Category: Crop management

  • चने की फसल में घट का कीड़ा, हल्दी में कंडाकुजी का प्रबंधन कैसे करें? विशेषज्ञ की सलाह पढ़ें

    हैलो कृषि ऑनलाइन: किसान मित्रों चना, जो कि रबी सीजन की प्रमुख फसल है, अधिकांश क्षेत्रों में बोई जा चुकी है, लेकिन वर्तमान में कई क्षेत्रों में चना प्रभावित है। वसंतराव नाइक मराठवाड़ा कृषि विश्वविद्यालय, परभणी में ग्रामीण कृषि मौसम विज्ञान सेवा योजना की विशेषज्ञ समिति ने कृषि मौसम के आधार पर कृषि सलाह की सिफारिश निम्नानुसार की है। आइए जानते हैं…

    फसल प्रबंधन

    1) ग्राम: चना बोने के 25 से 30 दिन बाद 19:19:19 खाद 100 ग्राम प्रति 10 लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करना चाहिए। अगेती बोई गई चना फसल में आवश्यकतानुसार जल प्रबंधन करना चाहिए। चने की फसल में घाट आर्मीवर्म संक्रमण के प्रबंधन के लिए प्रति एकड़ 20 अंग्रेजी टी-आकार का पक्षी स्टॉप और घाट सेना सर्वेक्षण के लिए प्रति एकड़ 2 कार्य गंध जाल स्थापित किया जाना चाहिए। चना बेधक प्रबंधन के लिए 5% (NSKE) नीम्बोली अर्क या क्विनोल्फॉस 25% EC 20 मिली या इमेमेक्टिन बेंजोएट 5% 4.5 ग्राम प्रति 10 लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करें। वर्तमान में चने की फसल में मनकुजाव्या एवं मार के प्रबंधन हेतु कॉपर ऑक्सीक्लोराइड 25 ग्राम प्रति 10 लीटर पानी में डालना चाहिए अथवा बायोमिक्स का प्रयोग करना चाहिए। बायोमिक्स लगाने के लिए पंप के नोजल को हटा दें और प्रति 10 लीटर पानी में 200 ग्राम (पाउडर) / 200 मिली (तरल) डालें।

    2) हल्दी: हल्दी में कंद प्रबंधन के लिए बायोमिक्स 150 ग्राम प्रति 10 लीटर पानी में डालना चाहिए। हल्दी पर सुंडी के प्रबंधन के लिए क्विनालफॉस 25% 20 मि.ली. या डाइमेथोएट 30% 15 मि.ली. प्रति 10 लीटर पानी में मिलाकर 15 दिनों के अंतराल पर अच्छी गुणवत्ता वाले स्टीकर से छिड़काव करें। उजागर कंदों को मिट्टी से ढक देना चाहिए। (केंद्रीय कीटनाशक बोर्ड द्वारा हल्दी की फसल पर कोई लेबल का दावा नहीं किया गया है और शोध के निष्कर्ष विश्वविद्यालय की सिफारिश में दिए गए हैं)।

    3) गन्ना : यदि गन्ने की फसल तना छेदक से प्रभावित हो तो प्रबंधन के लिए क्लोरपाइरीफॉस 20% 25 मिली या क्लोरट्रानोलेप्रोल 18.5% 4 मिली प्रति 10 लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करें। गन्ने की फसल में आवश्यकतानुसार पानी का प्रबंध करना चाहिए।

    4) करदई : यदि समय से बोई गई ज्वार की फसल में ज्वार का प्रकोप दिखे तो इसके प्रबंधन के लिए डाईमेथोएट 30% 13 मिली या एसीफेट 75% 10 ग्राम प्रति 10 लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करना चाहिए। केसर की फसल में खरपतवार के प्रकोप के आधार पर एक से दो निराई गुड़ाई बुवाई के 25 से 50 दिन बाद करनी चाहिए। अगेती बुवाई वाली ज्वार की फसल में आवश्यकतानुसार पानी का प्रबंधन करना चाहिए।

  • पाइप पर फली छेदक कीट का संक्रमण; इस प्रकार जैविक रूप से प्रभावी उपाय करें

    हैलो कृषि ऑनलाइन: महाराष्ट्र में अरहर एक प्रमुख दलहनी फसल है। राज्य में 10 से 11 लाख हेक्टेयर में इस फसल की खेती होती है। उपज हानि के कई कारणों में से कीट का प्रकोप एक प्रमुख कारण है। इन दलहनी फसलों में बुवाई से लेकर कटाई तक लगभग 200 प्रकार के कीट देखे जाते हैं। साथ ही भंडारण में, कई कीट तनों पर भोजन करते हैं। लेकिन फूलों और फलियों पर कीड़ों का हमला बहुत हानिकारक होता है।

    यदि कीट सूंडी के रूप में होता है तो कभी-कभी 70 प्रतिशत से अधिक क्षति फली छेदक के कारण होती है। अरहर की फसल में मुख्य रूप से तीन प्रकार के फलीदार कीट पाए जाते हैं जैसे हरा घाट आर्मीवर्म, फेदर मोथ और लेग्यूमिनस फ्लाई मैगॉट। फली छेदक का प्रकोप तब होता है जब तुरी की फसल कली अवस्था में होती है। इसलिए, यह आवश्यक है कि अरहर की फसल की अवधारण अवस्था से ही इन कीटों का प्रबंधन किया जाए।

    हरी फली छेदक:

    अरहर की फसल के फलीदार कीटों में हरा कीड़ा या घाटे अली एक भयानक कीट है। इन कीड़ों को ग्रीन अमेरिकन बॉलवर्म, घाटे वर्म आदि नाम से भी जाना जाता है। यह कीट सर्वाहारी होता है और दालों जैसे चना, गेहूँ, सोयाबीन, चावल आदि पर अधिक मात्रा में पाया जाता है। ज्वार, टमाटर, तम्बाकू, सूरजमुखी, ज्वार इत्यादि।

    इस कीट के शलभ का शरीर मोटा और रंग पीला होता है। विंग की लंबाई लगभग 37 मिमी। जोड़ी पर काले रंग के साथ आगे के पंख भूरे रंग के होते हैं। पूर्ण विकसित लार्वा 37-50 मिमी. यदि यह लंबा और तोते के रंग का है, तो रंग के विभिन्न रंगों वाले लार्वा भी देखे जा सकते हैं। कृमि के शरीर के किनारे पर बिखरी हुई धूसर खड़ी रेखाएँ होती हैं। अंडे पीले सफेद रंग के और गोल होते हैं। इस अण्डे का निचला भाग चपटा तथा सतह गुम्बदाकार होती है। उनकी सतह पर खड़ी लकीरें होती हैं। कोशिका गहरे भूरे रंग की होती है। मादा नर से बड़ी होती है और उसके शरीर के पीछे बालों के गुच्छे होते हैं।

