बहुजन नायक ललई सिंह यादव की 111 वीं जयंती पर विशेष

राकेश बिहारी शर्मा –इतिहास वह नहीं जो हमको बताया जाता है, बल्कि इतिहास वह है जिसको हमारे समाज, हमारे महापुरुषों नें सहा है और जिसके लिए संघर्ष किया और जिसे कभी लिखा ही नहीं गया। इसलिए हमारा असल इतिहास वही है जो हमारे महापुरुषों नें लिखा है, इसलिए अपनें इतिहास और हकीकत को जानने के लिए अपने महापुरुषों द्वारा लिखे इतिहास का अध्ययन करना अपनी नैतिक जिम्मेदारी है।
शिक्षित मनुष्य वही माना जा सकता है जो जागरुक है, जिसे सच और झूठ का पता है जिसे दोस्त और दुश्मन की पहचान है, जिसे शोषक और शोषित की पहचान है, जिसे जानने की जिज्ञासा है अन्यथा सच को झूँठ और झूँठ को सच मान लेना बुद्धिमत्ता नहीं, निरा मूर्खता के सिवाय और कुछ भी नहीं है, मेरी नजर में बुद्धिमान वही है जो अपना नुकसान न करे, अन्यथा अपना नुकसान खुद करने वाला सबसे बड़ा महामूर्ख होता है।
सच में इंसान वही है जिसे इतिहास,महापुरुष,समाज और समाज में रह रहे दूसरे लोगों के दर्द का एहसास हो, यही इंसान की जिंदादिली है, इसीलिए कहा गया है कि जीना है तो दूसरों के लिये भी जियो, अन्यथा अपने लिए तो जानवर भी जी लिया करते हैं।
असल में जिंदा रहना है तो लोगों के दिलों में जगह बनाओ। अन्यथा खुद के लिए चलते फिरते जिंदा रहने को जिंदा नहीं कहा जा सकता,यह काम तो जानवर भी बखूबी करता है। जंगली कुत्ते को भी अगर एक बार रोटी खिला दो तो जिंदगी भर एहसान नहीं भूलता, लेकिन हमारे समाज के अधिकांश जिम्मेदार लोगों ने समाज इतिहास और महापुरुषों का सबकुछ फ्री में हजम कर लिया और डकार तक नहीं ली, खाया अपना और हलाली दुश्मनों की, जिसकी सजा समाज सदियों तक भुगतेगा, आज हमारे पास जो भी उपलब्ध है वह महापुरुषों के कठिन संघर्षों की वजह से मिला हुआ है।

