राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की 136 वीं जयंती पर विशेष

राकेश बिहारी शर्मा – हिन्दी साहित्य में गद्य को चरम तक पहुचाने में जहां प्रेमचंद्र का विशेष योगदान माना जाता है वहीं पद्य और कविता में राष्ट्र कवि मैथिलीशरण गुप्त को सबसे आगे माना जाता है। अपनी कविताओं से मैथिलीशरण गुप्त ने कविता के क्षेत्र में अतुल्य सहयोग दिया है। हिन्दी साहित्य के इतिहास में मैथिलीशरण गुप्त खड़ी बोली के प्रथम महत्त्वपूर्ण कवि हैं। राष्ट्र कवि मैथिलीशरण गुप्त की 3 अगस्त को जयंती है। उनकी कृति भारत-भारती भारत के स्वतंत्रता संग्राम के समय में काफी प्रभावशाली सिद्ध हुई थी और और इसी कारण महात्मा गांधी ने उन्हें ‘राष्ट्रकवि’ की पदवी भी दी थी। उनकी जयंती 3 अगस्त को हर वर्ष ‘कवि दिवस’ के रूप में मनाया जाता है।

मैथिलीशरण गुप्त का जीवन परिचय और शिक्षा

हिन्दी साहित्याकाश के दैदीप्यमान नक्षत्रों में से एक राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त का जन्म झांसी के एक भारतीय संस्कारों से परिपूर्ण काव्यानुरागी एवं एक प्रतिष्ठित वैश्य परिवार में 3 अगस्त 1886 को पिता सेठ रामचरण गुप्त और माता काशी बाई की तीसरी संतान के रूप में उत्तर प्रदेश में झांसी के पास चिरगांव में हुआ था। माता और पिता दोनों ही वैष्णव थे। इनके पिता हिन्दी के अच्छे कवि थे। पिता से ही इनको कविता लिखने की प्रेरणा मिली।
इन्हें काव्य रचना का संस्कार विरासत में मिला। इनके पिता सेठ रामचरण गुप्त जी कनकलता, स्वर्णलता और हेमलता आदि उपनामों से कविता लिखते थे। ‘रहस्य रामायण’ और ‘सीताराम दम्पत्ति’ इनकी प्रमुख रचनाएं हैं। मैथिलीशरण गुप्त को पिता से ‘रामभक्ति’ और अंग्रेजों के प्रति नफरत का संस्कार मिला। विद्यालय में खेलकूद में अधिक ध्यान देने के कारण पढ़ाई अधूरी ही रह गई। घर में ही हिन्दी, बंगला, संस्कृत साहित्य का अध्ययन किया। 12 वर्ष की अवस्था में ब्रजभाषा में कनकलता नाम से कविता रचना आरंभ किया।
हिंदी साहित्य के प्रखर नक्षत्र, माँ भारती के वरद पुत्र मैथिलीशरण गुप्त की प्रारम्भिक शिक्षा चिरगांव, झांसी के राजकीय विद्यालय में हुई। प्रारंभिक शिक्षा समाप्त करने के उपरान्त गुप्त जी झांसी के मेकडॉनल हाईस्कूल में अंग्रेज़ी पढ़ने के लिए भेजे गए, पर वहां इनका मन न लगा और दो वर्ष बाद ही घर पर इनकी शिक्षा का प्रबंध किया, लेकिन पढ़ने की अपेक्षा इन्हें चकई फिराना और पतंग उड़ाना अधिक पसंद था। फिर भी इन्होंने घर पर ही संस्कृत, हिन्दी तथा बांग्ला साहित्य का व्यापक अध्ययन किया। इन्हें ‘आल्हा’ पढ़ने में भी बहुत आनंद आता था।

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मैथिलीशरण गुप्त का राजनैतिक सफर