    मादा तुरई के विभिन्न स्थानों पर युवा पत्तियों, तनों, कलियों, फूलों और फलियों पर औसतन 200 से 500 अंडे देती है। अवस्था 3 से 4 दिन की होती है। अंडे से निकले लार्वा शुरू में सुस्त होते हैं और पहले युवा पत्तियों और तनों को कुतरते हैं और खाते हैं। इसके बाद वे अनियमित आकार के छिद्रों से फलियों में छेद करते हैं और अंदर जाकर बीजों को खा जाते हैं। यदि दिसंबर से जनवरी के महीने में आसमान में बादल छाए रहें तो इस कीट का प्रकोप काफी हद तक बढ़ जाता है। यह कीड़ा छह चरणों से गुजरता है और 18-25 दिनों तक जीवित रहता है। इस कीट का जीवन चक्र 4-5 सप्ताह में पूरा हो जाता है।

    पिसारी पतंग:

    इस कीट का कीट नाजुक, पतला, 10-12 मिमी. यह लंबे भूरे भूरे रंग का होता है। आगे के पंख दो भागों में बँटे होते हैं और पीछे के पंख तीन भागों में विभाजित होते हैं, और उनके किनारे नाजुक बालों की एक मोटी परत से ढके होते हैं। आगे के पंख बहुत लम्बे होते हैं। कीड़ा हरे रंग का होता है, बीच में उभरा हुआ और दोनों सिरों पर पतला होता है। उसका शरीर बालों और छोटे-छोटे कांटों से ढका होता है। कोशिकाएं लाल, भूरे रंग की और कीड़े जैसी दिखती हैं। अंडों से निकले लार्वा छेद कर कलियों, फूलों और फलियों को खा जाते हैं। पूरी तरह से विकसित लार्वा पहले फली की सतह को खुरचते हैं और फिर फली के बाहर फली खाते हैं।

    संभोग के बाद, मादा रात में तनों, पत्तियों, कलियों, फूलों और छोटी फलियों पर कई तरह के अंडे देती है। 3 से 5 दिनों में अंडे फूट जाते हैं और फलियों को खुरच कर उनमें छेद करके और अंदर के बीजों को खाकर लार्वा फलियों से निकल आते हैं। लार्वा चरण 11 से 16 दिनों का होता है। उसके बाद, पूर्ण विकसित लार्वा फली में या फली के छेद में चला जाता है। कोशिका अवस्था 4 से 7 दिनों की होती है और इस कीट की एक पीढ़ी 18 से 28 दिनों में पूरी हो जाती है। बारिश के मौसम की समाप्ति के बाद कीट तुरी पर काफी हद तक सक्रिय है।

    फली मक्खी:

    मूँगफली 1.5 मिमी आकार में बहुत छोटी होती है। लम्बा होता है । मक्खी का रंग हरा होता है । मादा नर से थोड़ी बड़ी होती है। फोरविंग की लंबाई 4 मिमी। एक कीड़ा पतला, चिकना और सफेद रंग का होता है और उसके पैर नहीं होते । इसका मुख भाग नुकीला होता है। अंडे सफेद रंग के, आयताकार होते हैं। कैप्सूल भूरे रंग का और आकार में तिरछा होता है। कॉर्पस कॉलोसम के अंदर एक कोशिका होती है जो शुरू में पीले रंग की सफेद होती है और बाद में भूरे रंग की हो जाती है।

    प्रारंभ में इस कीट के प्रकोप से फलीदार पौधों पर कोई लक्षण दिखाई नहीं देते हैं। लेकिन जब पूर्ण विकसित कीड़ा कोकून अवस्था में प्रवेश करता है, तो फली में एक छेद किया जाता है और छेद से मक्खी निकलती है। तब क्षति के प्रकार का पता चलता है। आपड़ के लार्वा फलियों में प्रवेश करते हैं और बीजों को आंशिक रूप से कुतरते हैं। इससे दांतों में सड़न होती है। इस पर पनपने वाली फफूंद के कारण दाने सड़ जाते हैं। ये बीज खाने योग्य नहीं होते और बीज के रूप में उपयोगी होते हैं।

    मादा फली के खोल के अंदर अंडे देती है। ये अंडे 3-8 दिनों में निकलते हैं और इनमें से निकलने वाले लार्वा शुरू में अनाज की सतह को कुतरते हैं। इसलिए, दाने पर लहराती खांचे बनते हैं। एक कीड़ा एक दाना खाकर अपना जीवन चक्र पूरा करता है। लार्वा फली में तब तक रहता है जब तक उसका जीवन चक्र पूरा नहीं हो जाता। लार्वा चरण 10-18 दिनों तक रहता है और पूर्ण विकसित लार्वा फली में प्रवेश करने से पहले, छेद के पतले आवरण को तोड़कर फली से बाहर निकलता है। भूमक्खी का जीवन चक्र 3-4 सप्ताह में पूरा होता है।

    कीटों का आर्थिक क्षति स्तर:

    घाटे कैटरपिलर (हेलीकोवर्पा): 2-3 दिनों में 8-10 पतंगे प्रति ट्रैप या 1-2 पौधों या फलियों पर 5-10 प्रतिशत नुकसान के साथ 1 कैटरपिलर।

    फेदर मोथ: 5 लार्वा/10 पौधे।

    वर्तमान में अरहर की फसल का एकीकृत कीट प्रबंधन:

    निराई-गुड़ाई समय पर करनी चाहिए।

    पूर्ण विकसित लार्वा को तोड़कर नष्ट कर देना चाहिए।

    सर्वेक्षण में सहायता के लिए और कुछ हद तक फलीदार छेदक को नियंत्रित करने के लिए फसल में 10 हेक्टेयर जाल स्थापित किया जाना चाहिए।

    पार्टियों के लिए 20 हेक्टेयर बर्डहाउस स्थापित किए जाएं।

    हर्बल कीटनाशकों का उपयोग: फलीदार छेदक के नियंत्रण के लिए 5 प्रतिशत निम्बोली के अर्क का छिड़काव करें।

