बिहार में नालंदा का भारत छोडो आंदोलन और हिलसा थाना गोलीकांड

राकेश बिहारी शर्मा – सन् 1857 में भारत में पहला स्वतंत्रता संग्राम आरंभ हुआ, जिसमें अंग्रेजों के विरुद्ध व्यापक स्तर पर सशस्त्र संघर्ष हुआ, लेकिन इसका क्षेत्र सीमित था। अंग्रेजों के विरुद्ध यह संघर्ष दिल्ली, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्य प्रदेश के कुछ क्षेत्रों तक सीमित रहा। देश के अन्य क्षेत्रों से अंग्रेजों की सहायता के लिए शीघ्र ही भारी मात्रा में मदद पहुँच गई। यह विद्रोह दबा दिया गया, लेकिन संघर्ष चलता रहा। 9 अगस्त, 1942 को अंग्रेजों के खिलाफ देशव्यापी आंदोलन आरंभ हुआ। बिहार में ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ की सुगबुगाहट द्वितीय विश्वयुद्ध के आरंभिक दौर से शुरू हुई, जब ब्रितानी सरकार ने बिना घोषणा और स्थानीय नेताओं को विश्वास में लिये भारतीय फौज को विश्वयुद्ध में झोंक दिया।

अंग्रेज सरकार की इस कारगुजारी का देश सहित बिहार में भी विरोध हुआ 7 व 8 अगस्त, 1942 को बंबई में आयोजित कांग्रेस के विशेष अधिवेशन में ‘भारत छोड़ो’ प्रस्ताव पारित हुआ और तीन मुख्य बातें उभरकर सामने आईं। पहली, ‘करो या मरो’; दूसरी, ‘अंग्रेजो, भारत छोड़ो’ और तीसरी, ‘आज से हर भारतवासी अपने को स्वतंत्र समझे।’ भारत आजाद कराने के लिए अब वह अपना नेता स्वयं है उसे अन्य किसी नेतृत्व की आवश्यकता नहीं है। इसके बाद देश भर में अंग्रेजों के विरुद्ध आंदोलन आरंभ हो गया। बिहार में भी जगह-जगह आंदोलन हो रहे थे। आंदोलनों का नेतृत्व जयप्रकाश नारायण, डॉ. राममनोहर लोहिया, रामवृक्ष बेनीपुरी, बाबू श्यामनंदन, कार्तिक प्रसाद आदि क्रांतिकारी नेताओं के हाथों में था।

अंगरेजी सरकार के विरुद्ध बिहार में क्रांतिकारियों का आजाद दस्ता

क्रांतिकारियों ने ‘आजाद दस्ता’ नाम का एक संगठन बना लिया था। इसकी स्थापना जयप्रकाश नारायण ने नेपाल की तराई के जंगलों में रहकर की थी। यह दस्ता क्रांतिकारियों को छापामार युद्ध एवं विदेशी शासन के विरुद्ध लड़ाई का प्रशिक्षण देता था। इसने ब्रितानी सरकार को नाकों चने चबवा दिए थे। काफी धर पकड़ के बाद आखिर मई 1943 में जयप्रकाश नारायण, डॉ. लोहिया, रामवृक्ष बेनी पुरी आदि नेताओं को गिरफ्तार कर हनुमान नगर जेल में डाल दिया गया।

क्रांतिकारी सियाराम ब्रह्मचारी दल

इस दल का गठन सियाराम सिंह ने किया। वे सुल्तानगंज के तिलकपुर गाँव के निवासी थे। यह दल सरकारी खजाने को लूटकर उनसे अस्त्र-शस्त्र खरीदता था और युवा क्रांतिकारियों को प्रशिक्षित करके आजादी की लड़ाई में शामिल करता था। ज्यादातर यह दल अपनी गतिविधियाँ गुप्त रूप से संचालित करता था, लेकिन पुलिस के साथ इसकी खूनी झड़पें आम थीं। इस संगठन का प्रभाव मुंगेर, बलिया, भागलपुर, सुल्तानगंज, पूर्णिया आदि जिलों में व्याप्त था। बाँका-देवघर के पहाड़ों में खौजरी पहाड़, मंदार, बाराहाट और ढोलपहाड़ी जैसे दुर्गम स्थान इन आंदोलनकारियों के छिपने के ठिकाने थे, जहाँ बैठकर ये भारत को आजाद कराने की योजनाएँ बनाया करते थे।

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सचिवालय गोलीकांड और आंदोलनकारियों द्वारा राष्ट्रीय झंडा फहराना

