बड़गांव सूर्य मंदिर देश की धरोहर एवं अनूठी विरासत है

राकेश बिहारी शर्मा – भारतवर्ष पर्व-त्यौहारों की एक लम्बी एवं समृद्ध श्रृंख्ला वाला देश है। साल भर देश के अलग-अलग हिस्सों में भिन्न-भिन्न जातियों, धर्मो एवं संप्रदाय के लोगों द्वारा उनके पर्व त्यौहारों को काफी हर्षो उल्लास के साथ मनाया जाता है। बिहार का महापर्व ‘छठ’ ऐसा ही एक पर्व है। गौतम और महावीर की धरती से शुरू हुआ लोक आस्था का यह महापर्व विशेष रूप से भगवान सूर्य को समर्पित है। ऐसी मान्यता है कि सृषिट के सुचारू रूप से चलाने में उनके योगदान के लिए धन्यवाद स्वरूप प्राचीन काल से ही बिहार की धरती पर इसे मनाया जाता है। इस तालाब के विषय में यह भी मान्यता है कि यहां स्नान करने से सफेद दाग की बीमारी सहित अनेक प्रकार के चर्म रोग ठीक हो जाते है। वही तालाब के किनारे पर कई छोटे-बड़े मंदिर है। बदलते समय-काल के साथ इस महापर्व की महिमा देश विदेश में फैल चुकी है। भारत का शायद ही कोर्इ ऐसा कोना बचा हो जो इससे अछूता हो। गौरतलब है कि, भारत के अलावा पड़ोसी देश नेपाल के तरार्इ क्षेत्र में भी बड़ी आस्था के साथ ‘छठ’ मनाया जाता है। ऐसे में बिहार के बडगांव स्थित प्राचीन “बड़गांव सूर्य मंदिर” के बारे में जाने बिना ‘छठ’ पर्व का ज्ञान अधूरा सा है। विदित है कि “बड़गांव सूर्य मंदिर” भारत का एक ऐसा सूर्य मंदिर है जहां एक साथ लाखों लोग हर वर्ष ‘छठ’ पर्व मनाते है। यह परंपरा सदियों से यहां निभार्इ जा रही है। “बड़गांव सूर्य मंदिर” बिहारशरीफ से 15.2 किलोमिटर तथा पटना से 87.6 किलोमिटर की दुरी पर है। ऐतिहासिक और पौराणिक महत्व के साथ-साथ प्रसिद्ध मान्यताओं के कारण यहां छठ व्रत करने बिहार के कोने-कोने से ही नहीं बल्कि पूरे देश से लोग यहां आते हैं और काफी परेशानियों को सहकर भी सूर्योपासना का चार दिवसीय महापर्व छठ व्रत करते हैं।
वर्तमान में पौराणिक सूर्य तालाब जमींदोज हो गया है। ऐसी मान्यता है कि उसी तालाब के ऊपर एक विशाल तालाब वर्तमान में मौजूद है। चीनी यात्री ह्वेनसांग की डायरी में इस सूर्यपीठ का वर्णन मिलता है। डायरी के अनुसार यहां सूर्य उपासक इस तालाब में स्नान और अर्घ्यदान करते थे। इस तालाब के उत्तर-पूर्व होने पर पत्थर की एक मंदिर हुआ करती थी। मंदिर में भगवान सूर्य की भव्य प्रतिमा थी। इस मंदिर का निर्माण पाल राजा नारायण पाल ने 10 वीं सदी में कराया था। वर्तमान में वह मंदिर अस्तित्व में नहीं है। 1934 ई. के भूकंप में वह मंदिर ध्वस्त हो गया था। दूसरे स्थान पर इस सूर्य मंदिर का निर्माण कराया गया है। इस मंदिर में पुरानी मंदिर की प्रतिमाएं स्थापित की गई है। यहां स्थापित सभी प्रतिमाएं पाल कालीन बताई जाती है। शायद छठ ही एक ऐसी पूजा और व्रत है, जिसमें ब्राह्मण की कोई जरूरत नहीं होती है। इस व्रत में जजमान ही स्वयं ब्राह्मण होते हैं। यह पूजन कोई पंडित द्वारा नहीं कराया जाता है। बल्कि सूर्य उपासक स्वयं करते हैं। ईश्वर और आस्था के बीच सीधे संवाद का यह व्रत माना जाता है। इस पर्व में जीवनदायिनी की आराधना की जाती है। चाहे वह जल की हो या सूर्य या फल के रूप में वनस्पतियों की। महापर्व छठ साल में दो बार यानी कार्तिक और चैत्र माह में होता है, जिसमें लोग भगवान भास्कर की पूजा करते हैं। छठ पर्व के मौके पर यहां लाखों लोग भगवान भास्कर की अराधना के लिए आते हैं। छठ पूजा के दिन माता छठी की पूजा की जाती है। जिन्हें छठी मैयां कहते है। शास्त्रों के अनुसार छठी मैयां को सूर्य भगवान के बहन कहा गया है। इसलिए इस दिन सूर्य भगवान के पूजा का काफी महत्त्व है। सूर्य भगवान के कारण ही इस जगत पर जीवन है। मार्कण्डय पुराण में सृष्टि के अधिष्ठात्री देवी प्रकृति ने खुद को छः भागों में बांटा हुआ है और इसके छठे अंश को मातृ देवी के रूप में पूजा जाता है जो भगवान ब्रह्मा की मानस पुत्री है। बच्चे के जन्म के छठवें दिन बाद भी छठी मैया की पूजा की जाती है और उनसे प्रार्थना की जाती है की वो बच्चे को स्वस्थ, सफलता और दीर्घ आयु का वरदान दें।

