ी है आज अगर हमारे यह दोनों महापुरुष हम लोगों के बीच होते तो देश का यह हाल नहीं हुआ होता आज के जयंती समारोह में जिला उपाध्यक्ष जितेंद्र प्रसाद सिंह नव प्रभात प्रशांत मो जेड इस्लाम मो उस्मान गनी महिला अध्यक्ष संजू पांडे नंदू पासवान अजीत कुमार नगर अध्यक्ष महताब आलम गुड्डु मुन्ना पांडे कोषाध्यक्ष ताराचंद मेहता सरबेंद्र कुमार अधिवक्ता सैयद इफ़्तखार आलम बच्चू प्रसाद देवेंद्र यादव मो जोहैर गनी अशोक कुमार के अलावे दर्जनों की संख्या में कांग्रेसी कार्यकर्ताओं ने भी अपने-अपने विचार दोनों महापुरुषों पर व्यक्त किए॥

  • पत्रकारिता की शुरू गांधी जी की इंग्लैंड में हुई,पत्रकारिता मिशन था गांधी जी का

    वर्ष 1888 में 19 वर्ष की उम्र में, गाँधी वकालत की पढ़ाई के सिलसिले में लंदन गए. इसी दौरान वे ‘लंदन वेजीटेरियन सोसाइटी’ के सदस्य बने. संस्था की पत्रिका ‘द वेजीटेरियन’ के लिए उन्होंने लेख लिखना शुरू किया. उनका पहला लेख ‘इंडियन वेजीटेरियन’ था जो 1891 में प्रकाशित हुआ. पत्रिका में उनके लगभग 12 लेख प्रकाशित हुए. इसमें शाकाहार, भारतीय खान-पान, परंपरा और धार्मिक त्यौहार जैसे विषय शामिल थे. शुरआती लेख से ही तथ्यपरक ढंग से सरल भाषा में विचारों को व्यक्त करने की उनकी कला दिखी. दादा भाई नौरोजी ने 1890 में जब लंदन से ‘इंडिया’ नामक अंग्रेजी पत्र प्रकाशित किया तो उन्होंने गांधी को जोहांसवर्ग, डरबन और दक्षिण अफ्रीका में अपने समाचार पत्र का प्रतिनिधि नियुक्त किया.

    दक्षिण अफ्रीका में हुई घटना ने लिखने के लिए किया मजबूर – 1893 में गाँधी जी वकालत करने दक्षिण अफ्रीका गये. जहाँ लंदन में गाँधी किसी प्रकार के रंगभेद का शिकार नहीं हुए, वहीं दक्षिण अफ्रीका में उनके साथ घटी नस्लभेद की अनेक घटनाओं ने उन्हें प्रेरित किया कि इस पीड़ा की अभिव्यक्ति पत्रकरिता के माध्यम से किया जाए. दक्षिण अफ्रीका पहुंचने के तीसरे दिन ही उन्हें कोर्ट में अपमानित किया गया. कोर्ट परिसर में उनके पगड़ी पहनने पर पाबंदी लगी. अगले ही दिन उन्होंने स्थानीय संपादक को पत्र लिखकर अपनी आपत्ति जतायी. उनके विरोध के स्वर को अख़बार ने प्रकाशित किया. पहली बार गाँधी जी के लेख को अख़बार में जगह मिली थी. पत्र में उन्होंने लिखा की किसी भी देश में कोई कानून व्यक्तिगत या सांस्कृतिक आज़ादी के खिलाफ नहीं हो सकता. इस घटना से पहली बार दक्षिण अफ्रीका में गाँधी जी चर्चा में आए और अन्याय के प्रति विरोध की अभियक्ति ने उनके अन्दर पत्रकरिता का बिगुल फूका और शुरू हुआ इस क्षेत्र में उनका लंबा सफ़र.|दक्षिण अफ्रीका में 1899 में बोअर युद्ध छिड़ा, जिसने गांधीजी को भारतीय एम्बुलेंस कोर के स्वयंसेवकों के साथ युद्ध के मैदान में जाने और युद्ध को नजदीक से देखने का अनुभव प्रदान किया। इसके बाद उन्होंने युद्ध का अपना अनुभव द टाइम्स ऑफ इंडिया, बॉम्बे को भेजना शुरू किया। युद्ध संवाददाता के तौर पर पूरी मानवीय संवेदना से उन्होंने इस युद्ध की रिपोर्टिंग की.

