Category: डॉक्यूमेंट्री

  • भारत रत्न मौलाना अबुल कलाम आज़ाद की 134 वीं जयंती पर विशेष

    राकेश बिहारी शर्मा – आधुनिक भारत के इतिहास के महान विभूतियों में शामिल मौलाना अबुल कलाम आज़ाद ने जीवन पर्यंत देश की सेवा की। भारत रत्न मौलाना अबुल कलाम आज़ाद का असली नाम अबुल कलाम ग़ुलाम मुहियुद्दीन था। वे मौलाना आज़ाद के नाम से मशहूर थे।
    मौलाना अबुल कलाम आजाद एक कवि, एक विद्वान, एक पत्रकार और एक स्वतंत्रता सेनानी के रूप में याद किए जाते है, जिनका सबसे बड़ा योगदान अभी भी शिक्षा का उपहार है। मौलाना आज़ाद जी बहुभाषीय जानकर थे, जैसे अरबिक, इंग्लिश, उर्दू, हिंदी, पर्शियन और बंगाली भाषा में भी निपुण थे। मौलाना आज़ाद किसी भी मुद्दे पर बहस करने में दक्ष थे। उन्होंने धर्म के एक संकीर्ण दृष्टिकोण से मुक्ति पाने के लिए अपना उपनाम “आज़ाद” रख लिया था। राष्ट्र के प्रति उनके अमूल्य योगदान के लिए मौलाना अबुल कलाम आज़ाद को मरणोपरांत 1992 में भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से सम्मानित किया गया।

    अबुल कलाम आज़ाद का जन्म, परिवारिक जीवन एवं शिक्षा

    भारत रत्न मौलाना अबुल कलाम आज़ाद का जन्म 11 नवंबर 1888 को मक्का में हुआ था। उनके परदादा बाबर के ज़माने में अफ़ग़ानिस्तान के एक शहर हेरात से भारत आये थे। आज़ाद एक पढ़े लिखे मुस्लिम विद्वानों या मौलाना वंश में जन्मे थे। उनकी माता अरब देश के शेख मोहम्मद ज़हर वत्री की पुत्री थीं और पिता मौलाना खैरुद्दीन अफगान मूल के एक बंगाली मुसलमान थे। खैरुद्दीन ने सिपाही विद्रोह के दौरान भारत छोड़ दिया और मक्का जाकर बस गए। जब 2 साल के थे आजाद 1890 में वह अपने परिवार के साथ कलकत्ता वापस आ गए थे।
    उनकी आरंभिक शिक्षा इस्लामी तौर तरीकों से हुई। घर पर या मस्ज़िद में उन्हें उनके पिता तथा बाद में अन्य विद्वानों ने पढ़ाया। इस्लामी शिक्षा के अलावा उन्हें दर्शनशास्त्र, इतिहास तथा गणित की शिक्षा भी अन्य गुरुओं से मिली। आज़ाद ने उर्दू, फ़ारसी, हिन्दी, अरबी तथा अंग्रेजी़ भाषाओं में महारथ हासिल की। मौलाना अबुल कलाम आजाद जब सिर्फ 12 साल के थे, तब उन्होंने किताबें लिखनी शुरु कर दी थी। सत्रह वर्ष की अवस्था में 1905 में वह उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए मिस्र गए और काहिरा के अल-अजहर विश्वविद्यालय में दो वर्ष तक शिक्षा प्राप्त की। वहां भी उन्होंने अपनी प्रतिभा की जबर्दस्त धाक जमाई। उनके शिक्षक उनके बारे में कहा करते थे- “वह पैदायशी आलिम है।” साथ ही युवा अवस्था से ही वे पत्रकार के तौर पर काम करने लगे थे। उन्होंने कई समाचार पत्रों में काम किया था। इस दौरान वे राजनीति से जुड़े हुए अपने कई लेखों को भी प्रकाशित करवाते रहते थे।
    मौलाना आजाद ने ”अल-मिस्वाह” के संपादक के तौर पर भी काम किया था। इसके अलावा मौलाना आजाद में अपने कई लेख ब्रिटिश राज के खिलाफ प्रकाशित किए थे। मौलाना आजाद छात्र जीवन में ही अपना पुस्तकालय चलाना शुरू कर दिया, साथ ही एकडिबेटिंग सोसायटी की भी शुरुआत की थी। उस दौरान वे अपनी दोगुनी उम्र वाले छात्रों को पढ़ाते थे, दरअसल उन्हें लगभग सभी परंपरागत विषयों का ज्ञान हो गया था।