    जैविक नियंत्रण: घाटे बॉलवर्म वायरस (एचएएनपीवी) के नियंत्रण के लिए प्रति हेक्टेयर 500 रोगग्रस्त लार्वा अर्क का छिड़काव करें।

    उपरोक्त सभी तकनीकों के बाद भी, यदि फली छेदक कीट का प्रकोप पाया जाता है और कीट वित्तीय हानि के स्तर तक पहुँच जाते हैं, तो अंतिम उपाय के रूप में, निम्नलिखित कीटनाशकों में से एक का छिड़काव करें।

    जैविक किसान
    शरद केशवराव बोंडे।

  • सद्य हवामान स्थितीत कसे करावे पीक व्यवस्थापन ? जाणून घ्या तज्ञांचा सल्ला

    हॅलो कृषी ऑनलाईन : परतीच्या पावसानंतर शेतकऱ्यांचे मोठे नुकसान झाले आहे. आता वावरतील उरले सुरले पीक वाचवण्यासाठी शेतकरी धडपड करीत आहेत. अशात तूर कापूस पिकावर कीड आणि रोगांचा प्रादुर्भाव होताना दिसत आहे. वसंतराव नाईक मराठवाडा कृषि विद्यापीठ, परभणी येथील ग्रामीण कृषि मौसम सेवा योजनेतील तज्ञ समितीने पुढील प्रमाणे कृषि हवामान आधारीत कृषि सल्ल्याची शिफारश केली आहे.

    पीक व्यवस्थापन

    १)सोयाबीन : काढणी केलेले सोयाबीन उन्हात वाळवूनच मळणी करावी. पुढील हंगामात बियाण्यासाठी सोयाबीनचा वापर करण्यासाठी आर्द्रतेचे प्रमाण 14 टक्के असल्यास सोयाबीनची मळणी 400 ते 500 आरपीएम तर आर्द्रतेचे प्रमाण 13 टक्के असल्यास सोयाबीनची मळणी 300 ते 400 आरपीएम थ्रेशरवर करावी जेणेकरून बियाण्याची उगवण क्षमता कमी होण्यापासून टाळता येईल. मळणी केलेले सोयाबीन साठवणूकीपूर्वी पून्हा तिन ते चार दिवस उन्हात वाळवावे जेणेकरून साठवणूकी दरम्यान होणाऱ्या बूरशींपासून बियाण्याचे संरक्षण होईल.

    २)खरीप ज्वारी : काढणी केलेल्या खरीप ज्वारीची कणसे वाळल्यानंतर मळणी करावी. मळणी केलेल्या दाण्यांची उन्हात वाळवून साठवणूक करावी जेणेकरून साठवणूकी दरम्यान होणाऱ्या बूरशींपासून बियाण्याचे संरक्षण होईल.

    ३)बाजरी : काढणी केलेल्या बाजरीची कणसे वाळल्यानंतर मळणी करावी. मळणी केलेल्या दाण्यांची उन्हात वाळवून साठवणूक करावी जेणेकरून साठवणूकी दरम्यान होणाऱ्या बूरशींपासून बियाण्याचे संरक्षण होईल.

    ४)ऊस : पूर्व हंगामी ऊसाची लागवड 15 नोव्हेंबर पर्यंत करता येते. ऊस पिकावर खोड किडीचा प्रादूर्भाव दिसून आल्यास याच्या व्यवस्थापनासाठी क्लोरपायरीफॉस 20 % 25 मिली किंवा क्लोरॅट्रानोलीप्रोल 18.5% 4 मिली प्रति 10 लीटर पाण्यात मिसळून फवारणी करावी.

    ५)हळद : हळदीवरील पानावरील ठिपके आणि करपा यांच्या व्यवस्थापनासाठी ॲझोऑक्सीस्ट्रोबीन 18.2% + डायफेनकोनॅझोल 11.4% एससी 10 मिली किंवा बायोमिक्स 100 ग्रॅम प्रति 10 लिटर पाण्यात मिसळून चांगल्या दर्जाचे स्टिकरसह फवारणी करावी. हळदीमधील कंदकुज व्यवस्थापनासाठी बायोमिक्स 150 ग्रॅम प्रति 10 लिटर पाण्यात मिसळून आळवणी करावी. हळदीवरील कंदमाशीच्या व्यवस्थापनासाठी 15 दिवसांच्या अंतराने क्विनालफॉस 25% 20 मिली किंवा डायमिथोएट 30 % 15 मिली प्रति 10 लिटर पाण्यात मिसळून चांगल्या दर्जाचे स्टिकरसह आलटून-पालटून फवारणी करावी. उघडे पडलेले कंद मातीने झाकून घ्यावेत. (हळद पिकावर केंद्रीय किटकनाशक मंडळातर्फे लेबल क्लेम नसल्यामूळे विद्यापिठ शिफारशीत संशोधनाचे निष्कर्ष दिले आहेत).

    ६) हरभरा : कोरडवाहू हरभरा पिकाची पेरणी ऑक्टोबर अखेर पर्यंत संपवावी. बागायती हरभरा पिकाची पेरणी 10 नोव्हेंबर पर्यंत करता येते. बागायती हरभरा पिकाची पेरणी 45X 10 सेंमी अंतरावर करावी. बागायती हरभरा पेरणी करतांना 25 किलो नत्र, 50 किलो स्फुरद व 30 किलो पालाश (109 किलो डायअमोनियम फॉस्फेट + 50 किलो म्युरेट ऑफ पोटॅश किंवा 54.25 किलो युरिया + 313 किलो सिंगल सुपर फॉस्फेट + 50 किलो म्युरेट ऑफ पोटॅश) प्रति हेक्टरी खतमात्रा द्यावी.

    ७)करडई : कोरडवाहू करडई पिकाची पेरणी ऑक्टोबर अखेर पर्यंत संपवावी. बागायती करडई पिकाची पेरणी 5 नोव्हेंबर पर्यंत करता येते. पेरणी 45X 20 सेंमी अंतरावर करावी. बागायती करडई साठी शिफारशीत खतमात्रा 60:40:00 पैकी पेरणीच्या वेळी 30 किलो नत्र व 40 किलो स्फुरद प्रति हेक्टरी द्यावे व 30 किलो नत्र एक महिन्यानी द्यावे (पेरणीच्या वेळी 87 किलो डायअमोनियम फॉस्फेट + 31 किलो युरिया किंवा 65 किलो युरिया + 250 किलो सिंगल सुपर फॉस्फेट पेरणीच्या वेळी द्यावे व पेरणी नंतर एक महीन्यानी 65 किलो युरिया द्यावा).