    दक्षिण अफ्रीका में आम भारतीयों के बारे में काफी अपमानजनक लेख प्रकाशित किए जाते थे. ऐसे में गाँधी जी इस दुष्प्रचार का सामना करने के लिए दक्षिण अफ्रीका के शीर्ष अखबारों में लिखने लगे. इसी कड़ी में 1903 में उन्होंने डरबन में इंडियन ओपिनियन नामक पत्रिका में शुरू की. मुख्य रूप से यह चार भाषओं अंग्रेजी, हिंदी, गुजराती और तमिल में प्रकाशित होती थी. पत्रिका के पहले अंक में ही गांधी जी ने पत्रकारिता के उद्देश्यों को बताते हुए स्पष्ट किया कि पत्रकारिता का पहला काम जनभावनाओं को समझना और उन्हें अभिव्यक्ति देना है.

    इंडियन ओपिनियन के ज़रिये उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में रह रहे भारतीयों की परेशानियों का उल्लेख किया. वे अखबार के माध्यम से प्रशासन का इन समस्यायों की ओर ध्यान आकर्षित करने लगे. इस पत्रिका में सिर्फ नस्लभेद के मुद्दे ही नहीं उठाये गये, दक्षिण अफ्रीका में बसे भारतीय समाज को स्वच्छता, आत्मानुशासन और अच्छी नागरिकता के बारे में शिक्षित करने का प्रयास भी किया गया. गांधी जी ने अपनी आत्मकथा में लिखा, ‘इस समाचार पत्र की जरूरत के बारे में हमारे मन में कोई संदेह नहीं है. भारतीय समाज दक्षिण अफ्रीका के राजकीय शरीर का निर्जीव अंग नहीं है. उसे जीवित अंग सिद्ध करने के लिए यह पत्र निकाला गया है.’

    सत्ता के विरोध में मुखर रहने पर साल 1906 में अफ्रीकी प्रशासन ने उन्हें जोहान्सवर्ग की जेल में कैद कर दिया। लेकिन जेल में रहने के बावजूद गांधी जी ने कोई समझौता नहीं किया, बल्कि जेल से ही अख़बार के संपादन का काम किया. अखबार ने कई बार आर्थिक तंगी झेली, लेकिन गाँधी जी ने खुद की आय का बड़ा हिस्सा इसके प्रकाशन में लगाकर इसकी गति धीमी नहीं होने दी. 1893 से लेकर 1914 तक गाँधी जी ने दक्षिण अफ्रीका में पत्रकरिता के माध्यम से दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों के सामाजिक-राजनीतिक अधिकारों की वकालत की, भारतीय समाज को एकजुट किया और विभिन्न समूहों में आपसी सौहार्द स्थापित किया.
    गांधी जी ने पत्रकारिता को लोगों की सेवा के साधन के रूप में देखा। उन्होंने अपनी आत्मकथा में कहा है, ‘इंडियन ओपिनियन के पहले महीने में ही मैंने महसूस किया कि पत्रकारिता का एकमात्र उद्देश्य सेवा होना चाहिए. समाचार पत्र एक महान शक्ति है, लेकिन जिस तरह पानी की एक अनियंत्रित धारा पूरे देश को डुबो देती है और फसलों को तबाह कर देती है, उसी तरह एक अनियंत्रित कलम नष्ट करने का ही काम करती है।’ दक्षिण अफ्रीका में शुरू हुई गाँधी जी की मिशनरी पत्रकारिता ने बाद में भारत में भी उसी बदलाव की मशाल जलाई.

    भारत में जन जागरण के लिए पत्रकारिता बनी सहारा – गाँधी जी के भारत आगमन से पहले भी भारत में अनेक स्वतंत्रता सेनानी अंग्रेजी उपनिवेश के खिलाफ आम जनता को जगाने के लिए पत्रकारिता का प्रयोग कर रहे थे. श्रेत्रीय भाषाओं में अनेक पत्रिकाएं भी यह काम कर रही थीं. इनमें आनंद बाज़ार पत्रिका के शिशिर घोष / मोतीलाल घोष, बालगंगाधर तिलक, रामकृष्ण पिल्लई, सुब्रह्मण्यम अय्यर आदि शामिल थे. भारत में गाँधी जी के आगमन के बाद पत्रिकारिता को नई उर्जा मिली. कह सकते हैं कि 1915 के बाद के कालखंड में गाँधी जी का भारत की पत्रकारिता में ख़ासा प्रभाव रहा.