    अबुल कलाम आजाद का राजनैतिक सफर

    मौलाना अबुल कलाम आज़ाद को असहयोग आन्दोलन से लेकर 1942 तक के भारत छोड़ो आन्दोलन तक कई बार उन्हें गिरफ्तार किया गया। असहयोग आन्दोलन में उन्होंने आगे बढकर भाग लिया था। वर्ष 1923 और 1940 में दो बार भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गये थे। वर्ष 1945 में रिहाई के बाद उन्होंने ब्रिटिश सरकार के प्रतिनिधियों से समझौता वार्ता में भाग लिया और स्वतंत्रता के बाद उन्हें भारत के प्रथम शिक्षा मंत्री बनाया गया। मौलाना आजाद सहिष्णु विचारो के धनी व्यक्ति थे। उनकी मान्यता थी कि जब सब धर्म एक ही परमेश्वर की प्राप्ति का मार्ग है तो उसमें संघर्ष क्यों हो। अबुल कलाम बड़े ही प्रभावशाली वक्ता और उर्दू भाषा के उच्च कोटि के लेखक थे। उनकी पुस्तके उर्दू गध्य का आदर्श मानी जाती है। अंग्रेजी में भी उन्होने ख़ास महत्वपूर्ण लेखन किया।
    आजाद अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ़ थे। उन्हेंने अंग्रेजी सरकार को आम आदमी के शोषण के लिए जिम्मेवार ठहराया। उन्होंने अपने समय के मुस्लिम नेताओं की भी आलोचना की जो उनके अनुसार देश के हित के समक्ष साम्प्रदायिक हित को तरज़ीह दे रहे थे। अन्य मुस्लिम नेताओं से अलग उन्होने 1905 में बंगाल के विभाजन का विरोध किया और ऑल इंडिया मुस्लिम लीग के अलगाववादी विचारधारा को खारिज़ कर दिया। आजाद ने क्रांतिकारी गतिविधियों में भाग लेना आरंभ किया और उन्हें श्री अरबिन्दो और श्यामसुन्हर चक्रवर्ती जैसे क्रांतिकारियों से समर्थन मिला। आज़ाद की शिक्षा उन्हे एक किरानी बना सकती थी पर राजनीति के प्रति उनके झुकाव ने उन्हें पत्रकार बना दिया। उन्होने 1912 में एक उर्दू पत्रिका अल हिलाल का सूत्रपात किया। उनका उद्येश्य मुसलमान युवकों को क्रांतिकारी आन्दोलनों के प्रति उत्साहित करना और हिन्दू-मुस्लिम एकता पर बल देना था। उन्होने कांग्रेसी नेताओं का विश्वास बंगाल, बिहार तथा बंबई में क्रांतिकारी गतिविधियों के गुप्त आयोजनों द्वारा जीता। उन्हें 1920 में राँची में जेल की सजा भुगतनी पड़ी।

    वर्ष 1930 के आंदोलन में जब कांग्रेस के अध्यक्ष पंडित जवाहरलाल नेहरू को अंग्रेज सरकार ने गिरफ्तार कर लिया, तब मौलाना आजाद को उनकी जगह कांग्रेस अध्यक्ष नामजद किया गया। लेकिन कुछ समय के बाद ही उन्हें भी गिरफ्तार कर लिया गया। मौलाना आज़ाद की बुद्धिमत्ता और दूरदर्शिता बड़ी असाधारण थी। इसीलिए प्रायः हर बात में गांधीजी उनकी सलाह लिया करते थे। राजनीति की बारीकियों को मौलाना बखूबी समझते थे। इसीलिए 1937 में भारत के आठ प्रांतों में कांग्रेस मंत्रिमंडलों की स्थापना होने पर, उनकी सहायता के लिए कांग्रेस ने जो समिति बनाई, उसमें बाबू राजेंद्र प्रसाद और सरदार बल्लभभाई पटेल के अलावा मौलाना आज़ाद को भी रखा गया था। इस समिति के सदस्य की हैसियत से उन्होंने उत्तर प्रदेश के शिया और सुन्नी मुसलमानों के झगड़े को समाप्त किया। बिहार में किसानों और जमींदारों के बीच समझौता कराया और दुसरे प्रांतों में भी इसी तरह के कई झगड़े समाप्त कराने में सहायता पहुंचाई। वर्ष 1942 में जब कांग्रेस ने “भारत छोड़ो” आंदोलन आरंभ किया, तब मौलाना आज़ाद भी अन्य नेताओं के साथ गिरफ्तार कर लिए गए और उन्हें अहमदनगर के किले में कैद कर दिया गया। किंतु इसी कारावास काल में उन्हें अपनी अत्यधिक प्रिय पत्नी से हाथ धोना पड़ा। उनकी पत्नी का उन्हीं दिनों देहांत हो गया।
    कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर मौलाना आज़ाद छः वर्ष तक रहे। इतने दिनों तक कोई भी व्यक्ति कांग्रेस का अध्यक्ष नहीं रहा। वर्ष 1947 में देश के विभाजन और स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् मौलाना आज़ाद को भारत सरकार के शिक्षा मंत्री का पद दिया गया। इस पद पर वह लगातार ग्यारह वर्ष तक रहे और उन्होंने अपनी अंतिम सांस तक देश की सेवा की।

    पाकिस्तान के गठन के विरोध में थे मौलाना अबुल कलाम आजाद:

    गांधीवादी विचारधारा वाले मौलाना अबुल कलाम आजाद ने हिन्दू मुस्लिम एकता के लिए काफी काम किए। वे धर्म के आधार पर नए देश पाकिस्तान के गठन के काफी विरोध में थे एवं वे नहीं चाहते थे कि पाकिस्तान का गठन हो, इसलिए भारत-पाक विभाजन के समय उन्होंने इसका काफी विरोध भी किया था। वहीं भारत-पाकिस्तान के बंटवारे के दौरान उन्होंने भारत में मुस्लिम समुदिय की रक्षा की जिम्मेदारी ली। इसके साथ ही वे इस दौरान पंजाब, असम, बिहार, और बंगाल समेत कई जगहों पर गए और लोगों के लिए रिफ्यूजी कैंप लगाए और उनके लिए खाने की भी उचित व्यवस्था की और उनकी सुरक्षा का पूरा ख्याल रखा।