वह ऐसे कवि थे, जिनकी कविताओं से हर निराश मन को प्ररेणा मिल जाती थी. कविता की दुनिया के सरताज मैथलीशरण गुप्त को राष्ट्रकवि के नाम से भी जाना जाता है। 16 अप्रैल 1941 को वे व्यक्तिगत सत्याग्रह में भाग लेने के कारण गिरफ्तार कर लिए गए। पहले उन्हें झांसी और फिर आगरा जेल ले जाया गया। आरोप सिद्ध न होने के कारण उन्हें सात महीने बाद छोड़ दिया गया। सन 1948 में आगरा विश्वविद्यालय से उन्हें डी.लिट. की उपाधि से सम्मानित किया गया। 1952-1964 तक राज्यसभा के सदस्य मनोनीत हुए। सन 1953 ई. में भारत सरकार ने उन्हें पद्म विभूषण से सम्मानित किया। तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ॰ राजेन्द्र प्रसाद ने सन 1962 ई. में अभिनंदन ग्रंथ भेंट किया और हिंदू विश्वविद्यालय के द्वारा डी.लिट. से सम्मानित किया गया। वह वहां मानद प्रोफेसर के रूप में नियुक्त भी हुए थे। 1954 में साहित्य एवं शिक्षा क्षेत्र में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया। चिरगांव में उन्होंने 1911 में साहित्य सदन नाम से स्वयं की प्रेस शुरू की और झांसी में 1954-55 में मानस-मुद्रण की स्थापना की।

मैथिलीशरण गुप्त की रचनाएँ

मैथिलीशरण गुप्त जी के काव्य में राष्ट्रीयता और गांधीवाद की प्रधानता है। इसमें भारत के गौरवमय अतीत के इतिहास और भारतीय संस्कृति की महत्ता का ओजपूर्ण प्रतिपादन है। आपने अपने काव्य में पारिवारिक जीवन को भी यथोचित महत्ता प्रदान की है और नारी मात्र को विशेष महत्व प्रदान किया है। मैथिलीशरण स्वभाव से ही लोकसंग्रही कवि थे और अपने युग की समस्याओं के प्रति विशेष रूप से संवेदनशील रहे। उनका काव्य एक ओर वैष्णव भावना से परिपूर्ण था, तो साथ ही जागरण व सुधार युग की राष्ट्रीय नैतिक चेतना से अनुप्राणित भी था। लाला लाजपतराय, बाल गंगाधर तिलक, विपिनचंद्र पाल, गणेश शंकर विद्यार्थी और मदनमोहन मालवीय उनके आदर्श रहे। अपने कवि जीवन में गुप्त ने कई विशिष्ट काव्य रचनाएं की. “साकेत” आधुनिक युग का एक अति प्रसिद्ध महाकाव्य है।
गुप्त जी कबीर दास के भक्त थे। पं महावीर प्रसाद दद्विवेदी जी की प्रेरणा से आपने खड़ी बोली को अपनी रचनाओं का माध्यम बनाया। मैथिलीशरण गुप्त की कविताओं से हर निराश मन को एक प्रेरणा मिल जाती थी. हिन्दी साहित्य के इतिहास में वे खड़ी बोली के प्रथम महत्त्वपूर्ण कवि हैं। उन्हें साहित्य जगत में ‘दद्दा’ नाम से सम्बोधित किया जाता था। उन्होंने लगभग 40 ग्रंथ रचे तथा खड़ी बोली को सरल प्रवाहमय और सशक्त बनाया। इनकी मुख्य काव्य-कृतियां हैं-
महाकाव्य :- साकेत, यशोधरा। खण्डकाव्य :- जयद्रथ वध, भारत-भारती, पंचवटी, द्वापर, सिद्धराज, नहुष, अंजलि और अर्घ्य, अजित, अर्जन और विसर्जन, काबा और कर्बला, किसान, कुणाल गीत, गुरु तेग बहादुर, गुरुकुल, जय भारत, युद्ध, झंकार, पृथ्वीपुत्र, वक संहार, शकुंतला, विश्व वेदना, राजा प्रजा, विष्णुप्रिया, उर्मिला, लीला, प्रदक्षिणा, दिवोदास, भूमि-भाग।
नाटक :- रंग में भंग, राजा-प्रजा, वन वैभव, विकट भट, विरहिणी, वैतालिक, शक्ति, सैरन्ध्री, स्वदेश संगीत, हिड़िम्बा, हिन्दू, चंद्रहास लिखे ।