    अंग्रेजों ने प्रथम विश्व युद्ध में समर्थन के बदले भारतीयों से अस्पष्ट रूप से ‘होम रूल’ वादा किया था, इसके उलट ब्रिटिश सरकार ने 1919 में भारतीय जनता पर कठोर रॉलेट एक्ट थोप दिया। इस बिल ने न केवल तथाकथित ‘देशद्रोही’ दस्तावेज के प्रकाशन, बल्कि उसके कब्जे को भी एक दंडनीय अपराध बना दिया। इसके विरोध में गांधीजी ने 7 अप्रैल 1919 में एक अपंजीकृत साप्ताहिक ‘सत्याग्रह’ शुरू किया और उसके संपादक बने । यह हर सोमवार को प्रकाशित होता था और इसके माध्यम से सत्याग्रह के विचार का प्रचार किया जाने लगा. इसमें देश भर में हो रहे नागरिक अवज्ञा आंदोलन की ख़बरें भी रहती थीं. नागरिक अवज्ञा आंदोलन वापस लिए जाने के बाद उन्होंने यह पत्रिका बंद कर दी. गाँधी जी प्रेस की स्वतंत्रता के पक्षधर थे. उन्होंने कहा था कि प्रेस की स्वतंत्रता एक मूल्यवान विशेषाधिकार है, जिसका त्याग कोई देश नहीं कर सकता. वे पश्चिम की तरह पूर्व में भी समाचार पत्रों को जनता की बाइबिल, कुरान, जेंद-अवेस्ता और गीता के रूप में देख रहे थे. उन्होंने कहा कि समाचार पत्र तथ्यों के अध्ययन के लिए पढ़े जाने चाहिए. अख़बारों को यह अनुमति नहीं दी जानी चाहिए कि वे हमारे स्वतंत्र चिंतन को समाप्त कर दें. प्रेस की आजादी के पर काटने वाले इस दौर में गाँधी जी ने आगे बढ़कर विभिन्न पत्रिकाओं के संपादन की ज़िम्मेदारी ली.

    नवजीवनः गाँधी जी ने 7 सितम्बर 1919 को गुजराती में ‘नवजीवन’ नामक साप्ताहिक पत्र का प्रकाशन शुरू किया. इस पत्र के संपादन की ज़िम्मेदारी शंकर लाल बैंकर और इंदुलाल याज्ञिक ने उन्हें सौंपी थी. गांधी जी के संपादकत्व में एक आना मूल्य के इस साप्ताहिक पत्र की ग्राहक संख्या देखते ही देखते 1200 तक जा पहुंची थी।

    यंग इंडिया : होम रूल लीग के दो युवा समर्थकों उमर सोबानी और शंकरलाल बैंकर ने अपने साप्ताहिक यंग इंडिया का संपादक बनने की पेशकश भी गाँधी जी को की थी. 8 अक्टूबर को गाँधी जी के संपादन में अहमदाबाद से ‘यंग इंडिया’ साप्ताहिक पत्र के रूप में निकलने लगा. यह पत्र अंग्रेजी भाषा में था. ‘यंग इंडिया’ के पहले संपादकीय लेख में गांधी जी ने जिक्र किया कि देश की 80 % किसान व मजदूर जनसंख्या अंग्रेजी नहीं जानती। फिर यह अंग्रेजी पत्र क्यों? जवाब में गांधी जी खुद कहते हैं कि वे इन मुद्दों को केवल देश के किसानों और मजदूरों तक ही नहीं पहुंचाना चाहते, बल्कि वे शिक्षित भारत के साथ-साथ मद्रास प्रेसीडेंसी के लोगों से भी जुड़ना चाहते हैं और इसके लिए अंग्रेजी जरूरी है। 1922 तक यह पत्र 40,000 की साप्ताहिक बिक्री के आंकड़े तक पहुंच गया। 1919 से 1921 की अवधि में भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में उछाल के साथ-साथ उनके दो साप्ताहिकों के प्रसार में भारी वृद्धि देखी गई।