    अबुल कलाम आजाद का तकनीकी शिक्षा और महिला शिक्षा पर जोर

    आजादी के बाद मौलाना अबुल कलाम आजाद को कैबिनेट स्तर के पहले शिक्षा मंत्री बनने का गौरव प्राप्त हुआ जहां उन्होंने शिक्षा और संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए उत्कृष्ट संस्थानों की स्थापना की और अनेक उपलब्धियां भी हासिल की। जिस शिक्षा के अधिकार को लेकर वर्तमान सरकार इतरा रही है, केन्द्रीय सलाहकार शिक्षा बोर्ड के अध्यक्ष होने के नाते और एक शीर्ष निकाय के तौर पर अबुल कलाम आजाद ने सरकार से केन्द्र और राज्यों दोनों के अलावा विश्वविद्यालयों में, खासतौर पर सार्वभौमिक प्राथमिक शिक्षा, 14 वर्ष तक की आयु के सभी बच्चों के लिए नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा, लड़कियों की शिक्षा, व्यावसायिक प्रशिक्षण और तकनीकी शिक्षा जैसे सुधारों की सिफारिश की थी। वर्तमान शिक्षा पद्धति में काफी दोष हैं, इसमें दिखावा तो खूब है लेकिन वास्तविक शिक्षा के नाम पर कुछ भी नहीं। अगर हम पिछले 60 सालों का इतिहास देखें तो ऐसा कोई भी शिक्षा मंत्री नहीं रहा जिसने भारतीय शिक्षा पद्धति में अमूलचूल परिवर्तन किया हो। लेकिन भारत के पहले शिक्षा मंत्री मौलाना अबुल कलाम आजाद उन सबसे अलग थे।
    भारत के पहले शिक्षा मंत्री बनने पर अबुल कलाम आजाद ने नि:शुल्क शिक्षा, भारतीय शिक्षा पद्धति, उच्च शिक्षा संस्थानों की स्थापना में महत्वपूर्ण योगदान दिया। उन्होंने शिक्षा और संस्कृति को विकसित करने के लिए संगीत नाटक अकादमी (1953), साहित्य अकादमी (1954) और ललित कला अकादमी (1954) जैसी उत्कृष्ट संस्थानों की स्थापना की. मौलाना मानते थे कि ब्रिटिश शासन के दौरान भारतीय शिक्षा में सांस्कृतिक सामग्री काफी कम रही और इसे पाठयक्रम के माध्यम से मजबूत किए जाने की जरूरत है।
    तकनीकी शिक्षा के मामले में अबुल कलाम आजाद ने 1951 में अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद (खड़गपुर) की स्थापना की गई और इसके बाद श्रृंखलाबद्ध रूप में मुंबई, चेन्नई, कानपुर और दिल्ली में आईआईटी की स्थापना की गई. स्कूल ऑफ प्लानिंग और वास्तुकला विद्यालय की स्थापना दिल्ली में 1955 में हुई। इसके अलावा मौलाना आजाद को ही ‘विश्वविद्यालय अनुदान आयोग’ की स्थापना का श्रेय जाता है. वह मानते थे कि विश्वविद्यालयों का कार्य सिर्फ शैक्षिक कार्यों तक ही सीमित नहीं है बल्कि इसके साथ-साथ उनकी समाजिक जिम्मेदारी भी बनती है। उन्होंने अंग्रेजी के महत्व को समझा तो सही लेकिन फिर भी वे प्राथमिक शिक्षा को मातृभाषा हिन्दी में प्रदान करने के हिमायती थे। वह प्रौढ़ शिक्षा के क्षेत्र में भी अग्रणी रहे।
    मौलाना अबुल कलाम जी संपूर्ण भारत में 10+2+3 की समान शिक्षा संरचना के पक्षधर रहे थे। यदि वे आज ज़िंदा होते तो वे नि:शुल्क शिक्षा के अधिकार विधेयक को संसद की स्वीकृति के लिए दी जाने वाली मंत्रिमंडलीय मंजूरी को देखकर बेहद प्रसन्न होते। शिक्षा का अधिकार विधेयक के अंतर्गत नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा एक मौलिक अधिकार है। उन्होंने शिक्षा और संस्कृति को विकसित करने के लिए उत्कृष्ट संस्थानों की स्थापना की।
    वर्तमान समय में तो देश में कुकरमुत्ते की तरह शैक्षिक संस्थान खुलते जा रहे हैं लेकिन ये संस्थान प्राणहीन मूर्ति के समान हैं। यहां थोड़ा अक्षर ज्ञान जरूर मिल जाता है और बाकी के ज्ञान के नाम पर ये सभी संस्थाएं प्रमाण-पत्र बांटने का काम कर रही हैं। पैसा दीजिए, और प्रमाण पत्र लीजिए इस तरह की व्यवस्था समाज में उत्पन्न हो रही है जो किसी भी मायने में सही नहीं कही जा सकती।

    मौलाना अबुल कलाम जी हिन्दू-मुस्लिम एकता के प्रबल समर्थक

    भारत रत्न मौलाना अबुल कलाम आजाद सच्चे राष्ट्रभक्त, एक कुशल वक्ता तथा महान् विद्वान् थे। पुराने एवं नये विचारों में अद्‌भुत सामंजस्य रखने वाले हिन्दू-मुस्लिम एकता के प्रबल समर्थक थे। देश सेवा और इस्लाम सेवा दोनों को एक्-दूसरे का पूरक मानते थे। हिन्दू और मुस्लिम दोनों ही संस्कृतियों के अनूठे सम्मिश्रण की वे एक मिसाल थे। राष्ट्रीय जीवन की मुख्य धारा के समर्थक मौलाना आजाद देश की मिली जुली संस्कृति के उदाहरण थे। “बहुत सारे लोग पेड़ लगाते हैं, लेकिन उनमें से कुछ को ही उसका फल मिलता है। दिल से दी गयी शिक्षा समाज में क्रांति ला सकता है”।

    अबुल कलाम आजाद द्वारा लिखी गईं प्रमुख किताबें–
    हमारी आजादी, खतबाल-ल-आजाद, गुब्बा रे खातिर, तजकरा, हिज्र-ओ-वसल, तजकिरह आदी, तर्जमन-ए-कुरान इत्यादि प्रमुख थे।