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चार दिविसीय छठ महापर्व का आयोजन

छठ पर्व वर्ष भर में दो बार कार्तिक छठ पर्व और चैती छठ पर्व, दोनों माह के शुक्ल पक्ष चतुर्थी तिथि से सप्तमी तिथि तक मनाया जाता है। पहले दिन शुक्ल चतुर्थी को नहाय खाय के रूप में मनाया जाता है। सबसे पहले घर की साफ सफाई कर स्वच्छ व पवित्र बनाया जाता है। इसके बाद छठव्रति नदी तालाब या कुआं के जल मे स्नान कर पवित्र तरीके से कदू, चने की दाल और अरवा चावल का प्रसाद बनाकर भगवान को भोग लगाने के बाद व्रती को प्रसाद ग्रहण करने के बाद अन्य लोगों को प्रसाद खिलाया जाता है। दूसरे दिन शुक्ल पक्ष पंचवी को व्रति दिनभर उपवास रहकर मीठा चावल, घी चुपड़ी रोटी और चावल का पीठा बनाकर शाम को भगवान भास्कर को भोग लगाकर व्रती भोजन प्रसाद ग्रहण करती हैं उसके बाद लोगों को लोहंडा का प्रसाद ग्रहण करवाया जाता है। इस दिन नमक या चीनी का प्रयोग नही किया जाता है। इसी समय के बाद व्रती लोग क 36 घंटे का निर्जल उपवास व्रत शुरू हो जाता है। तीसरे दिन शुक्ल पक्ष षष्ठी को दिन में छठ का प्रसाद बनाया जाता है। प्रसाद के रूप में ठेकुआ, चावल के लड्डू बनाते है। इसके अलावा प्रसाद के रूप में फल भी चढ़ाया जाता है। बांस की टोकरी में प्रसाद सजाकर अर्ध्य का सूप सजाया जाता है। व्रती लोग सपरिवार के साथ अस्ताचल गामी सूर्य भगवान को विधिवत पूजा करते हुए जल और दूध के अर्ध्य देती है। चौथे दिन शुक्ल पक्ष सप्तमी को सुबह उगते उदयाचल सूर्य को व्रती लोग सपरिवार पुनः सूर्य भगवान को विधिवत पूजा करते हुए जल और दूध के अर्ध्य देती है। खरना के बाद शुरू हुआ व्रतियों का 36 घंटों का निर्जला उपवास अस्ताचलगामी सूर्य एवं उदीयमान सूर्य को अर्घ्य देने के बाद संपन्न हो जाता है। इसके बाद व्रती लोग निर्जल उपवास को कच्चे दूध का शरबत और प्रसाद ग्रहण कर पूर्ण करती है। जिसे पारण कहते है। कहा जाता है कि जो श्रद्धालु भक्त मन से इस मंदिर में भगवान सूर्य की पूजा करते हैं, उनकी मनोकामनाएं पूर्ण होती है। यहां मंदिर के समीप स्थित सूर्यकुंड तालाब का विशेष महत्व है। इस तालाब में स्नान कर व्रती सूर्य भगवान की आराधना करते हैं।प्रति रविवार को असंख्यं श्रधालु भक्ततगण बड़गांव सूर्य मंदिर आकर तालाब में स्नान के बाद भगवान भास्कार का पूजन करते हैं। यहाँ सालभर देश के विभिन्न जगहों से लोग इस मंदिर में दर्शन के लिए आते रहते हैं और मनौतियां मांगते हैं, मनौती पूरी होने पर यहां लोग भगवान भास्कर को अघ्र्य देने के लिए विशेषकर आया करते है।