    1922 में यंग इंडिया में सरकार की आलोचना करने वाले तीन लेखों के प्रकाशन के बाद, गांधी जी पर राजद्रोह का आरोप लगाया गया। ये दोनों ही पत्रिकाएं अंततः 1932 में बंद कर दी गईं, जब गांधी जी को नमक सत्याग्रह के बाद जेल में डाला गया। यरवडा जेल में रहते हुए 1933 में उन्होंने साप्ताहिक ‘हरिजन’ का प्रकाशन शुरू कर दिया. उन्होंने अंग्रेजी, गुजराती और हिंदी में क्रमशः हरिजन, हरिजन-बंधु, हरिजन-सेवक की शुरुआत की। ये समाचार पत्र ग्रामीण क्षेत्रों में छुआछूत और गरीबी के खिलाफ उनके अस्त्र बने। इनके जरिये उन्होंने भारत में गांव की समृद्धि को राष्ट्रीय से जोड़ा. हरिजन में लम्बे समय तक कोई राजनीतिक लेख नहीं छपा. हरिजन का मुख्य उद्देश्य भारत की सामाजिक कुरीतियों को सामने लाना था. गाँधी जी ने आजादी के विभिन्न आन्दोलनों का ताकतवर प्रचार अपने पत्रों के माध्यम से किया. उन्होंने मीडिया का इस्तेमाल बड़ी ही चतुराई से किया. उनका मानना था कि प्रचार रक्षा का एक प्रमुख हथियार है. भारत छोड़ो आंदोलन से पहले गाँधी जी ने हरिजन को अंग्रेजी और आठ अन्य भारतीय भाषाओं में भी प्रकाशित किया, ताकि आन्दोलन की शुरआत से पहले और उसके दौरान भारतीय जनता तक उनके विचारों की पहुँच सुनिश्चित हो सके.

    मुनाफे के लिए नहीं, सेवा के लिए पत्रकारिता –गाँधी जी ने अपने इन पत्रों में कोई विज्ञापन प्रकाशित नहीं किया, फिर भी इसका दूर-दूर तक व्यापक प्रसार हुआ। उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि अखबार के लिए विज्ञापन लेना पत्रकारिता को बेचने जैसा है। वे मानते थे कि पत्रकारिता का खर्च पाठक संख्या बढ़ाकर निकालना चाहिए. विज्ञापन नहीं प्रकाशित करने की पालिसी के बावजूद गाँधी जी की कोई भी पत्रिका कभी घाटे में नहीं चलती थी.

    आज का मुनाफाखोर कॉर्पोरेट मीडिया जहाँ, जनपक्षधरता का अपना मौलिक कर्तव्य छोड़कर निर्लज्जतापूर्वकजनविरोधी सरकारों के महिमामंडन में लगा रहता है, वहीं इसके विपरीत गाँधी जी ने अपने अखबारों में कभी कोई सनसनीखेज समाचार नहीं चलाया. उनकी पत्रिका में सत्याग्रह, अहिंसा, खानपान, प्राकृतिक चिकित्सा, शिक्षा व्यवस्था, हिंदू-मुस्लिम एकता, छुआछूत मिटाने, सूत कातने, खादी, स्वदेशी, ग्रामीण अर्थव्यवस्था आदि विषयों पर लेख छपते थे. गांधी जी के लिए पत्रकारिता एक मिशन थी. उन्होंने लिखा था कि मैंने पत्रकारिता को एक मिशन के रूप में लिया है; उन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए, जिनको मैं जरूरी समझता हूँ और जो सत्याग्रह, अहिंसा व सत्य के अन्वेषण पर टिके हैं।

    गाँधी जी पत्रकारिता के माध्यम से जनता की कमजोरियों और बुराइयों को आत्‍मसुधार और आत्‍मचिंतन के माध्‍यम से दूर करना चाहते थे. जनता में स्‍वचेतना का निर्माण कर व्‍यापक जनमत तैयार करना उनका लक्ष्य था, वे आजादी के मूल्‍य को जीवन का मूल्‍य बनाना चाहते थे। इस कारण वे अपने पत्रों में निरंतर लिखते थे और जनता के विचार भी प्रकाशित करते थे. उन्होंने अपने पत्रों में संपादक को लिखे आलोचनात्मक पत्र भी न केवल छापे, बल्कि धैर्य के साथ उनका उत्तर भी दिया और सुसंगत रूप से अपना दृष्टिकोण सबके सामने रखा। गाँधी जी के बहु-प्रतिभाशाली सचिव महादेव देसाई ने उनकी काफी सहायता की, वे गुजराती और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में कुशल थे। गांधी जी के अन्य सहयोगियों स्वामी आनंद, काका कालेलकर, नरहरि पारिख आदि ने भी नवजीवन में योगदान दिया और गुजराती भाषा के अनुवादों को सही आकार दिया।
    वह पत्रकारिता में नैतिक मूल्यों की स्थापना का दौर था.