  • जंग-ए-आजादी के महानायक अशफाक उल्ला खां की 122 वीं जयंती पर विशेष

    राकेश बिहारी शर्मा – कई क्रांतिकारियों के नाम जोड़े में लिए जाते हैं जैसे भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद और राजगुरू। ऐसा ही एक और बहुत मशहूर जोड़ा है रामप्रसाद बिस्मिल और अशफाक उल्ला खां का। इसका आशय सिर्फ ये नहीं कि काकोरी कांड में यही दोनों मेन आरोपी थे। बल्कि इसका आशय था कि दोनों एक-दूसरे को जान से भी ज्यादा चाहते थे। दोनों ने जान दे दी, पर एक-दूसरे को धोखा नहीं दिया। रामप्रसाद बिस्मिल के नाम के आगे पंडित जुड़ा था। वहीं अशफाक थे मुस्लिम, वो भी पंजवक्ता नमाजी। पर इस बात का कोई फर्क दोनों पर नहीं पड़ता था। क्योंकि दोनों का मकसद एक ही था। आजाद मुल्क। वो भी मजहब या किसी और आधार पर हिस्सों में बंटा हुआ नहीं, पूरा का पूरा। इनकी दोस्ती की मिसालें आज भी दी जाती है। अशफाक उल्ला खां तो भारत के प्रसिद्ध अमर शहीद क्रांतिकारियों में से एक माना जाता है। वे उन वीरों में से एक थे, जिन्होंने देश की आजादी के लिए हंसते-हंसते अपने प्राणों का बलिदान दे दिया। अपने पूरे जीवन काल में अशफाक, हमेशा हिन्दू-मुस्लिम एकता के पक्षधर रहे।

    अशफाक उल्ला खां का जन्म और पारिवारिक व सामाजिक जीवन

    अशफाक उल्ला खां का जन्म 22 अक्टूबर 1900 ई. में उत्तरप्रदेश के शाहजहांपुर स्थित शहीदगढ़ में हुआ था। उनके पिता का नाम मोहम्मद शफीक उल्ला खान और उनकी मां का नाम मजहूरुन्न्िानशां बेगम था। ये अपने माता-पिता के छह संतानों में से सबसे छोटे थे। इनके पिता पुलिस विभाग में कार्यरत थे। वे पठान परिवार से ताल्लुक रखते थे और उनके परिवार में लगभग सभी सरकारी नौकरी में थे। बाल्यावस्था में अशफाक का मन पढ़ाई में नहीं लगता था। बल्कि उनकी रुचि तैराकी, घुड़सवारी, निशानेबाजी में अधिक थी। बाल्यावस्था में वे उभरते हुए शायर के तौर पर पहचाने जाते थे। पर घर में जब भी शायरी की बात चलती, उनके एक बड़े भाईजान अपने साथ पढ़ने वाले रामप्रसाद बिस्मिल का जिक्र करना नहीं भूलते। इस तरह से किस्से सुन-सुनकर अशफाक रामप्रसाद के फैन हो गए थे। अशफाक उल्ला खां को कविताएं लिखने का काफी शौक था, जिसमें वे अपना उपनाम हसरत लिखा करते थे। 25 साल की उम्र में अशफाक ने अपने क्रांतिकारी साथियों के साथ मिलकर ब्रिटिश सरकार की नाक के नीचे से सरकारी खजाना लूट लिया था। इस कांड में राम प्रसाद बिस्मिल, ठाकुर रोशन सिंह और राजेंद्र नाथ लाहिड़ी को फांसी की सजा हो गई और सचिंद्र सान्याल और सचिंद्र बख्शी को कालापानी की सजा सुनाई गई थी। बाकी क्रांतिकारियों को 4 साल से 14 साल तक की सजा सुनाई गई थी।

    क्रांतिकारी अशफाक उल्ला खां को पढ़ने-लिखने में नहीं लगता था मन

    अशफाक उल्ला खां का बचपन से ही पढ़ने-लिखने में मन नहीं लगता था। उन्हें तैराकी करना, बंदूक लेकर शिकार पर जाना ज्यादा पसंद था। देश की भलाई के लिए किए जाने वाले आन्दोलनों की कथाओं / कहानियों को पढ़ने में बढ़चढ़ कर हिस्सा लेते थे। उन्होंने कई बेहतरीन कविताएं लिखीं थी। जिसमें वह अपना उपनाम हसरत लिखा करते थे। वह अपने लिए कविता लिखते थे, उन्होंने कभी अपनी कविताओं को प्रकाशित करवाने का कोई चेष्टा नहीं की। क्रांतिकारी उनकी लिखी कविताएं अदालत आते-जाते समय अक्सर ‘काकोरी कांड’ में गाया करते थे।

