बौद्ध दार्शनिक जन कवि बाबा नागार्जुन की 24 वीं पूण्यतिथि पर विशेष

राकेश बिहारी शर्मा—- मैथिली हिंदी के अप्रतिम लेखक और कवि बाबा नागार्जुन की आज पुण्यतिथि है। बाबा नागार्जुन ने अपनी कालखंड में कई नेताओं की जमकर आलोचना की। वह सच्चे अर्थों में एक जनकवि थे। उनके लिए जनता की रोजी-रोटी ही प्रमुख थी। आमतौर पर इतिहास में वैसे ही लेखकों व कलाकारों का ज्यादा नाम लिया जाता है जो सत्ता से तालमेल बिठा कर उनका जयकारे लगा कर चारणगीत गीत गाते हैं।

सत्ता का विरोध कर अपने समाज के लोगों की आवाज बनने वालों की राह में तो बेशुमार कांटे बिछे होते हैं। बाबा नागार्जुन इस दूसरी श्रेणी में आते हैं। इसलिए उनकी डगर मुश्किलों से भरी थी। नागार्जुन मैथिली, हिन्दी और संस्कृत के अलावा पालि, प्राकृत, बांग्ला, सिंहली, तिब्बती सहित कई भाषाओं के जानकार थे। नागार्जुन सही अर्थों में भारतीय मिट्टी से बने आधुनिकतम कवि हैं। आम जन के कवि बाबा नागार्जुन का जन्म मधुबनी जिले के सतलखा हुसैनपुर गांव में 30 जून सन् 1911 को हुआ था। दरअसल सतलखा बाबा नागार्जुन का ननिहाल है। मूल रूप से जनकवि नागार्जुन दरभंगा के तरौनी के रहनेवाले थे। इनके पिता का नाम गोकुल मिश्र और माता का नाम उमा देवी था। नागार्जुन के बचपन का नाम ‘ठक्कन मिसर’ था। गोकुल मिश्र और उमा देवी को लगातार चार संताने हुईं और असमय ही वे सब चल बसीं। उनकी प्रारंभिक शिक्षा गांव के ही संस्कृत पाठशाला में हुई। आगे की पढाई वाराणसी और कोलकाता में किया। 1936 में ये श्रीलंका चले गए और वहीं बौद्ध धर्म की दीक्षा ग्रहण की।

कुछ समय श्रीलंका में ही रहे फिर 1938 में भारत लौट आए। बाबा नागार्जुन का वास्तविक नाम वैद्यनाथ मिश्र था। उन्होंने काव्य रचना के लिए उपनाम नागार्जुन रखा, इसके अलावा मैथिली रचनाओं के लिए वे यात्री उपनाम से लिखते थे। खांटी किसान और पुरोहिती परिवार में जन्में नागार्जुन बचपन से ही संवेदनशील प्रवृत्ति के रहे। बाबा नागार्जुन या वैद्यनाथ मिश्र की प्रारम्भिक शिक्षा संस्कृत में हुई। राहुल सांस्कृत्यायन से ये प्रभावित रहे। सांकृत्यायन की रचना ‘संयुक्त निकाय’ का इन्होंने पाली में अनुवाद किया। पाली सीखने के लिए बाबा नागार्जुन श्रीलंका चले गए। जहां बौद्ध भिक्षुओं को वे संस्कृत सिखाते थे और खुद पाली का अभ्यास करते थे। यहीं उन्होंने बौद्ध धर्म की दीक्षा ली और बौद्ध दार्शनिक नागार्जुन के नाम को अपना लिया। सन् 1929 ई. में नागार्जुन की पहली रचना मिथिलना नामक पत्रिका में छपी थी।

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हिंदी में पहली रचना ‘राम के प्रति’ नामक कविता थी जो लाहौर से निकलने वाले साप्ताहिक ‘विश्वबन्धु’ में छपी थी। नागार्जुन की कुल रचनाओं की बात करें तो इन्होंने करीब आधा दर्जन उपन्यास, दर्जनों कविता संग्रह, मैथिली कविताओं का संग्रह लिखा। जिसका विभिन्न भाषाओं में अनुवाद भी किया गया। बाबा नागार्जुन को लोग जनकवि कहते थे। बाबा नागार्जुन की शख्सियत हरफनमौला रही। सियासी कटाक्ष वे बेहद सरल शब्दों में कर जाते थे। न सिर्फ लेखन बल्कि जन आंदोलनों में बाबा नागार्जुन की अहम भागीदारी रही। बाबा नागार्जुन ने समाज की रूढियों का मुकाबला भी किया। जब वे बौद्ध धर्म अपनाकर पहली बार गांव लौटे तो उनकी ही जात बिरादरी के लोगों ने उनका बहिष्कार कर दिया। जिसकी बाबा ने कभी परवाह ही नहीं की, क्योंकि वे जानते थे कि उनकी बौद्धिक क्षमता और सोच किसी मजहब की जंजीरों में जकड़कर नहीं रह सकती है। बाबा की धारधार काव्य रचनाओं ने उन्हें आम लोगों के हृदय का सम्राट बना दिया। उनकी रचनाओं में गरीबों, दलितों और मजलूमों की आवाज छिपी है। फक्कड़ कवियों की फेहरिस्त में कबीर के बाद बाबा नागार्जुन का ही नाम आता है। बाबा ने सामाजिक सरोकार को कभी नहीं छोड़ा।