     

  • important tips for banana farmers

    हॅलो कृषी ऑनलाईन : आता पावसानंतर हिवाळा आला आहे. अशा परिस्थितीत केळीच्या (Banana Cultivation Tips) झाडांवर रोग होण्याची शक्यता वाढली आहे. त्यामुळे ऑक्टोबर ते डिसेंबर या काळात शेतकऱ्यांनी पिकांची विशेष काळजी घेणे गरजेचे आहे. देशातील ज्येष्ठ फळ शास्त्रज्ञ डॉ. एस.के. सिंग केळीची व्यावसायिक लागवड करणाऱ्या शेतकऱ्यांना पिकांची काळजी घेण्याच्या टिप्स देत आहेत. डॉ.एस.के.सिंग यांच्या म्हणण्यानुसार, केळीची लागवड करणाऱ्या शेतकऱ्यांना यावेळी अळीचा सर्वाधिक त्रास होतो.

    अशा स्थितीत अळीच्या नियंत्रणासाठी 40 ग्रॅम कार्बोफुरॉन प्रति झाड वापरावे. नंतर, तण काढल्यानंतर, खताचा पहिला डोस म्हणून युरिया 100 ग्रॅम, सुपर फॉस्फेट 300 ग्रॅम आणि म्युरेट ऑफ पोटॅश (एमओपी) 100 ग्रॅम प्रति झाड सुमारे 30 सेमी अंतरावर असलेल्या बेसिन मध्ये टाका.

    खतांच्या वापरामध्ये किमान 2-3 आठवड्यांचे अंतर असावे

    जर तुमची केळीची झाडे चार महिन्यांची झाली असतील तर ३० ग्रॅम अझोस्पिरिलम आणि फॉस्फोबॅक्टेरिया, ३० ग्रॅम ट्रायकोडर्मा विराइड आणि ५-१० किलोग्रॅम चांगले कुजलेले (Banana Cultivation Tips) कंपोस्ट प्रति झाडाच्या दराने वापरा. रासायनिक खते आणि सेंद्रिय खतांचा वापर यामध्ये किमान २-३ आठवड्यांचे अंतर असावे. यासोबतच मुख्य रोपाच्या शेजारी (साइड डकर्स) बाहेर येणारी झाडे जमिनीच्या पृष्ठभागावर कापून वेळोवेळी काढून टाकावीत.

    प्रति झाड 50 ग्रॅम कृषी चुना आणि 25 ग्रॅम मॅग्नेशियम सल्फेट वापरा

    शेतात विषाणूग्रस्त झाडे दिसल्यास ती ताबडतोब काढून नष्ट करा. तसेच विषाणू वाहून नेणाऱ्या कीटक वाहकांना मारण्यासाठी कोणत्याही प्रणालीगत कीटकनाशकांची फवारणी करा. केळीचे रोप पाच महिन्यांचे झाल्यावर, युरिया 150 ग्रॅम, एमओपी 150 ग्रॅम आणि 300 ग्रॅम निम केक (निमकेक) खताचा दुसरा (Banana Cultivation Tips) डोस म्हणून झाडापासून सुमारे 45 सेंटीमीटर अंतरावर असलेल्या बेसिनमध्ये टाका. कोरडी व रोगट पाने नियमितपणे कापून शेतातून काढून टाकावीत.
    खते देण्यापूर्वी हलकी खुरपणी व खुरपणी करावी. 50 ग्रॅम कृषी चुना आणि 25 ग्रॅम मॅग्नेशियम सल्फेट प्रति झाड वापरा आणि त्यांची कमतरता दूर करण्यासाठी रोपाची सूक्ष्म अन्नद्रव्यांची गरज भागवा.

    कीटकनाशकांची फवारणी

    अंडी घालणे आणि भुंग्याचे पुढील आक्रमण नियंत्रित करण्यासाठी ‘नेमोसोल’ 12.5 ml/Ltr किंवा Chlorpyrifos 2.5 ml/Ltr ची फवारणी देठावर करा. कोम आणि स्टेम भुंग्यांच्या (Banana Cultivation Tips) निरीक्षणासाठी, 2 फूट लांब रेखांशाचा स्टेम ट्रॅप (प्रति एकर 40 सापळे) वेगवेगळ्या ठिकाणी लावले जाऊ शकतात. गोळा केलेले माइट्स रॉकेलने मारावेत. केळीचे शेत तसेच आजूबाजूचा परिसर तणमुक्त ठेवा आणि कीटक वाहकांवर नियंत्रण ठेवण्यासाठी पद्धतशीर कीटकनाशकांची फवारणी करा.

     

     

     

     

     

  • पावसामुळे पिकांचे नुकसान, तूर आणि भाजीपाला पिकांची कशी काळजी घ्यावी ?

    हॅलो कृषी ऑनलाईन : राज्यभरात परतीचा पाऊस मोठ्या प्रमाणात झाला आहे. त्यामुळे काढणीस आलेल्या पिकांचे तसेच भाजीपाला पिकाचे देखील मोठ्या प्रमाणात नुकसान झाले आहे. वसंतराव नाईक मराठवाडा कृषि विद्यापीठ, परभणी येथील ग्रामीण कृषि मौसम सेवा योजनेतील तज्ञ समितीने पुढील प्रमाणे कृषि हवामान आधारीत कृषि सल्ल्याची शिफारश केली आहे.

    १)तूर

    –पाऊस झालेल्या ठिकाणी तुर पिकात साचलेल्या पाण्याचा निचरा करावा.

    –तुर पिकात फायटोप्थोरा ब्लाईट प्रादूर्भाव दिसून आल्यास याच्या व्यवस्थापनासाठी वापसा येताच लवकरात लवकर ट्रायकोडर्मा 100 ग्रॅम प्रति 10 लिटर पाण्यात मिसळून खोडाभोवती आळवणी व खोडावर पावसाची उघाड बघून फवारणी करावी.

    –तूर पिकावरील पाने गुंडाळणारी अळीच्या व्यवस्थापनासाठी 5% निंबोळी अर्काची किंवा क्विनॉलफॉस 25% 16 मिली प्रति 10 लिटर पाण्यात मिसळून पावसाची उघाड बघून फवारणी करावी.

    २)भाजीपाला पिके

    –पाऊस झालेल्या ठिकाणी भाजीपाला पिकात साचलेल्या पाण्याचा निचरा करावा.