  • प्रगतिवादी कवि रामधारी सिंह दिनकर की 114 वीं जयंती पर विशेष

     राकेश बिहारी शर्मा – रामधारी सिंह ‘दिनकर’ एक प्रसिद्ध कवि, निबंधकार तथा देशभक्त थे। उनके द्वारा रचित कविताएं वीर रस से भरी हुई होती हैं। अपनी देशभक्ति को उन्होंने अपनी रचनाओं में दिखा कर के राष्ट्र को स्वतंत्र कराने के लिए लोगों को प्रेरित किया। “दिनकर” उनका उपनाम था और उनका वास्तविक नाम रामधारी सिंह था। वे हिंदी भाषा के महान कवियों में से एक थे। उनकी रचनाएं एनसीईआरटी व अन्य स्टेट शिक्षा बोर्ड की पाठ्य पुस्तकों में सम्मिलित की जाती है।

    रामधारी सिंह दिनकर का जन्म और परिवारिक जीवन

    हिंदी और मैथिली भाषा के सुविख्यात राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर का जन्म 23 सितंबर 1908 को बिहार के बेगुसराय जिला सिमरिया गांव में एक सामान्य किसान परिवार पिता रवि सिंह तथा माता मनरूप देवी के घर में हुआ। दिनकर जब वो दो साल के थे तभी उनके पिता रवि सिंह का निधन हो गया था। इसके बाद उनकी माता ने पूरे परिवार की जिम्मेदारी संभाली। परिवार में रामधारी के दो भाई और थे, जिनका नाम केदारनाथ सिंह और रामसेवक सिंह था। दिनकर और उनके भाई-बहनों का पालान-पोषण उनकी विधवा माता ने ही किया। दिनकर का बचपन और कैशोर्य देहात में बीता, जहाँ दूर तक फैले खेतों की हरियाली, बांसों के झुरमुट, आमों के बगीचे और कांस के विस्तार थे। प्रकृति की इस सुषमा का प्रभाव दिनकर के मन में बस गया, पर शायद इसीलिए वास्तविक जीवन की कठोरताओं का भी अधिक गहरा प्रभाव पड़ा।

    दिनकर का शिक्षा,शादी और बरबीघा के संस्थापक प्रधानाध्यापक

    दिनकर जी का प्रारंभिक शिक्षा संस्कृत के एक पंडित के पास प्रारंभ हुई। दिनकर जी ने अपने गाँव के प्राथमिक विद्यालय से प्राथमिक शिक्षा प्राप्त की एवं निकटवर्ती बोरो नामक ग्राम में राष्ट्रीय मिडल स्कूल जो सरकारी शिक्षा व्यवस्था के विरोध में खोला गया था, में प्रवेश प्राप्त किया। यहीं से इनके मनो मस्तिष्क में राष्ट्रीयता की भावना का विकास होने लगा था। हाई स्कूल की शिक्षा इन्होंने मोकामाघाट हाई स्कूल से प्राप्त की। इसी बीच इनका विवाह श्यामावती के साथ हुआ तथा ये एक पुत्र के पिता भी बन गये थे। 1928 में मैट्रिक के बाद दिनकर ने पटना विश्वविद्यालय से 1932 में इतिहास में बी. ए. ऑनर्स किया। पटना विश्वविद्यालय से बी. ए. ऑनर्स करने के बाद अगले ही वर्ष दिनकर जी 03 जनवरी 1933 को उच्च विद्यालय बरबीघा के संस्थापक प्रधानाध्यापक बने थे तथा ये 21 जुलाई 1934 तक रहे। रामधारी सिंह दिनकर उच्च विद्यालय में प्रधानाध्यापक पद पर रहते हुए 60 रुपये महीने की नौकरी की थी तथा अन्य तरह के कटौती करते हुए 41 रुपैया 10 आना और तीन पैसा उनको महीने का दिया जाता था। यहां से फिर वे शेखपुरा जिला मुख्यालय के कटरा चौक स्थित कार्यालय में रजिस्ट्रार की नौकरी की। इस कार्यलय में 8 सालों तक अपनी सेवा दी थी।