    अशफाक उल्ला खां का देश के क्रांतिकारियों से सम्पर्क

    जिस समय महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन का नेतृत्व किया था उस समय अशफाक उल्ला खाँ एक स्कूली छात्र थे। लेकिन इस आंदोलन का अशफाक पर काफी प्रभाव पड़ा जिसने इन्हें स्वतंत्रता सेनानी बनने के लिए प्रेरित किया। चौरी-चौरा की घटना के बाद, महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन को स्थगित कर भारत के युवाओं को निराशाजनक स्थिति में छोड़ दिया था। अशफाक उल्ला उनमें से एक थे। असफाक उल्ला खाँ ने जल्द से जल्द भारत को स्वतंत्र कराने की ठान ली थी और ये क्रांतिकारियों से जुड़ गए। देश में आजादी के किये चल रहे आंदोलनों और क्रांतिकारी घटनाओं से काफी प्रभावित अशफाक के मन में भी क्रांतिकारी भाव जागे और उसी समय मैनपुरी षड्यंत्र के मामले में शामिल रामप्रसाद बिस्मिल से हुई और वे भी क्रांति की दुनिया में शामिल हो गए। इसके बाद वे ऐतिहासिक काकोरी कांड में सहभागी रहे और पुलिस के हाथ भी नहीं आए। इस घटना के बाद वे बनारस आ गए और इंजीनियरिंग कंपनी में काम शुरू किया। उन्होंने कमाए गए पैसे से कांतिकारी साथियों की मदद भी की। काम के संबंध में विदेश जाने के लिए वे अपने एक पठान मित्र के संपर्क में आए, जिनके उनके साथ छल किया और पैसों के लालच में अंग्रेज पुलिस को सूचना देकर अशफाक उल्ला खां को पकड़वा दिया। उनके पकड़े जाने के बाद जेल में उन्हें कई तरह की यातनाएं दी गई और सरकारी गवाह बनाने की भी कोशिश की गई। परंतु अशफाक ने इस प्रस्ताव को कभी मंजूर नहीं किया। देश की गुलामी की जंजीरों को तोड़ने के लिए हंसते−हंसते फांसी का फंदा चूमने वाले अशफाक उल्ला खान जंग−ए−आजादी के महानायक थे।
    शंखनाद के अध्यक्ष इतिहासकार डॉ. लक्ष्मीकांत सिंह के अनुसार काकोरी कांड के बाद जब अशफाक को गिरफ्तार कर लिया गया तो अंग्रेजों ने उन्हें सरकारी गवाह बनाने की कोशिश की और कहा कि यदि हिन्दुस्तान आजाद हो भी गया तो उस पर हिन्दुओं का राज होगा तथा मुसलमानों को कुछ नहीं मिलेगा। इसके जवाब में अशफाक ने ब्रितानिया हुकूमत के कारिन्दों से कहा कि फूट डालकर शासन करने की अंग्रेजों की चाल का उन पर कोई असर नहीं होगा और हिन्दुस्तान आजाद होकर रहेगा। अशफाक ने अंग्रेजों से कहा था− तुम लोग हिन्दू−मुसलमानों में फूट डालकर आजादी की लड़ाई को नहीं दबा सकते। हिन्दुस्तान में क्रांति की ज्वाला भड़क चुकी है जो अंग्रेजी साम्राज्य को जलाकर राख कर देगी। अपने दोस्तों के खिलाफ मैं सरकारी गवाह बिल्कुल नहीं बनूंगा। अशफाक उल्ला खां के जीवन पर महात्मा गांधी का प्रभाव शुरू से ही था, जब गांधीजी ने ‘असहयोग आंदोलन’ वापस ले लिया तब उन्हें अत्यंत पीड़ा पहुंची थी। रामप्रसाद बिस्मिल और चन्द्रशेखर आजाद के नेतृत्व में 8 अगस्त, 1925 को क्रांतिकारियों की एक अहम बैठक हुई, जिसमें 9 अगस्त, 1925 को सहारनपुर-लखनऊ पैसेंजर ट्रेन काकोरी स्टेशन पर आने वाली ट्रेन को लूटने की योजना बनाई गई जिसमें सरकारी खजाना था।

    काकोरी कांड में ऐसे लूटा था सरकारी खजाना

    अशफाक उल्ला खां का मानना था की बिना हथियारों के क्रांति नहीं हो सकती इसलिए उन्हें हथियारों की सख्त जरूरत थी चूंकि हथियार खरीदने के लिए उनके पास पैसे नहीं थे। इसी के तहत 8 अगस्त 1925 को शाहजहांपुर में क्रांतिकारियों की बैठक आयोजित की गई थी। जिसमें उन लोगों ने ट्रेन से ले जाए जा रहे हथियार को खरीदने के बजाय उस सरकारी खजाने को लूटने का फैसला किया। अगले दिन यानि 9 अगस्त 1925 को राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला, राजेन्द्र लाहिड़ी, ठाकुर रोशन सिंह, शचीन्द्र बख्शी, चंद्रशेखर आजाद, केशव चक्रवर्ती, बनवारी लाल, मुकुन्दी लाल, मनमथनाथ गुप्ता समेत कई क्रांतिकारियों के समूह ने ककोरी गाँव में सरकारी धन ले जाने वाली ट्रेन में लूटपाट की थी। इस घटना को इतिहास में प्रसिद्ध काकोरी काण्ड के रूप में जाना जाता है। इस लूटपाट के कारण राम प्रसाद बिस्मिल को 26 सितंबर 1925 की सुबह पुलिस द्वारा गिरफ्तार कर लिया गया था। अशफाक उल्ला फरार हो गए थे। वह बिहार से बनारस चले गए और वहाँ जाकर उन्होंने इंजीनियरिंग कंपनी में काम करना शुरू कर दिया। उन्होंने 10 महीने तक वहाँ काम किया। इसके बाद वह इंजीनियरिंग का अध्ययन करने के लिए विदेश जाना चाहते थे जिससे आगे चलकर उन्हें स्वतंत्रता संग्राम में मदद मिल सके। अपने इसी उद्देश्य को पूरा करने के लिए वह दिल्ली भी गए। अशफाक उल्ला खां ने अपने जिन मित्रों पर भरोसा किया उन्हीं में से एक मित्र ने उनकी मदद करने का नाटक किया और धोखा दिया, उसने असफाक उल्ला खां को पुलिस को सौंप दिया। अशफाक उल्ला खाँ को फैजाबाद जेल में बन्द कर दिया गया। उनके भाई रियासतुल्लाह उनके वकील थे जिन्होंने इस मामले (केस) को लड़ा था। काकोरी काण्ड का मामला राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खाँ, राजेंद्र लाहिड़ी और रोशन को मौत की सजा देने के साथ समाप्त हुआ। जबकि अन्य लोगों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। अशफाक उल्ला खाँ को 19 दिसंबर 1927 को फांसी दी गई थी।

  • बिहार केशरी डॉ श्रीकृष्ण सिंह की 135 वीं जयंती पर विशेष

    राकेश बिहारी शर्मा – अखंड बिहार राज्य के प्रथम मुख्यमंत्री, “बिहार केसरी” डॉ. श्रीकृष्ण सिंह आघुनिक बिहार के निर्माता एवं स्वतंत्रता-संग्राम के अग्रगण्य सेनानियों में से रहे हैं। इनका सम्पूर्ण जीवन राष्ट्र एवं जन-सेवा के लिये समर्पित था। स्वाधीनता की प्राप्ति के बाद बिहार के नवनिर्माण के लिए उन्होंने जो कुछ किया उसके लिए बिहारवासी सदा उनके ऋणी रहेंगे। उनके उदार एवं निष्कलंक चरित्र में बुद्ध की करूणा, गाँधी की नैतिकता एवं सदाचार परिवेष्ठित थी।