    –टोमॅटो पिकावरील करपा याच्या व्यवस्थापनासाठी ॲझोऑक्सीस्ट्रोबीन 18.2% + डायफेनकोनॅझोल 11.4% एससी 10 मिली प्रति 10 लिटर पाण्यात मिसळून पावसाची उघाड बघून फवारणी करावी.

    –काकडीवर्गीय भाजीपाला पिकात डाउनी मिल्ड्यू चा प्रादूर्भाव दिसून येत असल्यास याच्या व्यवस्थापनासाठी अझोऑक्सीस्ट्रोबिन 23% एससी 2.5 ग्रॅम प्रति 10 लिटर पाण्यात मिसळून पावसाची उघाड बघून फवारणी करावी.

    — भाजीपाला (मिरची, वांगे व भेंडी) पिकात रसशोषण करणाऱ्या किडींच्या व्यस्थापनासाठी लिकॅनीसिलीयम लिकॅनी (जैविक बुरशीजन्य किटकनाशक) 40 मिली किंवा पायरीप्रॉक्सीफेन 5% + फेनप्रोपाथ्रीन 15% 10 मीली किंवा डायमेथोएट 30% 13 मीली प्रती 10 लिटर पाण्यात मिसळून पावसाची उघाड बघून फवारणी करावी.

    –काढणीस तयार असलेल्या भाजीपाला पिकांची काढणी करून घ्यावी. जमिनीत वापसा येताच भाजीपाला पिकात अंतरमशागतीची कामे करून तण नियंत्रण करावे.

  • How To Manage Caotton And Soybean Crop

    हॅलो कृषी ऑनलाईन : राज्यात सर्वत्र परतीच्या पावसाने (Crop Management) धुमाकूळ घातला आहे. त्यामुळे ऐन काढणीला आलेल्या सोयबीन आणि कापूस या दोन प्रमुख पिकांचे मोठे नुकसान झाले आहे. दरम्यान वसंतराव नाईक मराठवाडा कृषि विद्यापीठ, परभणी येथील ग्रामीण कृषि मौसम सेवा योजनेतील तज्ञ समितीने पुढील प्रमाणे कृषि हवामान आधारीत कृषि सल्ल्याची शिफारश केली आहे.

    पीक व्यवस्थापन

    १) कापूस :

    पाऊस झालेल्या ठिकाणी कापूस पिकात साचलेल्या पाण्याचा निचरा करावा.

    –कापूस पिकात दहिया रोगाचा प्रादुर्भाव दिसून येत असल्यास याच्या (Crop Management) व्यवस्थापनासाठी ॲझोक्सिस्ट्रोबीन 18.2% + डायफेनकोनॅझोल 11.4% एससी 10 मिली किंवा क्रेसोक्सिम-मिथाइल 44.3% एससी 10 मिली प्रति 10 लिटर पाण्यात मिसळून पावसाची उघाड बघून फवारणी करावी.

    — कापूस पिकात रसशोषण करणाऱ्या किडींच्या (मावा, फुलकिडे, पांढरी माशी) व्यवस्थापनासाठी 5% निंबोळी अर्काची किंवा लिकॅनीसिलीयम लिकॅनी (जैविक बुरशीजन्य किटकनाशक) एक किलो ग्रॅम किंवा फलोनिकॅमिड 50% 60 ग्रॅम किंवा डायनेटोफ्यूरॉन 20% 60 ग्रॅम किंवा पायरीप्रॉक्झीफेन 5% +डायफेन्थुरॉन 25% (पूर्व मिश्रित किटकनाशक) 400 ग्रॅम प्रति एकर पावसाची उघाड बघून फवारणी करावी.

    –कापूस पिकावरील गुलाबी बोंडअळीच्या व्यवस्थापनासाठी हेक्टरी 5 गुलाबी बोंडअळीसाठीचे कामगंध सापळे लावावेत. प्रादूर्भाव जास्त आढळून आल्यास प्रोफेनोफॉस 50% 400 मिली किंवा इमामेक्टीन बेन्झोएट 5% 88 ग्रॅम किंवा प्रोफेनोफॉस 40% + सायपरमेथ्रीन 4% 400 मिली किंवा थायोडीकार्ब 75% 400 ग्रॅम प्रति एकर आलटून पालटून पावसाची उघाड बघून फवारावे.

    — कापूस पिकात लाल्या रोगाचा प्रादूर्भाव दिसून येत असल्यास याच्या व्यवस्थापनासाठी 20 ग्रॅम मॅग्नेशियम सल्फेट प्रति 10 लिटर पाण्यात मिसळून पावसाची उघाड बघून पंधरा दिवसाच्या अंतराने दोन फवारण्या घ्याव्यात.

    २) सोयाबीन

    –पाऊस झालेल्या ठिकाणी काढणी न केलेल्या सोयाबीन पिकात साचलेल्या पाण्याचा निचरा करावा.

    –पावसाचा अंदाज लक्षात घेता काढणी केलेले सोयाबीन पिक गोळा करून शेडमध्ये किंवा ढिग करून ताडपत्रीने/पॉलिथीनने झाकून ठेवावे.

    –काढणी केलेले सोयाबीन पिक पावसात भिजणार नाही याची दक्षता घ्यावी.

    –काढणी केलेले सोयाबीन उन्हात वाळवूनच मळणी करावी.

    –पुढील हंगामात बियाण्यासाठी सोयाबीनचा वापर करावयाचा (Crop Management) असल्यास सोयाबीनची मळणी 350 ते 400 आरपीएम थ्रेशरवर करावी जेणेकरून बियाण्याची उगवण क्षमता कमी होण्यापासून टाळता येईल.

    –मळणी केलेले सोयाबीन साठवणूकीपूर्वी पून्हा तिन ते चार दिवस उन्हात वाळवावे जेणेकरून साठवणूकी दरम्यान होणाऱ्या बूरशींपासून बियाण्याचे संरक्षण होईल.