अंग्रेजो, भारत छोड़ो के राष्ट्रीय आह्वान पर 11 अगस्त, 1942 के दिन बिहार की राजधानी पटना में छात्रों का एक समूह जुलूस निकालता हुआ सचिवालय की ओर बढ़ रहा था। इनका इरादा सचिवालय भवन के सामने विधायिका की इमारत पर राष्ट्रीय झंडा फहराना था। जुलूस में प्राथमिक छात्रों से लेकर कॉलेज के सीनियर छात्र तक शामिल थे। सभी छात्र हाथों में तख्तियाँ लिये आजादी के तराने गाते हुए आगे बढ़ रहे थे कि सहसा उनकी ओर ताबड़तोड़ गोलियों की बौछार होने लगी। एकाएक जैसे आसमान टूट पड़ा हो। किसी की समझ में नहीं आया, क्या और कैसे हुआ ? जब तक समझे, तब तक देर हो चुकी थी। पटना के जिलाधिकारी डब्ल्यू. जी. आर्थर ने निहत्थे छात्रों पर गोली चलवा दी थी। पुलिस ने 13-14 राउंड गोलियाँ बरसाईं। चीख-पुकार और खून से सचिवालय का इलाका थर्रा उठा। 25 से ज्यादा छात्र गंभीर रूप से घायल हुए और 7 छात्र शहीद हो गए।
इस घटना के बाद भारत छोड़ो आंदोलन ने बिहार में और भी उग्र रूप ले लिया। राज्य भर में पुलिस और आंदोलनकारियों में खूनी झड़पें होने लगीं। 9 नवंबर, 1942 को दीवाली थी। पुलिस की निष्क्रियता का लाभ उठाकर जयप्रकाश नारायण, रामनंदन मिश्र, योगेंद्र शुक्ला, सूरज नारायण सिंह आदि क्रांतिकारी नेता हजारीबाग जेल की दीवार फाँदकर भाग निकले।
सचिवालय कांड के विरोध में सभी स्कूल-कॉलेज बंद कर दिए गए। अनिश्चितकालीन हड़ताल हो गई। स्कूल-कॉलेज के युवा आंदोलन में कूद पड़े । सरकार ने सख्ती की तो वे गुप्त रूप से अपनी गतिविधियाँ चलाने लगे। तब ऐसा लगा कि शीघ्र ही अंग्रेजी सरकार को भारत से खदेड़कर, हिंद महासागर में डुबोकर उसका अंत कर दिया जाएगा, किंतु ऐसा हुआ नहीं। फिर भी इस संघर्ष और कुछ अन्य अनुकूल परिस्थितियों के कारण ब्रितानी साम्राज्य का अंत नजदीक दिखाई देने लगा था। यद्यपि इसके लिए बिहार सहित पूरे देश को भारी कीमत चुकानी पड़ी। राज्य में गुप्त रूप से आंदोलन जारी था, क्योंकि राज्य के डॉ. राजेंद्र प्रसाद, मथुरा बाबू, श्रीकृष्ण सिंह, अनुग्रह बाबू, जयप्रकाश नारायण, डॉ. लोहिया आदि बड़े नेताओं को जेल में डाल दिया गया था।