साथ ही सिद्धांतों से कभी समझौता नहीं किया। आजादी के बाद उनकी उम्मीदें टूटती रही। कवि मन कराह रहा था कि किस तरह अंग्रेजों की गुलामी के बाद अपने ही लोग लूट खसोट में लगे हैं। जिसके बाद वे मुखर होकर अपनी कविताओं के जरिए शासन के कारनामों को उजाकर किया। बिहार में सन् 1941 में किसान आंदोलन हुआ। बाबा ने सबकुछ छोड़कर आंदोलन में अपने आप को झोंक दिया था। तत्कालीन अंग्रेजी सरकार ने बाबा नागार्जुन को गिरफ्तार कर लिया। बाबा नागार्जुन की बेबाकी ऐसी कि उन्होंने गांधी पर भी टिप्पणी करने से कभी हिचक महसूस नहीं की। बाबा नागार्जुन ने कविता को छायावाद, रुमानियत, सौन्दर्यवाद से बाहर निकालकर समाज और आम आदमी से जोड़ने की महत्वपूर्ण कोशिश की। बाबा नागार्जुन प्रगतिशील धारा के उस वक्त के कवि हैं जब देश राजनीतिक उथल पुथल के साथ अन्य आंदोलनों से होकर गुजर रहा था। आजादी के बाद जनता की हालत जस की तस देखकर नागार्जुन को यह समझ आने लगा था कि आजादी महज सत्ता परिवर्तन है। जनता की हालत पहले भी वही थी और अब भी वही है। उनकी कविताओं में जनता का दर्द है, आम आदमी का संघर्ष है।

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फक्कड़पन और घुमक्कड़ी प्रवृति नागार्जुन के जीवन की प्रमुख विशेषता रही है। व्यंग्य नागार्जुन के व्यक्तित्व में स्वाभवत: सम्मिलित था। चाहे सरकार हो, समाज हो या फिर मित्र- उनके व्यंग्यबाण सबको बेध डालते थे। कई बार संपूर्ण भारत का भ्रमण करने वाले इस कवि को अपनी स्पष्टवादिता और राजनीतिक कार्यकलापों के कारण कई बार जेल भी जाना पड़ा। लेकिन फिर भी लोकजीवन, प्रकृति और समकालीन राजनीति उनकी रचनाओं के मुख्य विषय रहे हैं। विषय की विविधता और प्रस्तुति की सहजता नागार्जुन के रचना संसार को नया आयाम देती है। छायावादोत्तर काल के वे अकेले कवि हैं जिनकी रचनाएँ ग्रामीण चौपाल से लेकर विद्वानों की बैठक तक में समान रूप से आदर पाती हैं। जटिल से जटिल विषय पर लिखी गईं उनकी कविताएँ इतनी सहज, संप्रेषणीय और प्रभावशाली होती हैं कि पाठकों के मानस लोक में तत्काल बस जाती हैं।

बाबा नागार्जुन हिंदी साहित्य के आधुनिक कबीर थे

हिंदी साहित्य में बाबा नागार्जुन को आधुनिक कबीर कहा जाता है। कबीर की ही तरह बाबा नागार्जुन ने अपने समय की समस्याओं, कुरीतियों पर अपनी कविताओं से प्रहार किया। कभी वे कट्टरपंथी विचारधारा नक्सलवाद के साथ खड़े नजर आए तो कभी जय प्रकाश के आंदोलन में। इस कारण उनकी आलोचनाएं भी होती रहीं। एक तरफ जहां उन्होंने इंद्रा गांधी को बाघिन कहा और चिड़ियाघर में कैद हो जाने की बात कही।

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इंदुजी, इंदुजी क्या हुआ आपको? तार दिया बेटे को, बोर दिया बाप को। कहते हैं जहां न पहुंचे रवि वहां पहुंचे कवि। इसी कहावत को चरितार्थ करती उनकी यह लाइन जो उन्होंने इंदिरा शासन के वक्त कही थी। ‘शेर के दांत, भालू के नाखून मर्कट का फोटा। हमेशा हमेशा राह करेगा मेरा पोता’।

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नेहरू और शास्त्री पर भी व्यंग्य किये

आजादी के तुरंत बाद जब महारानी एलिजाबेथ भारत दौरे पर आई थी। इस दौरान बाबा नागार्जुन ने तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू पर व्यंग्य तंज कसा था। उन्होंने लिखा था, ‘आओ रानी हम ढोएंगे पालकी, यही हुई है राय जवाहरलाल की।’ इसके बाद जब लाल बहादुर शास्त्री देश के दूसरे प्रधानमंत्री बने तो बाबा ने उन्हें भी नसीहत दी और कहा, ‘लाल बहादुर, मत बनना तुम गाल बहादुर।’

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