  • लिंबू लागवड करणाऱ्या शेतकऱ्यांनो काळजी घ्या, ‘या’ रोगाचा प्रतिबंध महत्वाचा, अन्यथा नुकसान निश्चित

    हॅलो कृषी ऑनलाईन : गेल्या काही दशकांमध्ये लिंबू लागवड शेतकऱ्यांमध्ये लोकप्रिय झाली आहे. ज्याचे मुख्य कारण म्हणजे लिंबू हे प्रमुख नगदी पीक आहे. अशा स्थितीत लिंबू लागवडीकडे शेतकऱ्यांचा कलही वाढला असून लिंबूचे उत्पादन घेऊन शेतकरी नफाही मिळवत आहेत. परंतु, लिंबू लागवडीत शेतकरी नफा तेव्हाच मिळवू शकतात जेव्हा त्यांनी काही आवश्यक खबरदारी घेतली. ज्यामध्ये पहिली खबरदारी म्हणजे लिंबू रोपाचे रोगापासून संरक्षण करणे. शेतकऱ्यांनी लिंबू रोपाचे रोगापासून संरक्षण केले नाही तर नुकसान निश्चित आहे. लिंबू वनस्पतींमध्ये आढळणारा असाच एक प्रमुख रोग म्हणजे लिंबूवर्गीय कॅन्कर. हा रोग काय आहे, या रोगाचा लिंबू झाडांवर कसा परिणाम होतो, या सर्व गोष्टींची माहिती देत ​​आहेत ज्येष्ठ पीक शास्त्रज्ञ एस.के. सिंह

    लिंबू फळांवर डाग, 30 टक्के कमाईचे नुकसान

    देशाचे ज्येष्ठ पीक शास्त्रज्ञ डॉ. एस.के. सिंह लिंबू वनस्पतींवरील लिंबूवर्गीय कॅन्कर या रोगाविषयी सांगतात की, हा रोग एकदा लिंबू झाडांमध्ये आढळून आला की, विविधतेनुसार उत्पादनात ५ ते ३५ टक्के नुकसान होऊ शकते. त्यांनी सांगितले की हा रोग लहान झाडांवर तसेच वाढलेल्या झाडांवर हल्ला करतो. रोपवाटिकांमधील कोवळ्या झाडांमध्ये, रोगामुळे गंभीर नुकसान होते. रोगाचा गंभीर परिणाम होऊन पाने गळून पडतात आणि तीव्र प्रादुर्भावात संपूर्ण झाड मरते. हा रोग पाने, फांद्या, काटे, जुन्या फांद्या आणि फळांवर परिणाम करतो. तर लिंबू फळांवर डाग पडतात.

    हा रोग प्रथम पानांवर लहान, पाणचट, अर्धपारदर्शक पिवळा डाग म्हणून दिसून येतो, असे ते म्हणाले. जसजसे डाग परिपक्व होतात तसतसे पृष्ठभाग पांढरा किंवा तपकिरी होतो आणि शेवटी मध्यभागी क्रॅक होऊन खडबडीत, कडक, कॉर्कसारखे आणि खड्ड्यासारखे बनते.त्यांनी पुढे सांगितले की ज्या फळांवर डाग तयार होतात त्या फळांमध्ये हा रोग पसरतो. कॅन्कर्स संपूर्ण पृष्ठभागावर विखुरलेले असू शकतात

    काय कराल उपाय ?

    देशाचे ज्येष्ठ पीक शास्त्रज्ञ डॉ.एस.के.सिंग हे रोग टाळण्यासाठी उपाय सांगताना म्हणतात की, रोगाने बाधित पडलेली पाने आणि फांद्या गोळा करून जाळल्या पाहिजेत. नवीन फळबागांमध्ये लागवड करण्यासाठी रोगमुक्त रोपवाटिका साठा वापरावा. नवीन फळबागेत लागवड करण्यापूर्वी झाडांवर ब्लाइटॉक्स ५०@२ ग्रॅम/लिटर पाणी आणि स्ट्रेप्टोसायक्लीन १ ग्रॅम/३ लिटर पाण्यात मिसळून फवारणी करावी. जुन्या बागांमध्ये पावसाळा सुरू होण्यापूर्वी प्रभावित वनस्पतींच्या भागांची छाटणी आणि हवामानाच्या परिस्थितीनुसार ब्लाइटॉक्स 50 + स्ट्रेप्टोमायसिनची ठराविक कालावधीने फवारणी केल्यास रोग नियंत्रित होतो.

    ब्लिटॉक्स 50 + स्ट्रेप्टोमायसिनची फवारणी प्रत्येक नवीन पानांच्या फुलानंतर लगेच करावी. रोपाची शक्ती नेहमी योग्य सिंचनाने राखली पाहिजे. खताचा जास्तीत जास्त फायदा झाडाला होईल अशा पद्धतीने करावा.

     

     

     

     

  • जाणून घ्या, तुरीवरील शेंगा पोखरणाऱ्या अळीचे व्यवस्थापन

    हॅलो कृषी ऑनलाईन : प्रमुख कडधान्य असलेल्या तुरीचे उत्पादन कमी येण्यामागे किडींचा प्रादुर्भाव व त्यामुळे होणारे नुकसान आढळते. तुरीमध्ये पेरणीपासून काढणीपर्यंत शेंगा पोखरणारी अळी, पिसारी पतंग, शेंगमाशी, पाने व फुले जाळी करणारी अळी, शेंगावरील ढेकूण अशा अनेक किडींचा प्रादुर्भाव होतो. पुढे तूर साठवणुकीमध्येही अनेक किडींमुळे नुकसान होते. हे लक्षात घेता तीव्र प्रादुर्भावाच्या स्थितीमध्ये तूर पिकाचे ७० टक्क्यांपेक्षा अधिक नुकसान होऊ शकते.

    यांत्रिक पद्धत

    पाने गुंडाळणाऱ्या अळीची प्रादुर्भावग्रस्त पाने गोळा करून अळीसह नष्ट करावीत. कळी लागण्याच्या अवस्थेत आल्यापासून एकरी २ कामगंध सापळे व २ नरसाळे सापळे पिकाच्या एक फूट उंचीवर लावावेत. त्यावरून शेंगा पोखरणारी अळी व मारुकाची संख्या लक्षात येईल. शक्य असल्यास तुरीवरील मोठ्या अळ्या वेचून नष्ट कराव्यात. त्यासाठी झाडाखाली पोते टाकून हलकेसे झाड हलविल्यास अळ्या खाली पडतात. अशा अळ्या गोळा करून नष्ट कराव्यात. पिकाच्या एक ते दोन फूट उंचीचे हेक्टरी ५० ते ६० पक्षिथांबे उभारावेत.

