एक दिलचस्प कहानी :-(साभार इंटरनेट) संकलन-कुमुद रंजन सिंह,:—- भारत मे टीवी 1959 में शुरू हुआ। तब इसे टेलीविजन इंडिया कहा जाता था। बहुत ही कम लोगों तक इसकी पहुंच थी। 1975 में इसे नया नाम मिला दूरदर्शन। तब तक ये दिल्ली, मुम्बई, चेन्नई और कोलकाता तक सीमित था, जब तक कि 1982 में एशियाड खेलों का प्रसारण सम्पूर्ण देश मे होने लगा था। 1984 में ‘बुनियाद’ और ‘हम लोग’ की आशातीत सफलता ने टीवी की लोकप्रियता में और बढ़ोतरी की।
कहानी 1976 में शुरू हुई।फ़िल्म निर्माता-निर्देशक रामानंद सागर अपनी फिल्म ‘चरस’ की शूटिंग के लिए स्विट्जरलैंड गए। एक शाम वे पब में बैठे और रेड वाइन ऑर्डर की। वेटर ने वाइन के साथ एक बड़ा सा लकड़ी का बॉक्स टेबल पर रख दिया। रामानंद ने कौतुहल से इस बॉक्स की ओर देखा। वेटर ने शटर हटाया और उसमें रखा टीवी ऑन किया। रामानंद सागर चकित हो गए क्योंकि जीवन मे पहली बार उन्होंने रंगीन टीवी देखा था। इसके पांच मिनट बाद वे निर्णय ले चुके थे कि अब सिनेमा छोड़ देंगे और अब उनका उद्देश्य प्रभु राम, कृष्ण और माँ दुर्गा की कहानियों को टेलेविजन के माध्यम से लोगों को दिखाना होगा।
इधर रामानंद सागर उत्साह से रामायण की तैयारियां कर रहे थे। लेकिन टीवी में प्रवेश को उनके साथी आत्महत्या करने जैसा बता रहे थे। सिनेमा में अच्छी पोजिशन छोड़ टीवी में जाना आज भी फ़िल्म मेकर के लिए आत्महत्या जैसा ही है। रामानंद इन सबसे अविचलित अपने काम मे लगे रहे। उनके इस काम पर कोई पैसा लगाने को तैयार नहीं हुआ।
जैसे-तैसे वे अपना पहला सीरियल ‘विक्रम और वेताल’ लेकर आए। सीरियल बहुत सफल हुआ। हर आयुवर्ग के दर्शकों ने इसे सराहा। यहीं से टीवी में स्पेशल इफेक्ट्स दिखने लगे थे। विक्रम और वेताल को तो दूरदर्शन ने अनुमति दे दी थी लेकिन रामायण का कांसेप्ट न दूरदर्शन को अच्छा लगा, न तत्कालीन कांग्रेस सरकार को। यहां से रामानंद के जीवन का दुःखद अध्याय शुरू हुआ।
दूरदर्शन ‘रामायण’ दिखाने पर सहमत था किंतु तत्कालीन कांग्रेस सरकार इस पर आनाकानी कर रही थी। दूरदर्शन अधिकारियों ने जैसे-तैसे रामानंद सागर को स्लॉट देने की अनुमति सरकार से ले ली। ये सारे संस्मरण रामानंद जी के पुत्र प्रेम सागर ने एक किताब में लिखे थे। तो दिल्ली के राजनीतिक गलियारों में रामायण को लेकर अंतर्विरोध देखने को मिल रहा था। सूचना एवं प्रसारण मंत्री बीएन गाडगिल को डर था कि ये धारावाहिक न केवल हिन्दुओं में गर्व की भावना को जन्म देगा अपितु तेज़ी से उभर रही भारतीय जनता पार्टी को भी इससे लाभ होगा। हालांकि राजीव गांधी के हस्तक्षेप से विरोध शांत हो गया।
इससे पहले रामानंद को अत्यंत कड़ा संघर्ष करना पड़ा था। वे दिल्ली के चक्कर लगाया करते कि दूरदर्शन उनको अनुमति दे दे लेकिन सरकारी घाघपन दूरदर्शन में भी व्याप्त था। घंटों वे मंडी हाउस में खड़े रहकर अपनी बारी का इंतज़ार करते। कभी वे अशोका होटल में रुक जाते, इस आस में कि कभी तो बुलावा आएगा। एक बार तो रामायण के संवादों को लेकर डीडी अधिकारियों ने उनको अपमानित किया। ये वहीं समय था जब रामानंद सागर जैसे निर्माताओं के पैर दुबई के अंडरवर्ल्ड के कारण उखड़ने लगे थे। दुबई का प्रभाव बढ़ रहा था, जो आगे जाकर दाऊद इंडस्ट्री में परिवर्तित हो गया।
1986 में श्री राम की कृपा हुई। अजित कुमार पांजा ने सूचना व प्रसारण का पदभार संभाला और रामायण की दूरदर्शन में एंट्री हो गई। 25 जनवरी 1987 को ये महाकाव्य डीडी पर शुरू हुआ। ये दूरदर्शन की यात्रा का महत्वपूर्ण बिंदु था। दूरदर्शन के दिन बदल गए। राम की कृपा से धारावाहिक ऐसा हिट हुआ कि रविवार की सुबह सड़कों पर स्वैच्छिक जनता कर्फ्यू लगने लगा।
इसके हर एपिसोड पर एक लाख का खर्च आता था, जो उस समय दूरदर्शन के लिए बहुत बड़ी रकम हुआ करती थी। राम बने अरुण गोविल और सीता बनी दीपिका चिखलिया की प्रसिद्धि फिल्मी कलाकारों के बराबर हो गई थी। दीपिका चिखलिया को सार्वजनिक जीवन मे कभी किसी ने हाय-हेलो नही किया। उनको सीता मानकर ही सम्मान दिया जाता था।
अब नटराज स्टूडियो साधुओं की आवाजाही का केंद्र बन गया था। रामानंद से मिलने कई साधु वहां आया करते। एक दिन कोई युवा साधु उनके पास आया। उन्होंने ध्यान दिया कि साधु का ओज बहुत तेजस्वी है। साधु ने कहा वह हिमालय से अपने गुरु का संदेश लेकर आया है। तत्क्षण साधु की भाव-भंगिमाएं बदल गई। वह गरज कर बोला ‘ तुम किससे इतना डरते हो, अपना घमंड त्याग दो। तुम रामायण बना रहे हो, निर्भिक होकर बनाओ। तुम जैसे लोगों को जागरूकता के लिए चुना गया है। हिमालय के दिव्य लोक में भारत के लिए योजना तैयार हो रही है। अतिशीघ्र भारत विश्व का मुखिया बनेगा।’
आश्चर्य है कि रामानंद जी को अपने कार्य के लिए हिमालय के अज्ञात साधु का संदेश मिला।
सत्यमशिवमसुन्दरम