    उच्च विद्यालय बरबीघा में मध्यान भोजन की रखी थी नींव

    राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने बरबीघा उच्च विद्यालय में नौकरी करते हुए मध्यान भोजन की आधारशिला रख दी थी जो आज भी लागू है। प्रसंग यह था कि एक छात्र टिफिन के दौरान खाने के लिए घर चला गया और लेट से लौटकर आया तो शिक्षक ने उसकी पिटाई कर दी। इससे मर्माहत होकर रामधारी सिंह दिनकर ने टिफिन के समय स्कूल में ही हल्के नाश्ते की व्यवस्था कर दी। जिसमें चना, चूड़ा, भूंजा इत्यादि शामिल था जो आज तक चल रहा है। रामधारी सिंह दिनकर की याद में बरबीघा उच्च विद्यालय के प्रांगण में दिनकर जी की आदमकद प्रतिमा का उद्घाटन बिहार के मुख्यमंत्री माननीय नीतीश कुमार के द्वारा सेवा यात्रा के दौरान किया गया था।

    दिनकर जी ने बरबीघा से संसद भवन तक की सफर तय की

    दिनकर जी ने उच्च विद्यालय बरबीघा से संसद भवन दिल्ली तक की यात्रा की। बावजूद वे बिहार की धरती बरबीघा को नहीं भूले। दिनकर गरीब किसानों, मजदूरों और देश के लिए लड़ने वाले जवानों के लिए लिखे हैं। जो कवि जनता को प्यार नहीं करता, जनता भी उसे भुला देती है। रामधारी सिंह दिनकर भारतीय संस्कृति, समाज और राष्ट्रीयता के महाकवि थे। उनकी रचनाओं की प्रासांगिक आज भी है। दिनकर जी एक साधारण शिक्षक से लेकर पद्म विभूषण की उपाधि तक का सफर किया। हिंदी साहित्य के साहित्य-चूड़ामणि रामधारी सिंह दिनकर जी एक सफल आदर्श शिक्षक, प्रखर लेखक, सुविख्यात कवि और प्रकांड निबंधकार थे।

    दिनकर जी प्राध्यापक से राज्यसभा का सदस्य तक बने

    1947 में देश स्वाधीन हुआ और वह बिहार विश्वविद्यालय में हिन्दी के प्राध्यापक व विभागाध्यक्ष नियुक्त होकर मुज़फ़्फ़रपुर पहुंचे। वर्ष 1950 से 1952 तक लंगट सिंह कालेज में हिन्दी के विभागाध्यक्ष रहे। भागलपुर विश्वविद्यालय के उपकुलपति के पद पर भी काम किया था। वर्ष 1952 में जब भारत की प्रथम संसद का निर्माण हुआ, तो उन्हें राज्यसभा का सदस्य चुना गया और वह दिल्ली आ गए। दिनकर 12 वर्ष तक संसद-सदस्य रहे, बाद में उन्हें सन 1964 से 1965 ई. तक भागलपुर विश्वविद्यालय का कुलपति नियुक्त किया गया। लेकिन अगले ही वर्ष भारत सरकार ने उन्हें 1965 से 1971 ई. तक अपना हिन्दी सलाहकार नियुक्त किया और वह फिर दिल्ली लौट आए।

    दिनकर ने अपने कविताओं में ऐतिहासिक पात्रों और घटनाओं को पिरोया

    ’दिनकर’ की कविता को एक नये शिखर पर पहुँचा दिया है। भले ही सर्वोच्च शिखर न हो, दिनकर के कृतित्त्व की गिरिश्रेणी का एक सर्वथा नवीन शिखर तो है ही। हिन्दी साहित्य संसार में एक ओर उसकी कटु आलोचना और दूसरी ओर मुक्तकंठ से प्रशंसा हुई। धीरे-धीरे स्थिति सामान्य हुई इस काव्य-नाटक को दिनकर की ‘कवि-प्रतिभा का चमत्कार’ माना गया। दिनकर जी ने सामाजिक और आर्थिक समानता और शोषण के खिलाफ कविताओं की रचना की। एक प्रगतिवादी और मानववादी कवि के रूप में उन्होंने ऐतिहासिक पात्रों और घटनाओं को ओजस्वी और प्रखर शब्दों का तानाबाना दिया। कवि रामाधारी सिंह दिनकर ने इस वैदिक मिथक के माध्यम से देवता व मनुष्य, स्वर्ग व पृथ्वी, अप्सरा व लक्ष्मी और अध्यात्म के संबंधों का अद्भुत विश्लेषण किया है।