                           बहुजन नायक ललई सिंह यादव का जन्म और परिवारिक जीवन

देश का सबसे बड़ा राज्य है उत्तर प्रदेश। इस प्रदेश ने कई नायकों को जन्म दिया। यही वह प्रदेश है, जहां से पिछड़े समाज को जगाने वाले नायक बड़ी संख्या में निकले। ललई सिंह यादव का नाम उसमें प्रमुखता से शामिल है। ये अंधविश्वास-सांप्रदायिकता के ख़िलाफ़ तर्क व मानवतावाद की बात करने वाला नेता थे। बहुजन नवजागरण में इनका बहुत बड़ा योगदान था।
दलितों और पिछड़ों का मसीहा बहुजन नायक ललई सिंह यादव का जन्म 01 सितंबर, 1911 को कानपुर के कठारा गांव के एक साधारण किसान परिवार में हुआ था। पिता का नाम था चौधरी गज्जू सिंह यादव जो कि आर्यसमाजी थे। और माता मूला देवी उस क्षेत्र के मकर दादुर गाँव के जनप्रिय नेता साधौ सिंह यादव बेटी थीं। उन्हें जाति-भेद की भावना उन्हें छू भी नहीं सकी थी। उनकी गिनती गाँव-जवार के प्रभावशाली व्यक्तियों में होती थी। माता मूला देवी के पिता साधौ सिंह भी खुले विचारों के थे। समाज में उनकी प्रतिष्ठा थी। पेरियार ललई सिंह के जुझारूपन के पीछे उनके माता-पिता के व्यक्तित्व का गहरा प्रभाव था। ललई सिंह की प्रारंभिक शिक्षा गांव में ही हुई थी। ललई सिंह यादव ने 1928 में उर्दू के साथ हिन्दी से मिडिल पास किया। उन दिनों दलितों और पिछड़ों में शिक्षा के प्रति जागरूकता बढ़ने लगी थी। हालांकि सवर्ण समाज का नजरिया अब भी नकारात्मक था। उन्हें यह डर नहीं था कि दलित और शूद्र पढ़-लिख गए तो उनके पेशों को कौन करेगा। असली डर यह था कि पढ़े-लिखे दलित-शूद्र उनके जातीय वर्चस्व को भी चुनौती देंगे। उन विशेषाधिकारों को चुनौती देंगे जिनके बल पर वे शताब्दियों से सत्ता-सुख भोगते आए हैं। इसलिए दलितों और पिछड़ों की शिक्षा से दूर रखने के लिए वह हरसंभव प्रयास करते थे। ऐसे चुनौतीपूर्ण परिवेश में ललई सिंह ने 1928 में आठवीं की परीक्षा पास की। उसी दौरान उन्होंने फारेस्ट गार्ड की भर्ती में हिस्सा लिया और चुन लिए गए। वह 1929 का समय था। 1931 में मात्र 20 वर्ष की अवस्था में उनका विवाह सरदार सिंह की बेटी दुलारी देवी हुआ। दुलारी देवी पढ़ी-लिखी महिला थीं। उन्होंने टाइप और शार्टहेंड का प्रशिक्षण प्राप्त किया था। ललई सिंह को फारेस्ट गार्ड की नौकरी से संतोष न था। 1929 से 1931 तक ललई यादव वन विभाग में गार्ड रहे। सो 1933 में वे सशस्त्र पुलिस कंपनी में कनिष्ठ लिपिक बनकर चले गए। वहां उनकी पहली नियुक्ति भिंड मुरैना में हुई। नौकरी के साथ-साथ उन्होंने पढ़ाई की। 1946 में पुलिस एण्ड आर्मी संघ ग्वालियर कायम करके उसके अध्यक्ष चुने गए। ललई सिंह का पारिवारिक जीवन बहुत कष्टमय था। उनकी पत्नी जो उन्हें कदम-कदम पर प्रोत्साहित करती थीं, वे 1939 में ही चल बसी थीं। परिजनों ने उनपर दूसरे विवाह के लिए दबाव डाला, जिसके लिए वे कतई तैयार न थे। सात वर्ष पश्चात 1946 में उनकी एकमात्र संतान, उनकी बेटी शकुंतला का मात्र 11 वर्ष की अवस्था में निधन हो गया। कोई दूसरा होता तो कभी का टूट जाता। परंतु समय मानो बड़े संघर्ष के लिए उन्हें तैयार कर रहा था। निजी जीवन दुख-दर्द उन्हें समाज में व्याप्त दुख-दर्द से जोड़ रहे थे।

See also  मधुमक्खी पालन के सेवानिवृत्त इंस्पेक्टर का निधन

                      ललई सिंह यादव का विद्रोह और “सिपाही की तबाही” पुस्तक की रचना

वर्ष 1946 में उन्होंने “सिपाही की तबाही” पुस्तक की रचना की। “सिपाही की तबाही” छप न सकी। भला कौन प्रकाशक ऐसी पुस्तक छापने को तैयार होता! सो ललई सिंह ने टाइप कराकर उसकी प्रतियां अपने साथियों में बंटवा दीं। पुस्तक लोक-सुरक्षा की जिम्मेदारी उठाने वाले सिपाहियों के जीवन की त्रासदी पर आधारित थी। परोक्षरूप में वह व्यवस्था के नंगे सच पर कटाक्ष करती थी। पुस्तक में सिपाही और उसकी पत्नी के बीच बातचीत के माध्यम से घर की तंगहाली को दर्शाया गया था।
पुस्तक में आजादी और लोकतंत्र दोनों की मांग थी। पुस्तक के सामने आते ही पुलिस विभाग में खलबली मच गई। सैन्य अधिकरियों को पता चला तो पुस्तक की प्रतियां तत्काल जब्त करने का आदेश जारी कर दिया। उस घटना के बाद ललई सिंह अपने साथियों के ‘हीरो’ बन गए। मार्च 1947 में जब आजादी कुछ ही महीने दूर थी, उन्होंने अपने साथियों को संगठित करके “नान-गजेटेड पुलिस मुलाजिमान एंड आर्मी संघ” के बैनर तले हड़ताल करा दी। सरकार ने ‘सैनिक विद्रोह’ का मामला दर्ज कर, भारतीय दंड संहिता की धारा 131 के अंतर्गत मुकदमा दायर कर दिया। ललई सिंह को पांच वर्ष के सश्रम कारावास तथा 5 रुपये का अर्थदंड सुना दिया। वे जेल में चले गए। इस बीच देश आजाद हुआ। अन्य रजबाड़ों की तरह ग्वालियर स्टेट भी भारत गणराज्य का हिस्सा बन गया। 12 जनवरी को 1948 को लगभग 9 महीने की सजा काटने के बाद, ललई सिंह को कारावास से मुक्ति मिली। वे वापस सेना में चले गए।