    श्रीकृष्ण सिंह का प्रारंभिक पारिवारिक जीवन एवं शिक्षा-दीक्षा

    बिहार केशरी श्रीकृष्ण सिंह का जन्म 21 अक्टूबर 1887 को इनके अपने ननिहाल, वर्तमान नवादा जिले के नरहट थाना अंतर्गत खंनवाँ ग्राम में हुआ था। उनका पैतृक गांव वर्तमान शेखपुरा जिला माउर “मौर” गांव उस समय के मुंगेर जिला जोकि बारबीघा के नजदीक है, वर्तमान में यह गांव शेखपुरा जिला में पड़ता है।
    उनके पिता श्री हरिहर सिंह एक धार्मिक प्रवृत्ति के किसान थे। उनकी मां भी धार्मिक विचारधारा वाली महिला थी, और धार्मिकता के कारण ही हरिहर सिंह अपने 5 पुत्रों का नाम भगवान के नाम पर रखा 1. श्री देवकीनंदन सिंह उर्फ मुख्तार बाबू, प्रकांड ज्योतिषाचार्य (पुस्तक लिखे: ज्योतिष रत्नाकर), 2. श्री रामकृष्ण सिंह, 3. श्री राधा कृष्ण सिंह, 4. डॉ. श्री कृष्ण सिंह (भूत पूर्व मुख्यमंत्री), 5. श्री गोपी सिंह थे। जब श्रीकृष्ण बाबू पांच वर्ष के हुए तो मां प्लेग रोग से मर गईं। डॉ. श्रीकृष्ण सिंह बचपन से ही पढ़ने में बहुत तेज थे वह अपने स्कूल के होनहार छात्रों में गिने जाते थे।
    इन्होने अपनी प्रारंभिक शिक्षा अपने गांव माउर “मौर” की पाठशाला में प्राइमरी तक ली और आगे की शिक्षा छात्रवृति पाकर जिला स्कूल मुंगेर से पूरी की। वर्ष 1906 में पटना कालेज, पटना विश्विद्यालय के छात्र बने। वर्ष 1913 में एम.ए. की डिग्री हासिल करके वर्ष 1914 में कलकत्ता विश्विद्यालय से बी.एल. की डिग्री प्राप्त की। अपनी शिक्षा पूरी कर लेने के उपरांत वर्ष 1915 में मुंगेर से वकालत की शुरुआत करते हुए समय के साथ वकालत के क्षेत्र में अपना अहम स्थान प्राप्त किया। इसी दौरान ये झारखंड-गिरिडीह के सेनादोनी गांव के प्रतिष्ठित किसान स्वर्गीय ब्रह्म नारायण देव की सुपुत्री राम रूचि देवी के साथ परिणय सूत्र में बंधे और उन्हें दो पुत्र, शिवशंकर सिंह और बन्दिशंकर सिंह का जन्म हुआ। पैतृक घर माउर में आज भी धरोहर के रूप में उनके उपयोग किए हुए सामान संरक्षित हैं।

    श्रीकृष्ण सिंह का राजनीतिक जीवन

    विद्यार्थी जीवन से ही श्री कृष्ण सिंह के अंदर राष्ट्र प्रेम की भावना एवं समाज सेवा कूट–कूट कर भरी थी। महात्मा गाँधी से इनकी पहली व्यक्तिगत मुलाकात वर्ष 1911 में हुई और गांधीवादी विचारधारा से प्रभावित होकर उनके अनुयायी बन गये थे। अपने छात्र जीवन एवं राजनीतिक जीवन के प्रारंभिक दौर में श्री बाबू महर्षि अरविंद और तिलक के विचारों से प्रभावित रहे। वे भारतीय राजनीति के समकालीन नेताओं को अरविंद और तिलक की आंखों से देखना चाहते थे। यही कारण था कि स्कूली जीवन में ही एक हाथ में कृपाण और दूसरे हाथ में गीता लेकर गंगा नदी में प्रवेश कर कसम खाने वाले श्री कृष्ण सिंह ने 1912 में पहली बार पटना में होने वाले अखिल भारतीय कांग्रेस के महाधिवेशन में नरमदलीय कांग्रेस के प्रति अपनी उपेक्षा प्रदर्शित करने के कारण कोई योगदान नहीं दिया। वे उस समय पटना कालेज के छात्र थे। 1907 के सूरत कांग्रेस में झगड़े के बाद तिलक अपने गरम दलीय सहकर्मियों को लेकर कांग्रेस छोड़ निकल गये, तब श्री बाबू ने कांग्रेस से किनारा कर लिया था। इसी तरह जब जार्ज पंचम का पटना आगमन हुआ और वो शहर का नजारा देखने के लिए नाव पर सवार हो गंगा भ्रमण को निकले थे। तो सारा किनारा लोगों से खचाखच भर गया था। मिंटो होस्टल के छात्र भी भीड़ में जा मिले, किंतु श्री कृष्ण सिंह अपने कमरे से बाहर नहीं निकले। पढ़ाई पूरी करने के बाद 1914 में बी० एन० कॉलेज पटना में अध्यापक बने थे। वर्ष 1927 में वह विधान परिषद के सदस्य बने और 1929 में बिहार प्रदेश कांग्रेस कमेटी के महासचिव बने। 1930 में सिन्हा ने गढ़पुरा में नमक सत्याग्रह में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। गिरफ्तार किए जाने पर उन्हें अपने हाथों और सीने में गंभीर जख्मी की चोटों का सामना करना पड़ा, उन्हें छह महीने तक कैद कर दिया गया और फिर उन्हें फिर से गिरफ्तार कर लिया गया और सिविल अवज्ञा आंदोलन के दौरान दो साल तक कैद कर दिया गया। उन्हें गांधी-इरविन संधि के बाद रिहा कर दिया गया और फिर उन्होंने अपने राष्ट्रवादी काम के साथ शुरू किया और किसान सभा के साथ काम किया। 1941 के व्यक्तिगत सत्याग्रह के लिए गांधीजी ने उन्हें बिहार का प्रथम सत्याग्रही नियुक्त किया था। 1930 ई० में शुरू हुए नमक आंदोलन में ये बिहार का नेतृत्व किये। स्वाधीनता की प्राप्ति के बाद बिहार के नवनिर्माण के लिए उन्होंने जो कुछ किया उसके लिए बिहारवासी सदा उनके ऋणी रहेंगे। उनके उदार एवं निष्कलंक चरित्र में बुद्ध की करूणा, गाँधी की नैतिकता एवं सदाचार परिवेष्ठित थी। 1934 ई० में केंद्रीय असेम्बली सदस्य बने। और आजादी के बाद 1961 ई० तक बिहार के मुख्यमंत्री रहे थे। ये देश की आजादी के लिए 1920 ई० से 1945 ई० तक कुल दस बार जेल गए थे। स्वतंत्रता सेनानी के रूप में श्री बाबू ने 7 वर्ष 10 दिन तक जेल की यातना सही और कई ढंग से प्रताड़ित होते रहे लेकिन संकल्प के प्रति निष्ठा कभी कमजोर नहीं हुई।
    श्री कृष्ण सिंह जी को लोग प्यार से “बिहार केसरी” के नाम से याद करते हैं। श्री कृष्ण सिंह उर्फ़ श्री बाबू देश के आजादी के साथ-साथ बिहार के विकास के लिए अपनी सारी शक्ति और बुद्धि लगाई थी। देश को वर्षों गुलामी के बाद आजादी मिली थी। ऐसे में श्री बाबू ने बिहार की आधारभूत संरचना को स्थापित करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ा था। अपने मुख्य मंत्रीत्व काल में कल्याण विभाग की स्थापना की दलित छात्रों की शिक्षा, उनके तकनीकी प्रशिक्षण की निःशुल्क सुविधा व विशेष छात्रवृति की व्यवस्था की थी। ये भारतीय राजनीति के दैदीप्यमान राजनेता बने रहे।