  • भोला पासवान शास्त्री की 108 वीं जयंती पर विशेष

    राकेश बिहारी शर्मा- आज हम इक्कीसवीं सदी के वैश्वीकरण एवं उत्तर आधुनिकता के युग में प्रवेश कर चुके हैं और एक ऐसे वातावरण में जीवन बिता रहे हैं जिसमें भौतिकवादिता, आधुनिकता, व्यक्तिगत ईर्ष्या, जातिगत द्वेष और क्षेत्रीयता आदि की भावना चारों ओर दिखलाई पड़ रही है। भारतीय समाज में परम्पराओं एवं रूढ़िवादिताओं का आधिपत्य रहने से, अंदर से यह व्यवस्था अनेक जटिलताओं से घिर चुकी है।

    एक तरफ आर्थिक सामाजिक विकास की चाह व दूसरी तरफ परम्परागत रूढ़िवादी मूल्य। अतः अब समय आ गया है कि बुद्धिजीवी इस तरह के कार्यों को न करें और शोषित वर्ग अपनी भूमिका को इस ओर ईमानदारी से निर्वाह करने की कोशिश करें। भूमण्डलीकरण की प्रक्रिया में मानव, मानव होगा न कि शोषित व सवर्ण के रूप में पहचाना जायेगा।

    आवश्यकता अविष्कार की जननी होती है, आज पारम्परिक सामाजिक व्यवस्था में परिवर्तन समय की मांग है। जिसमें वर्ग भेद खत्म होगा और कोई भी दीन-हीन नहीं होगा। निश्चय ही अच्छे कार्यों को अपनाकर, सामाजिक मूल्यों को मानकर, एक स्वच्छ परम्परा की नींव डालकर भारतीय समाज सुनहरे भविष्य की ओर अग्रसर करने के लिए भोला पासवान शास्त्री का प्रादुर्भाव हुआ।

    19वीं-20 वीं सदी में ओबीसी और दलित जातियों के अनेक नेता उभरे, जिन्होंने विशेषकर उत्तरप्रदेश व बिहार में सामाजिक और राजनैतिक क्षेत्रों में निर्णायक भूमिकाएं अदा कीं। इनमें से कुछ राज्य सरकारों के मुखिया भी बने। दक्षिण भारत-उदाहरणार्थ तमिलनाडू-में शोषित नेताओं के उदय के काफी समय बाद, भारत में इन नेताओं को राजनीति में महत्वपूर्ण स्थान मिल सका। शोषित नेता कुछ ऐसी सामाजिक-सांस्कृतिक प्रक्रियाओं की उपज थे, जिनकी शुरूआत सन 1950 के दशक से मानी जा सकती है।

    उनके उदय के पीछे थी तीन राजनीतिक विचारकों- बी.आर. आंबेडकर, राम मनोहर लोहिया की विरासत। ये नेता इन राजनीतिक विचारकों के जीवन, सोच और राजनीतिक रणनीतियों से प्रेरणा ग्रहण करते थे। भारत के उन उपेक्षित और शोषित नेताओं, जिन्होंने राजनीति पर गहरा प्रभाव डाला, में उत्तरप्रदेश के चरण सिंह, मुलायम सिंह यादव और मायावती और बिहार के भोला पासवान शास्त्री, कर्पूरी ठाकुर, लालू प्रसाद यादव, नीतीश कुमार और रामविलास पासवान शामिल है।

    बिहार के हो ची मिन्ह कहे जाने वाले आदर्श व्यक्तित्व भोला पासवान शास्त्री एक ऐसा राजनेता जो राज्यसभा में नेता प्रतिपक्ष रहे, केन्द्र में मंत्री और चार बार विधानसभा में विपक्ष के नेता व पहली बार अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति आयोग बना तो वो उसके पहले चेयरमैन भी रहे थे।