See also  डेंगू के बढ़ते प्रकोप से सफाई का समुचित जागरूकता लाने के लिए सृजन द्वारा नुक्कड़ नाटक का आयोजन

                     ललई सिंह यादव का सामाजिक और राजनीतिक मोर्चे पर संघर्ष

ललई सिंह यादव 1950 में सेना से सेवानिवृत्त होने के पश्चात उन्होंने अपने पैतृक गांव झींझक को स्थायी ठिकाना बना लिया। वैचारिक संघर्ष को आगे बढ़ाने के लिए वहीं उन्होंने “अशोक पुस्तकालय” नामक संस्था गठित की। साथ ही “सस्ता प्रेस” के नाम से प्रिंटिंग प्रेस भी आरंभ किया। कारावास में बिताए नौ महीने ललई सिंह के नए व्यक्तित्व के निर्माण हुआ। जेल में रहते हुए उन्होंने प्राचीन भारतीय ग्रंथों का अध्ययन किया। धीरे-धीरे हिंदू धर्म की कमजोरियां और ब्राह्मणवाद के षड्यंत्र सामने आने लगे। जिन दिनों उनका जन्म हुआ था, भारतीय जनता आजादी की कीमत समझने लगी थी। होश संभाला तो आजादी के आंदोलन को दो हिस्सों में बंटे पाया। पहली श्रेणी में अंग्रेजों को जल्दी से जल्दी बाहर का रास्ता दिखा देने वाले नेता थे। उन्हें लगता था वे राज करने में समर्थ हैं। उनमें से अधिकांश नेता उन वर्गों से थे जिनके पूर्वज इस देश में शताब्दियों से राज करते आए थे। लेकिन आपसी फूट, विलासिता और व्यक्तिगत ऐंठन के कारण वे पहले मुगलों और बाद में अंग्रेजों के हाथों सत्ता गंवा चुके थे। देश की आजादी से ज्यादा उनकी चाहत सत्ता में हिस्सेदारी की थी। वह चाहे अंग्रेजों के रहते मिले या उनके चले जाने के बाद। 1930 तक उनकी मांग ‘स्वराज’ की थी। ‘राज’ अपना होना चाहिए, ‘राज्य’ इंग्लेंड की महारानी का भले ही रहे। स्वयं गांधी जी ने अपनी चर्चित पुस्तक “हिंद स्वराज” का शीर्षक पहले “हिंद स्वराज्य” रखा था। बाद में उसे संशोधित कर, अंग्रेजी संस्करण में “हिंद स्वराज” कर दिया था। “स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है” नारे के माध्यम से तिलक की मांग भी यही थी। वर्ष 1930 में, विशेषकर भगत सिंह की शहादत के बाद जब उन्हें पता चला कि जनता ‘स्वराज’ नहीं, ‘स्वराज्य’ चाहती है, तब उन्होंने अपनी मांग में संशोधन किया था। आगे चलकर जब उन्हें लगा कि औपनिवेशिक सत्ता के बस गिने-चुने दिन बाकी हैं, तो उन्होंने खुद को सत्ता दावेदार बताकर, संघर्ष को आजादी की लड़ाई का नाम दे दिया। अब वे चाहते थे कि अंग्रेज उनके हाथों में सत्ता सौंपकर जल्दी से जल्दी इस देश से चले जाएं।
दूसरी श्रेणी में वे नेता थे, जो सामाजिक आजादी को राजनीतिक आजादी से अधिक महत्त्व देते थे। मानते थे कि बिना सामाजिक स्वाधीनता के राजनीतिक स्वतंत्रता अर्थहीन है। कि राजनीतिक स्वतंत्रता से उन्हें कुछ हासिल होने वाला नहीं है। उनकी दासता और उसके कारण हजारों साल पुराने हैं। नई शिक्षा ने उनके भीतर स्वाभिमान की भावना जाग्रत की थी। उनकी लड़ाई अंग्रेजों से कम, अपने देश के नेताओं से अधिक थी। वे सामाजिक और राजनीतिक मोर्चे पर साथ-साथ जूझ रहे थे। महामना फुले, संतराम बी.ए., अय्यंकालि, डॉ. आंबेडकर, पेरियार जैसे नेता इसी श्रेणी में आते हैं। स्वयं ललई सिंह इस श्रेणी से थे और जिस परिवेश से जूझते हुए वे निकले थे, उसमें अपना मोर्चा चुन लेना कोई मुश्किल बात न थी।