    बिहार के विकास में श्री बाबू का अभूतपूर्व योगदान

    अंतरिम सरकार और बिहार सरकार के मुख्यमंत्री के रूप में ये कुल मिलाकर 16 वर्ष 10 माह कार्यरत रहे। श्री बाबू के जीवन का अंतिम चुनाव वर्ष 1957 में संपन्न हुआ। इस चुनाव में भी उनके कुशल नेतृत्व में कांग्रेस को विजय मिली। इस बार बिहार विधानसभा के नेतृत्व के लिए कांग्रेस दल में संघर्ष हुआ और मतपत्रों की गिनती दिल्ली में हुई। श्री बाबू विजयी हुए और पुनः मुख्यमंत्री बने थे। श्री बाबू के मन में बिहार के विकास की जो योजना थी, उनके अनुसार उन्होंने बिहार में जापानी खेती का प्रचलन बढ़ाया और हरित क्रांति लाने के लिए कृषकों को काफी उत्साहित किया। श्रीबाबू के कार्यकाल में बिहार में जहां जमींदारी प्रथा समाप्त हुई, वहीं उनके कार्यकाल में बिहार में एशिया का सबसे बड़ा इंजीनइरिंग उद्योग, हैवी इंजीनीयरिंग कॉरपोरेशन, भारत का सबसे बड़ा बोकारो इस्पात प्लांट, देश का पहला खाद कारखाना सिंदरी में, बरौनी रिफाइनरी, बरौनी थर्मल पॉवर प्लांट, पतरातू थर्मल पॉवर प्लांट, मैथन हाइडेल पावर स्टेशन एवं कई अन्य नदी घाटी परियोजनाएं स्थापित किया गया। वह एक नेता थे जिनकी दृष्टि कृषि और उद्योग दोनों के संदर्भ में बिहार को पूरी तरह से विकसित राज्य के रूप में देखना था। वास्तव में, बिहार देश के पहले पांच साल की योजना में उनके तहत अच्छा प्रदर्शन करने वाला शीर्ष राज्य बन गया। उनके कार्यकाल में ही प्रखंडों का गठन हुआ और सभी प्रखंडों में कृषि उत्पाद के सामानों की प्रदर्शनी लगती थी और उन्नत प्रभेद के अन्न, फल-फूल,गन्ना एवं सब्जी उत्पादक कृषकों को उपहार प्रदान किया जाता था। इस आयोजनों में क्षेत्र के बुद्धिजीवियों को आमंत्रित किया जाता था। वैज्ञानिक ढंग से खेती करने के लिए प्रशिक्षित कृषि वैज्ञानिकों का दल सक्रिय ढंग से काम करता था। उन्होंने सबौर में कृषि कॉलेज, रांची में कृषि एवं पशुपालन महाविद्यालय, मुज्जफरपुर ढोली में कृषि महाविद्यालय, पूसा में ईख अनुसंधान संस्थान तथा दक्षिण बिहार और उत्तर बिहार को जोड़ने के लिए हाथीदह में गंगा नदी में पुल एवं बरौनी और डालमिया उद्योग समूह की स्थापना जैसे बुनियादी काम श्री बाबू के शासनकाल में ही हुए थे। श्री बाबू की सरकार ने बिहार के आर्थिक विकास और औद्योगिक क्रांति लाने में सक्रिय भूमिका निभाई। बरौनी तेल शोधक कारखाना, रांची में हिंदुस्तान लिमिटेड का कार्यालय दिल्ली से स्थानांतरित कर लाया गया तथा बोकारो में बड़ा लौह कारखाना बनकर तैयार हो गया था। बिहार में 29 चीनी मिलें बनाई गई जोकि बिहार देश का दूसरा चीनी उत्पादक प्रदेश था। उनके शासन काल में शिक्षा सामुदायिक विकास, कृषि, पशुपालन सहयोग संस्थाएं, उद्योग, तकनीकी शिक्षा, सिंचाई, बिजली, परिवहन स्थानीय स्वशासन, कारा, भूमि सुधार, स्वास्थ्य, जलापूर्ति तथा परिवहन और संचार के क्षेत्र में भी काफी काम हुए और उनके शासनकाल में चहुमुखी प्रगति हुई। बिहार के शोक के रूप में जानी जा रही कोसी नदी की बाढ़ से बचाव के लिए जनसहयोग या श्रमदान से 152 मील लंबा बांध करीब-करीब बनाये गये थे। श्री बाबू ने सामाजिक विषमता दूर करने का जोरदार प्रयास किया। 27 सितंबर 1953 को अपने नेतृत्व में बैधनाथ मंदिर देवघर का मुख्य प्रवेश द्वार से 800 अनुसूचित जाति व कमजोर वर्गों के साथ प्रवेश किया। और ये सभी लोगों ने शिव की पूजा की। यह अनुसूचित जाति व कमजोर वर्गों के मन की मजबूती के लिए श्री बाबू के द्वारा उठाए गए क्रांतिकारी कदम थे।