    भोला पासवान शास्त्री जी एक बेहद ईमानदार और देशभक्त स्वतंत्रता सेनानी थे। वह महात्मा गांधी से प्रभावित होकर स्वतंत्रता संग्राम के दौरान सक्रिय हुए थे। बहुत ही गरीब परिवार से आने के बावजूद वह बौद्धिक रूप से काफी सशक्त थे। कांग्रेस पार्टी ने उन्हें तीन बार अपना नेता चुना और वह तीन बार अखंड बिहार के मुख्यमंत्री बनाये गये थे।

    भोला पासवान शास्त्री का जन्म और शिक्षा

    भोला पासवान शास्त्री का जन्म 21 सितंबर 1914 को बिहार के पूर्णिया जिले के केनगर प्रखंड में पंचायत गणेशपुर के बैरगाछी गांव में एक साधारण दलित दुसाध जाति के परिवार में हुआ। इनके पिता का नाम धुसर पासवान था ये दरभंगा महाराज के यहाँ सिपाही की नौकरी करते थे। भोला पासवान अपने गांव बैरगाछी में संस्कृत पाठशाला में पढ़े और आगे बढ़े थे। दरभंगा संस्कृत विवि से शास्त्री की डिग्री लेने के कारण उनकी टाइटिल में शास्त्री लगा था। शास्त्री जी नेहरू जी के निकटतम नेता थे और वे बाबा साहब अम्बेडकर के नेहरू जी से मतान्तर होने के बाजजूद नेहरू जी के साथ रहे। बिहार में उनका तीन मुख्यमंत्रीत्व काल रहा। एक गरीब दुसाध परिवार में जन्मे भोला पासवान शास्त्री, प्रतिबद्ध समाजवादी थे।

    भोला पासवान शास्त्री का राजनैतिक जीवन

    भोला पासवान शास्त्री सभी वर्गों के रहनुमा थे। वे केवल दलितों के नहीं बल्कि अकलियतों और पिछड़ों सहित सभी वर्गों के नेता थे। उन्होंने सभी के लिए बगैर भेदभाव के काम किया। शास्त्री जी की ईमानदारी अतुलनीय ही नहीं अनुकरणीय भी है। बिहार में भोला पासवान शास्त्री आठवें सीएम थे और उनका तीन मुख्यमंत्रीत्व काल रहा है। फरवरी 1968 से जून 1968 और जून 1969 से जुलाई 1969 फिर जून 1971 से जनवरी 1972 तक। बिहार में व्यक्तित्वों की विविधता रही है और उसी कड़ी के एक विशेष व्यक्तित्व रहे हैं स्वर्गीय भोला पासवान शास्त्री जी। भोला पासवान शास्त्री को बिहार की राजनीति का विदेह कहा जाता है। भोला पासवान शास्त्री सादा जीवन और उच्च विचार एवं व्यक्तित्व के धनी थे और जीवनपर्यंत हमेशा सादगी से जीते रहे। उन्होंने कभी भी निजी तौर पर धन नहीं बनाया और इसी कारण से बिहार की राजनीति के वे विदेह कहे गए। वे 1972 में राज्यसभा सांसद भी मनोनीत हुए और केन्द्र सरकार में मंत्री भी बने थे।

    भोला पासवान शास्त्री ने अपने लिए नहीं जमा की कोई संपत्ति

    भोला पासवान शास्त्री ने मिसाल पेश करते हुए पूर्णिया अथवा अपने गांव बैरगाछी में कोई संपत्ति जमा नहीं की और आम आदमी की तरह सादगीपूर्ण जीवन व्यतीत किया। यहां तक लाभ के पद से परिजनों को भी दूर रखा। उनका गांव घर और उनके परिजन आज भी सामान्य जिंदगी जी रहे हैं। वे मंत्री और मुख्यमंत्री रहते हुए भी पेड़ के नीचे जमीन पर बैठने में भी संकोच नहीं करते थे और वहीं जमीन पर बैठकर अधिकारियों से मीटिंग कर शासकीय संचिकाओं का निपटारा भी कर दिया करते थे। अब बिहार की राजनीति में ऐसे ‘विदेह’ की मौजूदगी, सिर्फ शब्दों, भावों, फूलों और आयोजनों और उनके विचारों को याद करने तक ही सिमट कर रह गई है।