    जैविक पद्धती 

    पिकास फुलकळी येऊ लागताच प्रतिबंधात्मक उपाय म्हणून ५ टक्के निंबोळी अर्क किंवा ॲझाडिरॅक्टिन (३०० पीपीएम) ५ मि.लि. प्रतिलिटर पाणी या प्रमाणे फवारणी करावी. पुढील फवारणी १५ दिवसांच्या अंतराने करावी. (ॲग्रेस्को शिफारस) शेंगा पोखरणारी हिरवी अळी लहान अवस्थेत असताना एच.ए.एन.पी.व्ही. विषाणूजन्य कीटकनाशक ०.५ मि.लि. प्रतिलिटर पाणी याप्रमाणे फवारणी सायंकाळी करावी. हे विषाणू अन्नाद्वारे पोटात जाऊन अळीच्या शरीरात वाढतात. परिणामी अळ्यांना रोग होऊन ५-७ दिवसांत अळ्या मरतात.

    रासायनिक पद्धत :

    किडींची संख्या आर्थिक नुकसान पातळीच्या वर गेल्यावरच रासायनिक कीटकनाशकाचा वापर करावा.

    शेंगा पोखरणारी अळी (घाटे अळी) : कामगंध सापळ्यात सलग २ ते ३ दिवस ८ ते १० पतंग प्रति सापळा किंवा फुलोऱ्याच्या वेळी अथवा फुलोऱ्यानंतर २ अळ्या प्रतिमीटर ओळीत.

    शेंगा पोखरणारी अळी व शेंग माशी या किडीची नियंत्रणासाठी, फवारणी प्रतिलिटर पाणी

    क्विनॉलफॉस (२५ ई.सी.) २.८ मि.लि. किंवा

    फ्ल्यूबेंडायअमाइड (३९.३५ एससी) ०.२ मि.लि. किंवा

    इंडोक्झाकार्ब (१५.८ ईसी) ०.६६ मि.लि. किंवा

    लॅम्बडा सायहॅलोथ्रीन (५ टक्के ई.सी.) ०.८ मि.लि.

    टीप : वरील कीटकनाशकांना लेबल क्लेम आहे.

    महत्त्वाच्या टिप्स :

    -पीक ५० टक्के फुलोऱ्यात असताना जैविक कीटकनाशकाची फवारणी करावी.

    -प्रथम व द्वितीय अवस्थेतच शेंगा पोखरणाऱ्या अळीचे नियंत्रण करावे.

    -फवारणी करताना हातमोजे व तोंडावर मास्कचा वापर करावा.

    -कीटकनाशकांचे प्रमाण नॅपसॅक पंपासाठी आहे.

    शेंगा पोखरणारी अळी :

    इंग्रजी नाव -Pod borer,

    शा. नाव- Helicoverpa armigera

    बहुभक्षी कीड. सुमारे २०० पिकांवर (तूर, कापूस, भेंडी, टोमॅटो, सोयाबीन, हरभरा आदी) पिकांवर प्रादुर्भाव.

    जीवनक्रम- अंडी, अळी, कोष व पतंग.

    अळी रंगाने हिरवट पिवळसर. अंगावर तुरळक समांतर रेषा. पूर्ण वाढ झालेली अळी ४ सेंमी. लांब वर्षातून सात ते ९ पिढ्या तयार होतात.

    मादी सरासरी ८०० अंडी कोवळी पाने, देठे किंवा कळ्या, फुले, शेंगांवर घालते. चार ते सात दिवसांनी अंड्यातून अळ्या बाहेर पडतात. १४ ते १६ दिवसांपर्यंत पूर्ण वाढ होऊन त्या झाडाच्या बुंध्याजवळ जमिनीत मातीच्या वेष्टणात कोषावस्थेत जातात. कोषातून पतंग बाहेर पडतात.

    जीवनक्रम ४ ते ५ आठवड्यांत पूर्ण होतो.

    नुकसान ः प्रथम व द्वितीय अवस्थेतील अळ्या तुरीची कोवळी पाने खातात. पीक फुलोऱ्यात आल्यावर कळ्यांवर उपजीविका करतात. शेंगांना छिद्र पाडून अर्धे शरीर बाहेर व अर्धे आत ठेवून दाणे खाते. मोठ्या अळ्या दाणे पोखरून खातात.

    एक अळी ३० ते ४० शेंगांना नुकसान पोहोचवते. ढगाळ वातावरण आणि जास्त प्रादुर्भावामध्ये पिकाचे २५ ते ७० टक्क्यांपर्यंत नुकसान होऊ शकते.

  • राज्यात परतीच्या पावसाचा धुमाकूळ; कशी घ्याल पिकांची काळजी ? जाणून घ्या

    हॅलो कृषी ऑनलाईन : मराठवाडयात दिनांक 11 ऑक्टोबर रोजी औरंगाबाद जिल्हयात तूरळक ठिकाणी वादळीसाऱ्यासह मुसळधार पावसाची तर जालना, बीड, परभणी, हिंगोली, नांदेड, लातूर व उस्मानाबाद जिल्हयात ; दिनांक 12 ऑक्टोबर रोजी औरंगाबाद, जालना, बीड, लातूर व उस्मानाबाद जिल्हयात तूरळक ठिकाणी वादळी वारा, मेघगर्जना, विजांचा कडकडाट, वाऱ्याचा वेग अधिक (ताशी 30 ते 40 कि.मी.) राहून हलक्या ते मध्यम स्वरूपाच्या पावसाची शक्यता आहे. त्यानुसार वसंतराव नाईक मराठवाडा कृषि विद्यापीठ, परभणी येथील ग्रामीण कृषि मौसम सेवा योजनेतील तज्ञ समितीने पुढील प्रमाणे कृषि हवामान आधारीत कृषि सल्ल्याची शिफारश केली आहे.