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मैथिलीशरण गुप्त की भक्ति भावना

गुप्त जी परम वैष्णव थे। राम के अनन्य होते हुए भी वे सब धर्मों तथा सम्प्रदायों के प्रति आदर भाव रखते है। तुलसी के बाद रामभकत कवियों में इन्हीं का स्थान है। सभी अवतारों में विश्वास तथा श्रद्धा रखते हुए भी भगवान्‌ का रामरूप ही उन्हें अधिक प्रिय रहा है। भक्ति के साथ दैन्य-भाव भी इनके काव्य में पाया जाता है। तुलसी जैसी रामभक्ति की अनन्यता गुप्त जी के काव्य में देखी जा सकती है।

मैथिलीशरण गुप्त की भारतीय सभ्यता,संस्कृति व नारी सम्मान

मैथिलीशरण गुप्त जी भारतीय सभ्यता व संस्कृति के परमभक्त थे, लेकिन वे अन्धभक्त नहीं थे और साथ ही अन्य धर्मों के प्रति वे न केवल सहिष्णु और उदार थे, बल्कि उनके गुण ग्रहण करने में भी वे संकोच नहीं करते थे। भारतीय संस्कृति में नारी का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण तथा सम्मानप्रदक स्थान रहा है और गुप्तजी ने नारी के अनेक व विविध प्रकार के चरित्र अपने काव्यों में उपस्थित किए हैं। हम कह सकते हैं कि नारी के इतने अधिक तथा विभिन्नतापूर्ण चरित्र किसी अन्य हिन्दी कवि ने प्रस्तुत नहीं किये। सीता, उर्मिला, यशोधरा, विष्णुप्रिया आदि उनके नारी पात्र इतने महान हैं कि उनकी तुलना में किसी भी अन्य कवि के पात्रों को नहीं रखा जा सकता। अबला जीवन से गुप्तजी को गहरी सहानुभूति है। उसे उन्होंने ने इस प्रकार व्यक्त किया है-

अबला जीवन हाय, तुम्हारी यही कहानी।
आंचल में है दूध और आंखों में पानी ।।

अंतिम दिनों में मैथिलीशरण गुप्त जी कुछ अस्वस्थ भी रहने लगे थे, लेकिन वे अपने साहित्य-कर्म से कभी विमुख न हुए। इस प्रकार कर्ममय जीवन व्यतीत करते हुए 12 दिसंबर, 1964 को चिरगांव में ही राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त का देहावसान हो गया। हिंदी साहित्य ने अपने एक महान साहित्यकार को खो दिया। परन्तु गुप्त जी अपनी बेमिसाल रचनाओं के माध्यम से आज भी हम साहित्य-प्रेमियों के दिलों में अमरत्व को प्राप्त किये हुए हैं।
आज जब हम भारत को पुनः ‘विश्वगुरु’ तथा ‘सोने की चिड़िया’ के रूप में देखने के लिये प्रयत्नशील है, तब गुप्तजी के अवदान हमारी शक्ति बन रहे हैं। यही कारण है कि अनेक संकटों एवं हमलों के बावजूद हम आगे बढ़ रहे हैं। ‘कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी’-आज भारत की ज्ञान-संपदा नई तकनीक के क्षेत्र में वैश्विक-स्पर्धा का विषय है। लड़खड़ाते वैश्विक आर्थिक संकट में भारत की स्थिति बेहतर है। नयी सदी के इस परिदृश्य में, नयी पीढ़ी को देश के नवनिर्माण के सापेक्ष अपनी भूमिका सुनिश्चित करनी है। जब तक नैराश्य से निकलकर आशा और उल्लास की किरण देखने का मन है, आतंकवाद के मुकाबले के लिए निर्भय होकर अडिग मार्ग चुनना है, कृषकों-श्रमिकों सहित सर्वसमाज के समन्वय से देश को वैभव के शिखर पर प्रतिष्ठित करने का स्वप्न है, तब तक गुप्तजी का साहित्य प्रासंगिक है और रहेगा।

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