अंग्रेजो, भारत छोड़ो’ आंदोलन और हिलसा थाना का गोलीकांड

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‘अंग्रेजो, भारत छोड़ो’ आंदोलन के दौरान 15 अगस्त 1942 को हुआ हिलसा गोलीकांड ‘जलियाँवाला बाग कांड’ से भी बर्बर था, जो अंग्रेजों की दमन-नीति की जीती-जागती मिसाल है। आजादी के मतवाले बिहार के रणबांकुरे पूरे प्रदेश में अंग्रेजों के विरुद्ध प्रदर्शन कर रहे थे। ऐसे में नालंदा जिले के हिलसा थाने पर तिरंगा फहराने के लिए सैकड़ों क्रांतिकारी आ जुटे। क्रांतिकारियों के हाथों में तिरंगा, होंठों पर ‘वंदे मातरम्’ था और बीच-बीच में ‘भारतमाता की जय’ से आसमान गूँज उठता था। ऐसे देशभक्तिपूर्ण माहौल को अंग्रेज अफसर बरदाश्त नहीं कर सके। उन्होंने निहत्थे देशभक्तों पर गोली चलाने का हुक्म दे दिया। इस गोलीकांड में 11 क्रांतिकारी शहीद हुए। मातृभूमि की रक्षा के लिए जान देनेवाले और जान लेनेवाले, दोनों तरह के सेनानियों ने अंग्रेज सरकार की नाक में दम कर रखा था। देश को आजाद कराने के लिए चली लंबी स्वतंत्रता आंदोलन में लाखों देशवासियों ने अपने प्राणों की आहुति दी थी। इसमें हिलसा के वीर सपूत भी पीछे नहीं थे। यहां तो अगस्त क्रांति के दौरान देश को आजाद कराने के दीवाने नौजवानों ने न केवल हिलसा थाने पर तिरंगा लहराया था बल्कि ब्रिटिश हुकूमत के सिपाहियों की वर्दी भी उतरवा ली थी। इससे बौखला कर ब्रिटिश सिपाहियों द्वारा चलाई गई अंधाधुंध गोली से 11 नौजवान शहीद हो गए थे। वहीं, अनुमंडल के कई स्वतंत्रता सेनानियों की जिदगी जेल में कटी थी। उन वीर शहीदों एवं स्वतंत्रता सेनानियों की कुर्बानी को भुलाया नहीं जा सकता है। कहा जाता है कि भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान 1942 की अगस्त क्रांति के दौरान पटना में एक साथ सात युवा शहीद हो गए थे। 11 अगस्त 1942 को पटना से आए छात्रों ने पटना में हुए गोलीकांड में शहीद साथियों को याद करते हुए हिलसा के रामबाबू हाई स्कूल के मैदान में एकत्रित होकर हिलसा थाना पर चढ़ाई करने की योजना बनाई थी। 15 अगस्त 1942 को हिलसा के देशभक्त नौजवानों ने अंग्रेजों भारत छोड़ो के जोश पूर्ण इंकलाबी नारों के साथ विशाल जुलूस निकालकर हिलसा थाने पर धावा बोल दिया था। इसमें आजादी के दीवाने 11 छात्र नौजवान वहीं पर शहीद हो गए तथा दर्जनों जख्मी हो गए थे। उस समय की यादों को संजोए बुजुर्गो से सुनी बातों के अनुसार, संध्या समय भीड़ हटने पर 12 नौजवानों का लहूलुहान शरीर हिलसा थाने के ठीक सामने जमीन पर पड़ा था। उसी जमीन पर 12 नौजवानों का शरीर एकत्रित कर जलाने के लिए पुलिस ने पेट्रोल छिड़क दिया था। पेट्रोल की शीतलता से मियां बीघा गांव के घायल नौजवान राम बिहारी त्रिवेदी की तंद्रा भंग हुई थी। वे कराहते हुए पानी की रट लगा रहे थे। निकट के दुकानदार रामचंद्र साहब ने पहचाना था कि ये तो पोस्ट मास्टर बाबू के लड़के हैं। तब सिपाहियों ने चिता पर से उन्हें अलग कर पानी पिलाया था। पानी पीने के बाद होश आने पर उन्होंने चिता पर पड़े अपने 11 साथियों की गिनती की थी। उन्हें उपचार के लिए पटना पहुंचाया गया था। इसके बाद वही पर 11 शहीदों को आग के हवाले कर दिया गया था। इसमें हिलसा थाने के कछियावां निवासी 28 वर्षीय बालगोविद ठाकुर एवं कछियावां के ही 18 वर्षीय नारायण पांडेय, बढ़नपुरा के 20 वर्षीय सदाशिव महतो, बनबारा के 32 वर्षीय केवल महतो, हिलसा के 18 वर्षीय सुखारी चौधरी, गन्नीपुर के 21 वर्षीय दुखन राम, बनबारीपुर के 18 वर्षीय रामचरित्रर दुसाध , हिलसा के 25 वर्षीय शिवजी राम, मलावां के 19 वर्षीय हरिनंदन सिंह, बनबारा के 21 वर्षीय भोला सिंह, इंदौत के 20 वर्षीय भीमसेन महतो शहीद हुए थे। बताया जाता है कि उसी दिन हिलसा के श्री भगवान सिंह, जमुआरा के सहदेव सिंह एवं अन्य कांग्रेसी कार्यकर्ताओं को पुलिस ने गिरफ्तार कर हाजत में बंद कर रखा था। दिवंगत स्वतंत्रता सेनानी राम बिहारी त्रिवेदी के परिवार के पौत्र उमाशंकर त्रिवेदी ने बताया कि दादा आजादी के समय के अपने काम को बताया करते थे। उस समय उन्हें पुलिस की गोली पैर में गोली लगी थी, जिसका निशान मरते दम तक शरीर पर था।

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साइमन कमीशन का विरोध

18 दिसंबर, 1928 को ‘साइमन कमीशन’ बिहार आया तो हार्डिंग पार्क (पटना) के सामने बने विशेष प्लेटफॉर्म के सामने तीस हजार से अधिक राष्ट्रभक्तों ने ‘साइमन कमीशन’ के खिलाफ नारे लगाए। इस आंदोलन की अध्यक्षता बाबू राजेंद्र प्रसाद ने की। बिहार के देशभक्तों ने इस अवसर पर नारा दिया – “जवानो, सबेरा हुआ, साइमन भगाने का बेरा हुआ।”
इस आंदोलन ने प्रांत में आजादी की क्रांति की चिनगारी को और भड़का दिया। पटना में दानापुर रोड पर एक राष्ट्रीय पाठशाला खोली गई, जहाँ शिक्षा के साथ-साथ राष्ट्र-चेतना सिखाई जाती थी। मियाँ खैरुद्दीन के मकान को अस्थायी स्कूल में बदलकर छात्रों को पढ़ाया जाने लगा। बाद में यह जगह ‘सदाकत आश्रम’ के नाम से विख्यात हुई, जहाँ प्रांतीय और राष्ट्रीय नेता अकसर आजादी की लड़ाई की योजना बनाया करते थे।

बिहार में ब्रिटिश युवराज का विरोध

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