    पीक व्यवस्थापन

    १) कापूस

    कापूस पिकात दहिया रोगाचा प्रादुर्भाव दिसून येत असल्यास याच्या व्यवस्थापनासाठी ॲझोक्सिस्ट्रोबीन 18.2% + डायफेनकोनॅझोल 11.4% एससी 10 मिली किंवा क्रेसोक्सिम-मिथाइल 44.3% एससी 10 मिली प्रति 10 लिटर पाण्यात मिसळून पावसाची उघाड बघून फवारणी करावी. कापूस पिकात रसशोषण करणाऱ्या किडींच्या (मावा, फुलकिडे, पांढरी माशी) व्यवस्थापनासाठी 5% निंबोळी अर्काची किंवा लिकॅनीसिलीयम लिकॅनी (जैविक बुरशीजन्य किटकनाशक) एक किलो ग्रॅम किंवा फलोनिकॅमिड 50% 60 ग्रॅम किंवा डायनेटोफ्यूरॉन 20% 60 ग्रॅम किंवा पायरीप्रॉक्झीफेन 5% +डायफेन्थुरॉन 25% (पूर्व मिश्रित किटकनाशक) 400 ग्रॅम प्रति एकर पावसाची उघाड बघून फवारणी करावी. कापूस पिकावरील गुलाबी बोंडअळीच्या व्यवस्थापनासाठी हेक्टरी 5 गुलाबी बोंडअळीसाठीचे कामगंध सापळे लावावेत. कापूस पिकातील डोमकळ्या वेचून नष्ट कराव्यात. प्रादूर्भाव जास्त आढळून आल्या प्रोफेनोफॉस 50% 400 मिली किंवा इमामेक्टीन बेन्झोएट 5% 88 ग्रॅम किंवा प्रोफेनोफॉस 40% + सायपरमेथ्रीन 4% 400 मिली किंवा थायोडीकार्ब 75% 400 ग्रॅम प्रति एकर आलटून पालटून पावसाची उघाड बघून फवारावे.

    २) सोयाबीन

    पुढील दोन दिवसाचा पावसाचा अंदाज लक्षात घेता काढणी केलेले सोयाबीन पिक गोळा करून शेडमध्ये किंवा ढिग करून ताडपत्रीने/पॉलिथीनने झाकून ठेवावे. काढणी केलेले सोयाबीन पिक पावसात भिजणार नाही याची दक्षता घ्यावी. काढणीस तयार असलेल्या सोयाबीन पिकाची स्वच्छ हवामानात काढणी करावी.

    ३)तूर

    तूर पिकावरील पाने गुंडाळणारी अळीच्या व्यवस्थापनासाठी 5% निंबोळी अर्काची किंवा क्विनॉलफॉस 25% 16 मिली प्रति 10 लिटर पाण्यात मिसळून पावसाची उघाड बघून फवारणी करावी. शक्य असेल तेथे तुर पिकात अंतरमशागतीची कामे करून तण नियंत्रण करावे.

    ४) खरीप भुईमूग

    काढणीस तयार असलेल्या खरीप भुईमूग पिकाची काढणी करून घ्यावी. काढणी केलेल्या शेंगांची सुरक्षित ठिकाणी साठवणूक करावी.

    ५) मका

    मका पिकाची पेरणी ऑक्टोबर ते नोव्हेंबर या कालावधीत करता येते. पेरणी 60X30 सेंमी अंतरावर करावी. पेरणीसाठी हेक्टरी 15 किलो बियाणे वापरावे. पेरणीपूर्वी बियाण्यास बिजप्रक्रिया करावी.

    ६) रब्बी ज्वारी

    रब्बी ज्वारी पिकाची पेरणी ऑक्टोबर महिन्याच्या पहिल्या पंधरवाडयात (1 ते 15 ऑक्टोबर) करावी. पेरणी 45X15 सेंमी अंतरावर करावी. पेरणीसाठी हेक्टरी 10 किलो बियाणे वापरावे. परेणीपूर्वी बियाण्यास बिजप्रक्रिया करावी.

    ७) रब्बी सूर्यफूल

    रब्बी सुर्यफुलाची पेरणी ऑक्टोबर महिन्याच्या पहिल्या पंधरवाडयात करावी. पेरणी संकरीत वाणासाठी 60X30 सेंमी तर सुधारित वाणासाठी 45X15 सेंमी अंतरावर करावी. पेरणीसाठी हेक्टरी 8 ते 10 किलो बियाणे वापरावे.

  • कापूस पिकात दहिया, रसशोषण करणाऱ्या किडींचा प्रादुर्भाव? लागलीच करा ‘हे’ उपाय

    हॅलो कृषी ऑनलाईन : मागच्या काही दोन तीन दिवसांपासून राज्यात पावसाने हजेरी लावली आहे. पाऊस आणि ढगाळ हवामान यामुळे वावरतील कापूस पिकावर रोग आणि किडींचा प्रादुर्भाव झाला आहे. त्यावर उपाय कसे करायचे ? याची माहिती आजच्या लेखात जाणून घेऊया. वसंतराव नाईक मराठवाडा कृषि विद्यापीठ, परभणी येथील ग्रामीण कृषि मौसम सेवा योजनेतील तज्ञ समितीने पुढील प्रमाणे कृषि हवामान आधारीत कृषी सल्ल्याची शिफारश केली आहे.

    कापूस पिकात दहिया

    कापूस पिकात दहिया रोगाचा प्रादुर्भाव दिसून येत असल्यास याच्या व्यवस्थापनासाठी ॲझोक्सिस्ट्रोबीन 18.2% + डायफेनकोनॅझोल 11.4% एससी 10 मिली किंवा क्रेसोक्सिम-मिथाइल 44.3% एससी 10 मिली प्रति 10 लिटर पाण्यात मिसळून पावसाची उघाड बघून फवारणी करावी.

    रसशोषण करणाऱ्या किडी

    कापूस पिकात रसशोषण करणाऱ्या किडींच्या (मावा, फुलकिडे, पांढरी माशी) व्यवस्थापनासाठी 5% निंबोळी अर्काची किंवा लिकॅनीसिलीयम लिकॅनी (जैविक बुरशीजन्य किटकनाशक) एक किलो ग्रॅम किंवा फलोनिकॅमिड 50% 60 ग्रॅम किंवा डायनेटोफ्यूरॉन 20% 60 ग्रॅम किंवा पायरीप्रॉक्झीफेन 5% +डायफेन्थुरॉन 25% (पूर्व मिश्रित किटकनाशक) 400 ग्रॅम प्रति एकर पावसाची उघाड बघून फवारणी करावी.

    गुलाबी बोंडअळी

    कापूस पिकावरील गुलाबी बोंडअळीच्या व्यवस्थापनासाठी हेक्टरी 5 गुलाबी बोंडअळीसाठीचे कामगंध सापळे लावावेत. कापूस पिकातील डोमकळ्या वेचून नष्ट कराव्यात. प्रादूर्भाव जास्त आढळून आल्या प्रोफेनोफॉस 50% 400 मिली किंवा इमामेक्टीन बेन्झोएट 5% 88 ग्रॅम किंवा प्रोफेनोफॉस 40% + सायपरमेथ्रीन 4% 400 मिली किंवा थायोडीकार्ब 75% 400 ग्रॅम प्रति एकर आलटून पालटून पावसाची उघाड बघून फवारावे.