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भगवान कृष्ण ने अपने पुत्र को दिया था शाप

ऐसी मान्यता है कि द्वापर युग में श्री कृष्ण के पुत्र साम्ब काफी रूपवान थे। उन्हें देखकर रानियां भी मोहित हो जाती थीं। एक बार की बात है कि वे सरोवर में रानियों के साथ रास रचा रहे थे, तभी उधर से नारद मुनि गुजरे। रास रचाने में व्यस्त साम्ब ने उनका अभिवादन नहीं किया, जिससे वे कुपित हो गए और उन्होंने जाकर श्रीकृष्ण से इसकी शिकायत की। श्री कृष्ण को इस पर विश्वास नहीं हुआ, लेकिन नारद मुनि के बहुत कहने पर जब वे सरोवर की ओर गए तो उन्हें भी यह दृश्य दिखा। कुपित होकर उन्होंने अपने पुत्र को कुष्ठ रोग का शिकार होने का श्राप दे दिया।

शाप से मुक्ति का भगवान सूर्य ने ही बताया उपाय

धार्मिक मान्यताओं एवं आस्थाओं के अनुसार राजा साम्ब द्वारा अपने पिता कृष्ण से काफी क्षमा याचना के बाद श्रीकृष्ण ने कहा कि तुम्हें दिया गया श्राप तो वापस नहीं लिया जा सकता, लेकिन इसका उपाय नारद मुनि ही बता सकते हैं। तब वे नारद मुनि के पास गए और उनसे श्राप से मुक्ति का उपाय पूछा। नारद अपने साथ साम्ब को लेकर श्रीकृष्ण के दरबार में पहुंचे तो श्रीकृष्ण ने कहा कि इसके लिए सूर्य भगवान की उपासना करनी होगी। साम्ब ने सूर्य भगवान की उपासना की। तब जाकर सूर्य भगवान प्रकट हुए और 12 जगहों पर सूर्य धाम की स्थापना कर वहां अपनी प्रतिमा स्थापित कर पूजा करने को कहा। जिससे कंचन काया प्राप्त होगी। सूर्य देव द्वारा शाप मुक्ति के बताए गए रास्ते पर चलकर 12 वर्षों में देश के 12 स्थानों पर सूर्य धाम की स्थापना की गई। जिसमें औंगारी और बड़गांव सूर्य धाम शामिल है। प्रचलित धारणाओं के अनुसार राजा साम्ब ने ही बड़गांव सूर्य तालाब में दो कुण्ड बनवाये थे, जो आज भी जीर्ण-शीर्ण हालत में तालाब में मौजूद है। राजा साम्ब ने इस स्थल की खुदाई कराई तो भगवान सूर्य की मूर्ति मिली, जो सात घोड़े के रथ पर सवार, रथ के दोनों तरफ कमल का फूल और बीच में सूर्य भगवान के भाई श्यमदित, बांयी ओर कल्पादित, दाहिनी ओर माता अदिति की प्रतिमाएं मिली जो आज मंदिर में स्थापित है।

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इन 12 जगहों पर हुई थी सूर्य धाम की स्थापना : – लोलार्क, चोलार्क, अलार्क, अंगारक वर्तमान में औंगारी, पून्यार्क, बरारक वर्तमान में बड़गांव, देवार्क, कोणार्क, ललितार्क, यामार्क, खखोलार्क और उतार्क में सूर्य धाम की स्थापना साम्ब ने कराई थी।

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