    श्रीकृष्ण सिंह का सांस्कृतिक एवं सामाजिक विकास में योगदान

    श्रीकृष्ण सिंह ने राज्य के सांस्कृतिक और सामाजिक विकास में एक बड़ा योगदान दिया। उन्होंने बिहार के छात्रों के लिए कलकत्ता में राजेंद्र छात्र निवास, पटना में अनुग्रह नारायण सिन्हा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल स्टडीज, बिहार संगीत नृत्य नाट्य परिषद, पटना में संस्कृत कॉलेज, पटना में रविंद्र भवन, राजगीर वेणुवन विहार में भगवान बुद्ध की प्रतिमा इत्यादि जैसे अनेक निर्माण करवाए थे।
    नव बिहार के निर्माता के रूप में बिहार केसरी डा. श्रीकृष्ण सिंह का उदात्त व्यक्तिगत, उनकी अप्रतिम कर्मठता एवं उनका अनुकरणीय त्याग़ बलिदान हमारे लिए एक अमूल्य धारोहर के समान है जो हमे सदा-सर्वदा राष्ट्रप्रेम एवं जन-सेवा के लिए अनुप्रेरित करता रहेगा। आज का विकासोन्मुख बिहार श्रीकृष्ण सिंह जैसे महान शिल्पी की ही देन है, जिन्होंने अपने कर्मठ एवं कुशल कार्यों द्वारा राज्य की बहुमुखी विकास योजनाओं की आधारशिला रखी थी। बिहार भारत का पहला राज्य था, जहाँ सबसे पहले उनके नेतृत्व में ज़मींदारी प्रथा का उन्मूलन उनके शासनकाल में हुआ था। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद तथा अनुग्रह नारायण सिन्हा के साथ वे भी आधुनिक बिहार के निर्माता के रूप में जाने जाते हैं।

    जनजन के नेता बिहार केशरी डॉ. श्री कृष्ण सिंह का स्वर्गारोहण

    बिहार निर्माता एवं बिहार के प्रथम लोकप्रिय मुख्यमंत्री डॉ. श्री कृष्ण सिंह मानवीय मूल्यों एवं भारतीय दर्शन के प्रेरक तत्वों को अपने व्यक्तित्व में समाहित कर उत्तम कोटि का प्रशासन तथा बिना भेद-भाव, द्वेष एवं वैर के सर्वजनवरेण्य नेतृत्व प्रदान करने के लिए हमेशा जाने जायेंगे। राजनीति को कभी भी उन्होंने सत्ता-सुख का उपकरण नहीं माना वरन् मानव सेवा का एक सशक्त माध्यम एवं सुनहले अवसर के रूप में लिया। सामाजिक समरसता एवं सद्भावना का वातावरण बनाना उनकी प्राथमिकताओं में था। वे मात्र शुभेच्छुओं और समर्थको के प्रति ही नहीं बल्कि अपने प्रबल प्रतिद्वंदियों के प्रति भी अतिशय स्नेहिल और उदार थे।
    डॉ. श्री कृष्ण सिंह संघर्षशील, जुझारू और दूरदर्शी कांग्रेसी राजनेता थे। वह सामाजिक न्याय व साम्प्रदायिक सद्भाव के प्रणेता थे। उन्होंने समाज के सभी वर्गों के सन्तुलित विकास पर ध्यान देते हुए बिहार और देश को बहुत कुछ दिया। श्रीबाबू अब हमारे बीच नही हैं, किन्तु उनकी विचारधाराएं एवं उनके उत्कृष्ट आर्दश सदैव बिहारियों का मार्ग दर्शन करते रहेंगे। बिहार के नव निर्माण के लिए वे हृदय में सदा पूजनीय रहेंगे तथा बिहार सदैव उनका ऋणी रहेगा। श्रीकृष्ण सिंह का निधन 74 वर्ष की आयु में 31 जनवरी 1961 को हुआ था। श्रीबाबू 2 जनवरी, 1946 से अपनी मृत्यु तक बिहार के मुख्यमंत्री रहे। डॉ. श्री कृष्ण सिंह मे श्रेष्ठ मानवोचित गुण भरे थे। वे सतत सारस्वत साधक के अलावा स्वच्छ राजनीतिज्ञ, अनासक्त कर्मयोगी, सर्वगुण-सम्पन्न त्यागी तथा मानवता के महान हितैषी थे। हम सब उनके पदचिह्नों पर चल पाये तो मानव कल्याण का राज्य मार्ग निश्चित रूप से प्रशस्त होगा और यही इस उदारचेता एवं प्रज्ञा पुरूष के प्रति हमारी सच्ची श्रद्धाजंलि होगी।