                   जेल में रहते हुए ललई सिंह यादव ने डा. आंबेडकर के भाषणों को सुना

जेल में रहते हुए ललई सिंह यादव ने डा. आंबेडकर के भाषणों को सुना था, जिन्होंने हिंदू धर्म को धर्म मानने से ही इन्कार कर दिया था। आंबेडकर स्वयं हिंदू धर्म तथा उसके ग्रंथों को राजनीति मानते थे। कांग्रेसी नेताओं के व्यवहार से यह सिद्ध भी हो रहा था। 1930 के आसपास दलितों और पिछड़ी जातियों में राजनीतिक चेतना का संचार हुआ था। “त्रिवेणी संघ” जैसे संगठन उसी का सुफल थे। उसकी काट के लिए कांग्रेस ने पार्टी में पिछड़ों के लिए अलग प्रकोष्ठ बना दिया था। उसका मुख्य उद्देश्य था, किसी न किसी बहाने पिछड़ों को उलझाए रखकर उनके वोट बैंक को कब्जाए रखना।
दूसरा कारण पिछड़ी जातियों में शिक्षा का बढ़ता स्तर तथा उसके फलस्वरूप उभरती बौद्धिक चेतना थी। उससे पहले पंडित अपने प्रत्येक स्वार्थ को ‘शास्त्रोक्त’ बताकर थोप दिया करते थे। बदले समय में बहुजन उन ग्रंथों को सीधे पढ़कर निष्कर्ष निकाल सकते थे। इसलिए महाकाव्य और पौराणिक कृतियां जिनका प्रयोग ब्राह्मणादि अल्पजन बहुजनों को फुसलाने के लिए करते थे, जिनमें बहुजनों के प्रति अन्याय और अपमान के किस्से भरे पड़े थे- वे अनायास ही आलोचना के केंद्र में आ गईं। हमें याद रखना चाहिए कि उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, हरियाणा आदि राज्यों में निर्णायक राजनीतिक शक्ति बन चुके यादवों को क्षत्रिय मानने पर ब्राह्मणादि अल्पजन आज भले ही मौन हों, मगर उससे पहले वे उनकी निगाह ‘क्षुद्र’ यानी शूद्र ही थे। महाभारत जिसमें कृष्ण को अवतार के रूप में प्रस्तुत किया गया है, उसमें भी ऐसे अनेक प्रसंग हैं जब कृष्ण का उसकी जाति के आधार पर मखौल उड़ाया जाता है। डी. आर. भंडारकर यादवों को भारतीय वर्ण-व्यवस्था से बाहर का गण-समूह यानी पंचम वर्ण का मानते हैं।

See also  बिहार के कटिहार में बेहतर बिजली आपूर्ति को लेकर विरोध प्रदर्शन हिंसक होने पर पुलिस गोलीबारी में 2 की मौत हो गई; मौत के बाद फूटा लोगों का गुस्सा, जमकर मचाया हंगामा

                                    ललई सिंह यादव द्वारा सच्ची रामायण लिखना

ललई सिंह यादव सच्चे मानवतावादी थे। आस्था से अधिक महत्त्व वे तर्क को देते थे। सच्ची रामायण के प्रकाशन के पीछे उनका उद्देश्य हिंदुओं की धार्मिक भावनाओं को खारिज करना न होकर, मिथों की दुनिया से बाहर निकलकर जीवन-जगत के बारे तर्क संगत ढंग से सोचने और उसके बाद फैसला करने के लिए प्रेरित करना था। ललई सिंह यादव सच्ची रामायण के माध्यम से समाज में व्याप्त अंधविश्वास, कर्मकांड को दूर करके नई समाज की रचना कराई। ललई सिंह का कहना था कि बलि बकरे को दी जाती है शेर को नहीं। हमें शेर बनना होगा।

                             ललई सिहं यादव ने सामाजिक न्याय के लिए पुस्तकों की रचना की

ललई सिहं यादव ने सामाजिक न्याय के लिए संघर्ष किया और सामाजिक न्याय के अपने लक्ष्य के लिए अनेक पुस्तकों की रचना की। श्री ललई सिंह यादव को उत्तर भारत का ‘पेरियार’ कहा जाता है। उन्होंने 5 नाटक लिखे- (1) अंगुलीमाल नाटक, (2) शम्बूक वध, (3) सन्त माया बलिदान, (4) एकलव्य, और (5) नाग यज्ञ नाटक. गद्य में भी उन्होंने 3 पुस्तके लिखीं – (1) शोषितों पर धार्मिक डकैती, (2) शोषितों पर राजनीतिक डकैती, और (3) सामाजिक विषमता कैसे समाप्त हो? एशिया के सुकरात कहे जाने वाले दक्षिण भारत के महान क्रांतिकारी पैरियार इरोड वेंकट नायकर रामासामी जी उस समय उत्तर भारत में कई दौरे हो रहे थे जिनसे ललई सिंह यादव जी उनके सम्पर्क में आये थे।

Leave a Comment